मनीष सिंह
तड़ीपार नही था वो! पर चश्मा उतारकर आपको घूर ले, तो ख़ौफ़ तारी हो जाये। जिस ख़ौफ़ का सौ तड़ीपार भी मुकाबला नही कर सकते। लेकिन कामराज छोटे शिकार नही करता था। कुमारस्वामी कामराज, डेढ़ सौ साल की उम्र में कांग्रेस का अकेला ऐसा अध्यक्ष, जो पद की ताकत से कांग्रेस को अपने इशारों पर नचाता। जी हां, ह्यूम की कांग्रेस असल मे अंग्रेजो की पिट्ठू कांग्रेस थी। एक सिम्पल ग्रीवयेन्स रिड्रेसल मैकेनिज्म। उसमे बुद्धिजीवी साल में तीन दिन बैठते। सरकार बहादुर को अपने दुख दुखड़े बताते। सभापति, याने अध्यक्ष कोई अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी बना दिया जाता। उसकी भूमिका “बैठ जाइए-बैठ जाइये” से ज्यादा नही होती थी।
लेकिन 20 साल में गोखले अपनी पैन इंडिया नेटवर्किंग के कारण प्रभावी हो गए। उनमें थोड़ा नेशनलिस्ट फील भी था। लेकिन तिलक उनसे ज्यादा नेशनलिस्ट थे, गरम थे। नरम गरम ने खींचतान हुई। इस खींचतान में जब जिसका पौआ भारी हों जाता, अपने किसी चेले या मित्र को अध्यक्ष बना देते। हर साल एक नया अध्यक्ष आता।
1915-25 का दौर संक्रमण का है। गांधी तैयार हो रहे थे। लोकप्रिय हो रहे थे। स्वराज पार्टी बनी, तो कई G-23 वाले बूढ़े नेता कांग्रेस छोड़ गए, या गांधी के सामने सर नवा दिया। अब पच्चीस साल गांधी सर्वशक्तिमान थे। अपने चेलों को अध्यक्ष बनाते रहे। इस तरह आजादी आते तक, वार्षिक अध्यक्ष होते रहे। और गांधी के विश्वस्त चेले- मौलाना, सरदार, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद एक से ज्यादा बार अध्यक्ष बने। पर रियल पावर गांधी के पास होती। गांधी की हत्या के बाद, सरदार के अवसान के बाद नेहरू ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वमान्य लीडर थे। पर वे पीएम हो चुके थे। सरकार चलाना फुल टाइम जॉब है। तो पार्टी अध्यक्षी में दूसरे लोग आते जाते रहे।
इसी बीच एक साल इंदिरा भी अध्यक्ष हुई। ये नेहरू के लिए शॉकिंग था। दक्षिण भारत में हुए एक अधिवेशन में, वहां के मुख्यमंत्री ने अप्रत्याशित रूप इंदिरा के नाम का प्रस्ताव रख दिया। नेहरू की बेटी का विरोध कौन करता, मिनटों में चुन ली गयी। इंदिरा का अध्यक्षी कार्यकाल दागदार था। कांग्रेस की केरल यूनिट और अध्यक्ष बेटी के दबाव में केरल सरकार बर्खास्त हुई। अनुच्छेद 356 का पहला प्रयोग, या दुरुपयोग, जो भी कहिये। अगली बार नेहरू ने इंश्योर किया कि इंदिरा को दूसरा कार्यकाल न मिले। यूएन ढेबर अध्यक्ष हुए। और फिर उन्हें बने रहने दिया गया, लगातार पांच साल। फिर बुलाए गए कामराज। दूर दक्षिण के एक सीएम। कांग्रेस के पुराने क्षत्रप, ये नेहरू के ढलान का दौर था। सरकार कैबिनेट के जिम्मे थी, पार्टी कामराज के। तो कामराज ने एक प्लान लाया, उद्दंड और आरामतलब होते पुराने नेता, मुख्यमंत्रियों की कुर्सी छोड़ें, और पार्टी का काम करें।
जनप्रतिनिधियों को ज़मीन पर उतरने के लिये मजबूर करना
मेरा बूथ सबसे मजबूत तो नही, पर जनता से दूर होते जनप्रतिनिधियों को को जमीन तक जाने को मजबूर किया गया। एक साथ कई मुख्यमंत्रियों की कुर्सी खाकर कामराज, मोस्ट डरावने अध्यक्ष हो गए। पर अब उन्हें ज्यादा बड़ा काम करना था। उन्हें प्रधानमंत्री चुनना था। धूमिल होते नेहरू अब पंचतत्व में विलीन हो चुके थे। बड़ा शून्य था, विकल्प कामराज को देना था। टाइम पास के लिए, एक सेफ आदमी, याने गुलजारी नंदा को बिठा दिया। फिर गोटे गणित शुरू हुए। कामराज चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे। नही बने, इसलिए क्योकि वह प्रधानमंत्री बनने के लिए अपने मे योग्यताएं नही पाते थे। दक्षिण से होने, और हिंदी न जानने के कारण अपने पापुलर सपोर्ट पर उन्हें कोई मुगालता नही था। और अगर किसी आदमी को अपनी सीमाओं का सही भान हो, तो वह औरों की कमजोरियों पर खेलता है। इतिहास में पहली बार, कांग्रेस अध्यक्ष पीएम चुनने वाला था। लेकिन सत्ता की ताकत, पार्टी की ताकत से ज्यादा होती है। इसलिए कामराज मजबूत पीएम नही चाहिए था।
मोरारजी देसाई, नही चाहिए था। नेहरू का पहला कार्यकाल, एक स्टार का था। दूसरा ढलान का, और तीसरा डिजास्टर। कमजोर होते नेहरू, सोशलिस्ट-वाम झुकाव वाले नेहरू के सामने, पार्टी में और सरकार में एक दक्षिणपन्थी खेमा था। अपना दबाव बनाए रखता था। वित्तमंत्री मोरारजी इसके किंगपिन थे। नेहरू के सामने दब जाते थे, लेकिन नेहरू के बाद? कामराज बरगद नही बोन्साई खोज रहे थे। नजर दौड़ाई, बेस्ट बोन्साई नेहरू की बेटी थी? पर वो बस नेहरू की बेटी थी। गूंगी गुड़िया, न सांसद, न किसी और पद पर, अनुभवहीन। लेकिन फिर भी पूछ ही लिया, तो इंदिरा ने मना कर दिया। पर नेहरू लॉयलिस्ट का समर्थन कामराज की चॉइस को मिलना पक्का हो गया।
तलाश फिर चालू हुई।
उत्तर प्रदेश के एक श्रीवास्तव बाबू थे। ईमानदार, दीन हीन, वेरी वेरी सॉफ्ट। मामूली विधायक थे,नेहरू सांसद बनाकर कैबिनेट में ले आये थे। रेलमंत्री बना दिया। पर ईमानदार बाबू ने एक मामूली दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दे दिया था। नेहरू थे, कि उन्हें खोना नही चाहते थे। सो “मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो बनाये” रखा था। पार्टी पर कोई होल्ड नही, कोई अपना गुट नही। मरहूम नेहरू का लॉयल बन्दा, लाल बहादुर श्रीवास्तव ने काशी विद्यापीठ से पढ़ाई की थी। शास्त्री की उपाधि ली थी। सरनेम भी अपनी उपाधि, याने शास्त्री लिखते। दक्षिणपन्थी खेमे को उनपर विरोध करना बड़ा कठिन होता। छोटे कद के शास्त्री डार्क हॉर्स बनकर रेस में शामिल हुए। और कामराज नाम के जॉकी ने कुशलता से उन्हें रेस जिता दी। लिटिल स्पेरो प्रधानमंत्री के आवास में शिफ्ट हुए। और पावर शिफ्ट हुई, कामराज की गोद मे कामराज ने एक नही, दो प्रधानमंत्री बनाये। और एक बन्दे को प्रधानमंत्री नही बनने दिया। आखिरकार, मोरारजी ने कांग्रेस छोड़ी और संघ की सहायता से पीएम बनकर पाकिस्तान का दिल जीता। लेकिन कामराज की दोनों चॉइस, हिंदुस्तान का दिल जीतने वाली थी।