साल 2020 समस्त मानवता के लिए मुश्किलों और कठिन चुनौतियों से भरा वर्ष रहा है। देश का लगभग हर समुदाय और वर्ग कोरोना काल में किसी न किसी रूप से प्रभावित हुआ है लेकिन कोरोना और असफल लॉकडाउन का सबसे बुरा असर विद्यार्थियों, नौजवानों, मज़दूरों, किसानों, गरीबों, मध्यम वर्ग, व्यापारी वर्ग, लघु और मंझोले उद्योगों पर पड़ा है। इसका नतीजा अर्थव्यवस्था के साथ साथ समाज और लोगों की मनोदशा पर साफ-साफ देखा जा सकता है। पूरा समाज ही भारी मानसिक दबाव से गुजर रहा है। इस बीच देश में जहां समाज के हर क्षेत्र से जुड़ी हस्तियों की कोरोना से असमय मृत्यु हुई है वहीं लाखों लोग अपनों को खोने का व्यक्तिगत दुख झेल रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में देश ने कई प्रसिद्ध कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, शिक्षाविदों, डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, खिलाड़ियों, सीमा पर तैनात जवानों और प्रसिद्ध नेताओं को खोया है। बीते कुछ दिनों में ही प्रखर समाजवादी नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री माननीय रघुवंश बाबू और सामाजिक योद्धा व हरियाणा के पूर्व मंत्री स्वामी अग्निवेश जी के निधन से लोग मर्माहत हैं। लोग इन बुरी खबरों से उबरने की कोशिश में लगे रहते हैं कि तभी अचानक असमय मौत की कोई नई खबर आ जाती है। इस दौर में अन्य लोगों की तरह मैंने भी अपने मित्रों, आंदोलनों के साथियों, दोस्तों व परिचितों के रिश्तेदारों, जीवन के अलग-अलग पड़ावों के अभिभावकों व गुरुजनों और चाचा जी को खोया है। बिहार के किसान नेता, पूर्व विधायक व सीपीआई के तत्कालीन राज्यमंत्री कॉमरेड सत्यनारायण सिंह जी सहित कई करीबियों की मौत कोरोना के कारण हुई है।
दुख की इस घड़ी में हम सबका पूरा ध्यान इस बात पर है कि कैसे खुद को ठीक रखते हुए और अपने दुख और भावनाओं को नियंत्रित करते हुए अपने मित्रों, परिचितों और दूसरे लोगों की परेशानियों और चुनौतियों का मिलकर मुकाबला किया जा सके। हर दिन देश में हज़ारों नए केस सामने आ रहे हैं। कुल मरीजों की संख्या 50 लाख के पार पहुँच चुकी है। रोज एक हज़ार से अधिक लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ रही है। यह कितना चिंताजनक है कि सरकार कोरोना और चीन को छोड़कर देश के नागरिक समाज से लड़ रही है। लड़ना चाहिए था गिरती अर्थव्यवस्था से, बेरोजगारी से लेकिन वह लड़ रही है लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, शिक्षाविदों और विद्यार्थियों से। एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकार खुद मानती है कि लॉकडाउन के कारण देश के लगभग दो करोड़ छोटे और मंझोले औद्योगिक केंद्र बंद हो गए। संसद में मजदूरों की मौत की संख्या के सवाल पर सरकार ने कहा कि हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है। पिछले पैंतालीस साल में बेरोजगारी अपने चरम पर और जीडीपी आजाद भारत में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ जुलाई में तकरीबन पचास लाख लोगों की नौकरियां गई हैं। देश में पहले से ही किसान आत्महत्या कर रहे थे और इस असफल लॉकडाउन के बाद कई व्यापारियों द्वारा पूरे परिवार सहित आत्महत्या की खबरें सामने आई हैं। कई रिपोर्ट और ख़बरों में यह बात सामने आई है कि पिछले कुछ महीनों में बेरोजगार युवकों की आत्महत्या दर ने किसान आत्महत्या की दर को भी पीछे छोड़ दिया है। शर्मनाक यह कि जहां लोग अपनी बुनियादी जरूरत की चीजों को खरीद नहीं पा रहे वहीं सत्ताधारी दल विधायक और लोकतंत्र की बोली लगा रहे हैं। देश ने सरेआम मेहनतकशों का घर-बार उजड़ते देखा, पैदल चलकर सड़कों और पटरियों पर दम तोड़ते देखा। एक तरफ लोग अस्पताल में बेड, दवाई, ऑक्सीजन और इलाज की कमी से जान गंवा रहे हैं और हमारे कोरोना योद्धा अपनी जान की परवाह किए बिना हर रोज 18 घंटे काम करके लोगों की जान बचाने में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्य मंत्री लूडो खेलते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं। सरकार के फोटोशूट में देश के आम लोगों के दुखों की तस्वीर धुंधली हो जाए, इसलिए ही सरकार के टुकड़ों पर पलने वाली रागदरबारी मीडिया के शोर से नीट की परीक्षा का विरोध करने वाले विद्यार्थियों, रोजगार मांग रहे जवानों और किसानों के हक की आवाज को दबाने की तमाम कोशिशें जारी हैं।
टीवी स्टूडियो की फर्जी बहस और सोशल मीडिया के ट्रोलों और बिकाऊ ट्रेंड का एकमात्र उद्देश्य है कि देश के लोगों के असली जरूरी मुद्दे को दबा दिया जाए। हालाँकि इस सरकार में यह कोई नई बात नहीं है। पिछले कुछ सालों में देश ने देखा है कि कैसे एक बेवजह का मुद्दा उछाला जाता है, लोग आपस में बहस करना शुरू करते हैं, समाज खेमों में बंट जाता है, फर्जी न्यूज व फर्जी सूचनाओं के आधार पर फर्जी पक्ष-विपक्ष बन जाता है और सरकार इस बीच देश की कोई महत्वपूर्ण कंपनी या कीमती संसाधन कौड़ियों के दाम पर चंदा देने वाले अपने अरबपति दोस्तों को बेच देती है। देश का ध्यान इस ओर जाए, इस पर कोई सकारात्मक विमर्श हो पाए, इससे पहले ही एक नया शगूफा छोड़ दिया जाता है। बड़ी चालाकी से देश को बेचा जा रहा है, लूटा जा रहा है और आम लोगों को कंगाल बनाया जा रहा है और सरकार की हर विफलता के बाद इसे छिपाने के लिए या तो एक नया फर्जी दुश्मन गढ़ लिया जाता है या फिर गड़े मुर्दे उखाड़कर आज के हमारे जीवन के असली सवालों को दफन कर दिया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या छिपाने से मुद्दे छिपाये जा सकते हैं? क्या झूठ से सच को दबाया जा सकता है? क्या यह सरकार इस बात से इनकार कर सकती है कि कोरोना काल में इनके झूठे दावों, नकली सपनों और जुमलों की धज्जियां उड़ गई हैं? यही कारण है कि यह सरकार इस देश में कोई सकारात्मक बहस नहीं चाहती। यह नहीं चाहती कि देश में रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, पर्यावरण और देश को सचमुच महान बनाने वाले मुद्दों पर बात हो।
जो लोग इस देश में आम लोगों की परवाह करते हैं, प्यार, न्याय और अधिकार की बात करते हैं, जो समझते हैं कि सरकार से सवाल करना ही देशहित है, जो जानते हैं कि लोगों से ही देश बनता है और उनके अधिकारों की रक्षा करना ही देश और लोकतंत्र की सेवा है, ऐसे लोगों को समाज में बदनाम करना, उनके खिलाफ फर्जी वीडियो बनाकर मीडिया ट्रायल करना, सोशल मीडिया पर झूठ फैलाना, सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करते हुए झूठे मुकदमे करना और जेल में डालना इस सरकार की आदत और जरूरत दोनों बन गई है। न्याय, बराबरी, शांति और सौहार्द की बात करने वाले, संविधान की भाषा बोलने वाले और गांधी, आंबेडकर, भगत सिंह, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि की बात करने वाले लोग 2014 से ही सरकार के निशाने पर हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि गोडसे को महान बताने वाले, गोली मारने की बात करने वाले, खुलेआम हिंसा की बात करने वाले और गोली चलाने वाले देशभक्त हो गए और इनका विरोध करने वाले लोग देशद्रोही बता दिए गए। दंगाई सरकार में बैठ गए और शांति की अपील करने वाले दंगाई करार दिए जा रहे हैं। “दंगा भड़काओ, मुद्दा भटकाओ योजना” को गति देते हुए देश के हर हिस्से में आपदा में राजनीतिक बदला लेने का नया अवसर ढूंढ़ लिया गया है। पिछले दिनों बेगूसराय में एक साहसी और जुझारू नौजवान साथी संतोष ठाकुर, जो समाज में हक़ की आवाज बुलंद करते थे, लॉकडाउन में हुई पुलिसिया दमन से उनकी मौत हो गई। पिछले दिनों ही बेगूसराय के किसानों पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया।
बात पीपली में किसानों पर हुए लाठीचार्ज की हो या फिर बेगूसराय में किसानों पर हुए दमन की, एक बात बिल्कुल साफ है कि कोरोना की रोकथाम में विफल यह सरकार अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र दोनों का कचूमर निकाल रही है। जो भी सरकार की इस नाकामी का विरोध करते हैं, उनको किसी न किसी बहाने प्रताड़ित किया जाता है। पिछले कई महीनों से देश के कई मशहूर तो कई कम जाने-पहचाने नाम लोकतंत्र के हक में आवाज उठाने की कीमत जेलों में रहकर चुका रहे हैं। असम के किसान नेता अखिल गोगोई, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुमड़े सहित दर्जनों लोग लंबे समय से जेल में कैद हैं। डॉक्टर कफील को जेल की लंबी प्रताड़ना के बाद पिछले दिनों कई महीनों बाद रिहा किया गया है, लेकिन आज भी एनआरसी और सीएए का विरोध करने वाले कई सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्त्ता जेलों में बंद हैं।
हार्दिक पटेल को जमानत के बाद भी गुजरात से बाहर जाने की इजाजत नहीं है। पहले से ही सामाजिक कार्यकर्त्ता और आंदोलनकारी इस सरकार के निशाने पर तो थे ही कोरोना की आड़ में दिल्ली दंगों के जांच के नाम पर सरकार विरोधी आवाज को कुचलने का प्रयास लगातार जारी है. सैकड़ों लोगों को पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए बुलाया गया है और कई विद्यार्थियों को गिरफ्तार भी किया गया। इसी कड़ी में नताशा और देवांगना के बाद हाल ही में उमर को भी गिरफ्तार किया गया और दस दिन की पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया। हद तो तब हुई जब सीताराम येचुरी, योगेंद्र यादव, सबा दीवान, राहुल रॉय, प्रोफेसर अपूर्वानंद और प्रोफेसर जयति घोष को इन दंगों के आरोपों के घेरे में लिया जाने लगा। सवाल यह है कि भाजपा के नेताओं को, जिन्होंने खुलेआम दंगा भड़काने का काम किया, उन्हें पूछताछ के लिए क्यों नहीं बुलाया गया और उनकी गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई। कहते हैं न सैयां भए कोतवाल तो डर काहे का? दिल्ली दंगों की जांच पर सवाल उठना लाजिमी है क्योंकि इस जांच का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना नहीं बल्कि राजनीतिक बदला लेना है।
यह बात बड़ी चिंताजनक है कि किसी की जान जाती है और कोई इसमें राजनीतिक फायदा ढूंढ़ता है। इन नफरतवादियों से देश और समाज को बचाना होगा। जो लोग इसकी जरूरत समझते हैं, उनसे बस एक आग्रह है कि किसी भी सूरत में हमें भाजपा के हिंदू-मुस्लिम खेल को समझना होगा। ऐसी हर बहस से हमें सावधान रहने की जरूरत है जिसका अंत कहीं न कहीं हिंदू और मुसलमान के बीच बढ़ रही खाई को और चौड़ा करता हो. वे अपने उद्देश्यों में बिल्कुल साफ हैं। वे चाहते हैं कि आम नागरिकों के हक की लड़ाई को हिंदू और मुसलमान में बांट दिया जाए और जो भी इसका विरोध करे, चाहे उसका नाम और उपनाम कुछ भी हो, उसे ये अपना दुश्मन मानते हैं। हम सबको मिलकर समाज को बांटने की इस साजिश को नाकाम करना होगा। हर हाल में इंसाफपसंद लोगों को अपनी एकता बनाकर रखनी होगी। इस आपदा की घड़ी ने अपनी आवाज को बुलंद करने के साधनों को वैसे ही सीमित कर रखा है, ऐसे में जो लोग जिस भी तरीके से और जिस किसी माध्यम से अपनी आवाज उठा रहे हैं, हमें उनका समर्थन और सहयोग करना चाहिए। आखिर में जीत वास्तविकता की ही होगी, झूठ तो आखिर झूठ ही है चाहे कितना ही शानदार क्यों न हो। यह दौर भी बीतेगा, जब पहले वाला नहीं रहा तो यह वाला भी गुजर जाएगा। बस हमें ईमानदारी से समाज को बेहतर बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए। लड़ेंगे-जीतेंगे।
(लेखक कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के नेता हैं)