सब्र का मतलब यह नहीं है कि चुप-चाप ज़ुल्म सहते जाओ, ज़ुल्म हर समाज में नापसन्दीदा है

कोई भी इंसान ज़ुल्म से मुहब्बत नहीं करता, इसके बावजूद इतिहास के हर दौर में ज़ुल्म होता रहा है। इंसान की फ़ितरत है कि जब उसे ताक़त हासिल हो जाती है तो अपने ही भाइयों पर ज़ुल्म करने लगता है, जब तक वो ख़ुदा से न डरता हो। अल्लाह का डर ही ताक़तवर को ज़ुल्म से दूर रखता है। इसीलिये जब-जब ऐसे हुक्मरां हुए जो ख़ुदा का डर रखने वाले थे तब-तब ज़ुल्म और ज़ालिम को अपने पाँव समेटने पड़े। ज़ुल्म करना तो ज़ुल्म है ही, ज़ुल्म सहना भी दरअसल अपने-आप में ज़ुल्म है। ज़ुल्म सहने से ज़ालिम के हौसले बुलंद होते हैं वह और भी ज़्यादा ज़ुल्म करता है।

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ज़ुल्म की उम्र हालाँकि कम होती है। लेकिन इसके नुक़सानात देर तक बर्दाश्त करने पड़ते हैं। हर दौर में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने वाले भी पैदा होते रहे। यह कुदरत का निज़ाम है। अल्लाह एक मुद्दत तक ही ज़ालिम को मौहलत देता है। जब ज़ालिम हद से बढ़ता है तो उसके मुक़ाबले पर खड़े होने वालों की हिमायत करके ज़ुल्म का ख़ात्मा कर देता है। ख़ुद हमारे देश में अंग्रेज़ों के अत्त्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों की उसने मदद की। जिसकी बदौलत उस ज़ुल्म से नजात मिली और आज़ादी की सुबह नसीब हुई।

ज़ुल्म की बहुत-सी शक्लें हैं। एक शक्ल ये है कि इन्सानों की आज़ादी छीन ली जाए। हर शख़्स आज़ाद पैदा हुआ है उसे ग़ुलाम बनाने का किसी को हक़ नहीं है। आज़ादी यह है कि इंसान अपने पसंद की ज़िन्दगी गुज़ारे, अपनी पसंद का खाए-पिए, उसे जो अच्छा लगे वो पहने, उसकी ख़ानदानी ज़िन्दगी आज़ाद हो। उसकी मज़हबी ज़िन्दगी आज़ाद हो, वो चाहे एक ख़ुदा को माने चाहे हज़ारों ख़ुदाओं को। अगर कोई हुकूमत या गरोह बाक़ी इंसानों पर अपनी पसंद को इख़्तियार करने पर मजबूर करे या ऐसा माहौल बनाए जिससे इंसान की पसंद मुतास्सिर होती हो या वह अपनी पसंद और ख़ाहिश पर अमल करते हुए डरता हो, तो यह ज़ुल्म है।

भारत में आज यही हो रहा है। अल्पसंख्यकों को मजबूर किया जा रहा है कि वे बहुसंख्यकों की पसंद और ख़ाहिश के सम्मान में अपनी पसन्द को छोड़ दें। क़ानून बनाकर उन्हें पाबंद किया जा रहा है कि वे अपनी इच्छाओं का गला घोंट दें। देश में हलाल मीट और झटका की बहसें, आज़ान, लाउड-स्पीकर और हिजाब पर पाबंदियां, इसी श्रेणी में हैं। लोग जब सच बोलने से डरने लगें तो ज़ुल्म अपनी चरम को पहुँच जाता है।

अभी कुछ ही दिन पहले एक मुस्लिम नौजवान को केवल इसलिये गिरफ़्तार कर लिया गया कि उसने फ़ेसबुक पर लीची को फ़ोटो डालकर उसकी जाँच करने की माँग कर दी थी। दूसरी तरफ़ मुसलमानों को गालियाँ देने वाले, इस्लाम और पैग़म्बरे-इस्लाम का अपमान करने वाले, धर्मसंसद में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नरसंहार की बात करने वाले, समाज को बाँटने वाली ज़बान बोलने वाले आज़ाद घूम रहे हैं।

ज़ुल्म की एक शक्ल आर्थिक है। देश में आर्थिक अत्याचार भी जारी है। जिसका नतीजा महंगाई और बेरोज़गारी में बढ़ोतरी की सूरत में सामने आ रहा है। सरकारी संपत्ति को बेच देना, सरकारी संस्थाओं को निजी कम्पनियों को देना, टैक्स में बढ़ोतरी, छोटे कारोबार ख़त्म करना, ऐसे क़ानून बनाना जिससे छोटे किसान ग़ुलाम हो जाएँ, यह सब आर्थिक अत्याचार है। इसी ज़ुल्म के खिलाफ़ किसानों का आंदोलन हुआ था, जो किसी हद तक कामयाब हुआ।

इस वक़्त रुपये की क़ीमत पिछले सत्तर सालों में सब से कम है। G.D.P में लगातार गिरावट आ रही है। ग़रीबी रेखा से नीचे ज़िन्दगी गुज़ारने वालों में हर वक़्त बढ़ोतरी हो रही है। आर्थिक ज़ुल्म देश की कमर तोड़ देता है। हमारे पड़ौसी देश श्रीलंका की सूरते-हाल हम सबके सामने है। आज वहाँ के शहरी दाने-दाने को मोहताज हैं। पूरा देश सड़क पर आ गया है। हुक्मरानों के घर जलाए जा रहे हैं। उन्हें कार के साथ झील में धक्का दिया जा रहा है। जब आप किसी के मुंह से निवाला छीनेंगे तो यही प्रतिक्रिया होगी।

ज़ुल्म की एक शक्ल इतिहास पर ज़ुल्म है। इतिहास को मिटाना और बदल देना ज़ुल्म है। बद-क़िस्मती से हमारा देश इस मामले में सबसे आगे है। हमारे देश में पिछले हुक्मरानों को, जो यहीं पैदा हुए और यहीं दफ़न हो गए, हमलावर कह कर उनका धर्म रखनेवालों पर ज़ुल्म को सही ठहराया जा रहा है। उनके बारे में झूटी बातें लिखकर क़ौमों में दुश्मनी पैदा की जा रही है। यह दुश्मनी इस हद तक है कि उनके बसाए हुए शहरों के नाम बदले जा रहे हैं, उनके नाम से बनी सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं। उन पर मंदिर तोड़ने के बेबुनियाद इल्ज़ाम लगाए जा रहे हैं।

इतिहास के साथ यह ज़ुल्म बहुत ही ख़तरनाक है। अव्वल तो देश के हुक्मरानों को इतिहास में हुई घटनाओं का हिसाब मौजूदा दौर के लोगों से लेने का कोई हक़ ही नहीं, न ही मौजूदा नस्ल अपने पूर्वजों के लिये उत्तरदायी है। मगर अपने सियासी फ़ायदों को हासिल करने के लिये इतिहास को बदला जा रहा है।

देश में पढ़े-लिखे लोगों पर भी ज़ुल्म हो रहा है। ऊँची तालीम हासिल करने के बाद भी चाय-पकोड़े बेचने, जैसा कारोबार करने पर मजबूर होना बहुत ही ज़्यादा शर्म की बात है। इसका मतलब है कि हमारे पास पढ़े-लिखे लोगों से फ़ायदा उठाने की कोई प्लानिंग नहीं है। हम अपने अच्छे दिमाग़ों को बर्बाद कर रहे हैं। यह तस्वीर एक तरफ़ बेरोज़गारी को दर्शा रही है, दूसरी तरफ तालीम की अहमियत और फ़ायदों को कम कर रही है। पढ़े-लिखे लोगों की यह दुर्गति देख कर नई नस्ल शिक्षा की तरफ़ कैसे आकर्षित होगी?

सिलेबस से नैतिकता को निकाल देना भी ज़ुल्म है। तालीमी इदारों पर मुख़्तलिफ़ ग़ैर-ज़रूरी पाबन्दियाँ लगाना भी ज़ुल्म है। इसके अलावा किसी मुल्क में करप्शन का होना भी ज़ुल्म है। करप्शन ख़ुद ज़ुल्म है। इसकी वजह से हक़दार अपने हक़ से महरूम हो जाता है। मरीज़ अपनी जान से जाता है, इंसाफ़ ख़रीद लिया जाता है, लोगों के घर बर्बाद हो जाते हैं।

ज़ुल्म चाहे किसी भी शक्ल में हो और किसी पर भी हो, इस्लाम की तालीम है कि उसके ख़िलाफ़ खड़ा हुआ जाए। एक मोमिन न ज़ुल्म करता है, न ज़ुल्म सहता है और न होने देता है। अगर उसके पास ताक़त होती है तो तलवार के ज़ोर से ज़ुल्म को रोकता है, वह विपक्ष में होता है तो उसके ख़िलाफ़ ज़बान और क़लम का इस्तेमाल करता है। कहीं मग़लूब होता है तो दिल से ज़ुल्म को बुरा समझता है, उसकी आखें ज़ुल्म को देखकर आँसुओं से भर जाती हैं और दिल तड़प उठता है।

इस्लाम और ज़ुल्म एक-दूसरे की ज़िद (विपरीत) हैं। देश के मौजूदा हालात में मुसलमानों की ज़िम्मेदारी केवल यही नहीं है कि वे अपने ऊपर हो रहे ज़ुल्म का रोना रोएँ बल्कि उन्हें देश के दूसरे नागरिकों के अधिकारों का हनन करने वाले क़ानूनों के ख़िलाफ़ भी खड़े होना है। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ को मज़बूत करना है। सब्र का मतलब केवल यह नहीं है कि चुपचाप ज़ुल्म को सहते जाएँ, बल्कि इसका मतलब यह है कि उसके ख़िलाफ़ खड़े हो जाएँ और डट जाएँ, यहाँ तक कि ज़ुल्म और ज़ालिम का ख़ात्मा हो जाए।

बहुत-से समाज सुधारक इस वक़्त सब्र की तलक़ीन करते हुए नसीहत कर रहे हैं कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ सड़कों पर न आएँ, T.V डिबेट में शिरकत न करें, अपनी तरफ़ से क़ानूनी कार्रवाई न करें। इन नसीहतों के नतीजे बुज़दिली और साहस की कमी की शक्ल में निकलेंगे। अगर आप ज़ुल्म के ख़िलाफ़ सड़कों पर नहीं आएँगे तो ज़ुल्म को कैसे रोकेंगे? अगर आप T.V डिबेट में नहीं जाएँगे तो देशवासियों के सामने सही बात कैसे आएगी? बुज़दिली नहीं, पामर्दी दिखाइये। ताक़त हासिल करके इंसाफ़ क़ायम कीजिये। ज़ुल्म ने सियासी तौर पर मुत्तहिद होकर ज़ुल्म का रास्ता इख़्तियार किया है तो आप भी इसी रास्ते पर चल कर ज़ुल्म का ख़ात्मा कीजिये। हफ़ीज़ मेरठी ने कहा है कि-

सिमटे बैठे हो क्यों बुज़दिलों की तरह।

आओ मैदान में ग़ाज़ियों की तरह॥