15 साल बाद आतंकवाद के बरी हुए नौजवान, जमाअत-ए-इस्लामी हिंद ने कहा, “देर से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है”

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नई दिल्लीः जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द ने 2008 के जयपुर बम विस्फोट मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि देर से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। जमाअत ए इस्लामी हिंद ने बताया कि राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर खंडपीठ के न्यायमूर्ति पंकज भंडारी और न्यायमूर्ति समीर जैन के फैसले ने मामले के चारों आरोपियों को मौत की सजा सुनाने वाले निचली अदालत के फैसले को पलट दिया है। निर्णय कुछ परेशान करने वाले सवाल उठाता है। जैसा कि अभियुक्तों को निर्दोष घोषित किया गया है, इसका अर्थ है कि अपराध के असली अपराधी अभी भी आज़ाद हैं। जमाअत महसूस करती है कि  सरकार विस्फोटों की योजना बनाने और उन्हें अंजाम देने वाले अपराधियों की जांच और पता लगाने के लिए एक नई टीम का गठन करेगी। उसे ऐसा करना ही चाहिए क्योंकि विस्फोटों में मारे गए लोगों के परिजनों को अभी तक न्याय नहीं मिला है।

जमाअत कोर्ट से सहमत है कि झूठे आरोप लगाने वाले दोषी पुलिस अधिकारियों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द की मांग है कि बरी किए गए पांचों को मुआवजा दिया जाए, क्योंकि उन्होंने झूठे मुकदमों में जेल में अपने कीमती जीवन के 15 साल खो दिए। इसके अलावा, उनके परिवारों को “आतंकवादियों” के परिजनों के रूप में लेबल किए जाने के अपमान के अतिरिक्त उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। यह हमारे समाज की समस्या है कि बिना आरोप साबित हुए ही आरोपी को दोषी मान लिया जाता है। जमाअत का मानना है कि यह फैसला इस बात का एक और उदाहरण है कि किस तरह शासन देश में आतंक के विभिन्न कृत्यों के पीछे असली दोषियों का पता लगाने में पूरी तरह से विफल रहा है, लेकिन क्रूर कानूनों का उपयोग करके निर्दोष लोगों को निशाना बनाने और इस तरह उनके परिवारों के साथ-साथ उनके जीवन को नष्ट करने के लिए उत्सुक रहा है। इसने हमारे लोकतंत्र को कमजोर किया है और आम नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता को कमजोर किया है।

रामनवमी पर हुई हिंसा

रामनवमी पर देश के अलग अलग शहरों में मुसलमानों के ख़िलाफ हिंसा पर जमाअत-ए-इस्लामी हिंद चिंता ज़ाहिर की है। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द ने कहा कि वह रामनवमी समारोह के दौरान पूरे देश में हुई हिंसा पर चिंता व्यक्त करती है और इसकी निंदा करती है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि भारत के विभिन्न शहरों में हुई हिंसा में समान और परिचित पैटर्न को अपनाया गया। धार्मिक जुलूस की आड़ में की जाने वाली कोई भी हिंसा किसी भी धर्म के लिए बेहद परेशान करने वाली होती है। धार्मिक त्योहार और जुलूस सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे के लिए होते हैं। अगर इसका इस्तेमाल हिंसा करने या देश की शांति भंग करने के लिए किया जाता है तो यह बेहद निंदनीय है और इसे रोका जाना चाहिए। यह धार्मिक नेताओं के लिए भी विचार करने वाली बात है। उन्हें इस प्रवृत्ति के खिलाफ खुलकर सामने आना चाहिए और अपने अनुयायियों से धार्मिक गतिविधियों को असामाजिक तत्वों द्वारा अपहरण किए जाने से रोकने का आग्रह करना चाहिए। जमाअत को लगता है कि हाल ही में हुई रामनवमी की हिंसा अनायास नहीं बल्कि पूर्व नियोजित थी। इसलिए, यह हमारे खुफ़िआ विभाग की घोर विफलता है, जो चिंता का विषय भी है। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द प्रशासन और पुलिस से डीजे बजाने की अनुमति नहीं देने का आग्रह करती है, जो कानूनी रूप से अनुमेय ध्वनि स्तरों से अधिक ऊँची आवाज़ के माध्यम से ध्वनि प्रदूषण का कारण बनता है। साथ ही, इससे पहले कि उन्हें बजाने की अनुमति दी जाए बजाए जा रहे गानों के बोलों की जांच की जानी चाहिए, क्योंकि कई में उत्तेजक और अपमानजनक वाक्यांश हैं। पुलिस को ऐसे जुलूसों को सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इलाकों से गुजरने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। पुलिस को मजबूत होना चाहिए और ऐसा करने के लिए राजनीतिक दबाव का विरोध करना चाहिए। यह समझना भी काफी मुश्किल है कि धार्मिक जुलूसों के लिए ऐसा रास्ता क्यों जाए कि दूसरों के  धार्मिक स्थलों के सामने से गुजरना पड़े। अगर इसका मकसद भड़काना और डराना है तो पुलिस और प्रशासन को इसकी इजाजत नहीं देनी चाहिए.

“मीडिया वन” पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द मलयालम समाचार चैनल मीडिया वन को प्रसारण लाइसेंस का नवीनीकरण करने से इनकार करने के केंद्र के आदेश को खारिज करने के भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करती है। केरल स्थित टीवी चैनल बेजुबानों की आवाज बनने और लगातार दबे-कुचले लोगों के पक्ष में मुद्दों को उठाने के लिए लोकप्रिय है। इसे गृह मंत्रालय द्वारा सुरक्षा मंजूरी से वंचित कर दिया गया था। जमाअत शीर्ष अदालत की टिप्पणियों से सहमत है कि  “सरकार नेशनल सिक्योरिटी को नागरिकों को संविधान में दिए गए अधिकारों से रोकने के लिए उपकरण के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। यह ‘क़ानून सर्वोपरि है ‘ के खिलाफ है। जबकि हमने यह माना है कि अदालतों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा वाक्यांश को परिभाषित करना अव्यावहारिक और नासमझी होगी, हम यह भी मानते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरों कि बात हवा में नहीं कही जा सकती। इस तरह के अनुमान का समर्थन करने वाली सामग्री होनी चाहिए। फाइल पर मौजूद सामग्री और ऐसी सामग्री से निकाले गए निष्कर्ष का कोई संबंध नहीं है।” उल्लेखनीय है कि सरकार ने ‘मीडिया वन’ को सिक्योरिटी क्लीयरेन्स न देते हुए दावा किया था कि यह चॅनेल सरकार विरोधी खबरें प्रसारित कर रहा है। जमाअत सुप्रीम कोर्ट के इस विश्लेषण से सहमत है कि चैनल को केवल इसलिए सरकार विरोधी नहीं कहा जा सकता इसने सरकार की नीतियों कि आलोचना की है।  सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने केवल इन विचारों के आधार पर सिक्योरिटी क्लीयरेंस देने से इंकार कर देना, अभिव्यक्ति कि आज़ादी खासकर प्रेस कि आज़ादी  पर नियंत्रण जैसा है। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द को उम्मीद है कि सरकार प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने से परहेज करेगी और अपनी नीतियों और फैसलों की रचनात्मक आलोचना का स्वागत करेगी। इससे लोकतंत्र मजबूत होगा और प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हमारी रैंकिंग सुधरेगी।

चुनावी बांड

जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट पर चिंता जताते हुए कहा- – “2021-22 में सात राष्ट्रीय दलों की कुल आय का 66% से अधिक अज्ञात स्रोतों जैसे चुनावी बॉन्ड से आया, जो उनकी आय का 83% हिस्सा था। एक आरटीआई के जवाब के मुताबिक, सरकार ने 2022 में 1 करोड़ रुपये के 10,000 इलेक्टोरल बांड छापे। एसबीआई से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 545 करोड़ रुपये मिले। जब से इलेक्टोरल बॉन्ड योजना शुरू की गई है, तब से राजनीतिक दलों द्वारा एकत्र की गई कुल राशि 10,791 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। यह राशि 2018 से 22 चरणों में विभिन्न गुमनाम दानदाताओं से एकत्र की गई है। चुनावी बांड गुमनाम होते हैं; हालांकि, चूंकि वे सरकारी स्वामित्व वाले बैंक (एसबीआई) द्वारा बेचे जाते हैं, इसलिए सरकार के लिए यह जानना आसान होता है कि विपक्ष को कौन फंडिंग कर रहा है। वित्त अधिनियम 2017 में संशोधन करके सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त चंदे का खुलासा करने से छूट दी है। यह सुनिश्चित करता है कि मतदाता यह नहीं जान पाएंगे कि किस व्यक्ति, कंपनी या संगठन ने किस पार्टी को और किस हद तक फंड दिया है। चुनावी राजनीति में पैसे का यह असमानुपातिक हिस्सा और वह भी अपारदर्शी तरीके से हमारे लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। चुनाव आयोग चुनाव चलाने के बढ़ते खर्चों को नियमित करने में कोई भूमिका नहीं निभा रहा है। न्यायपालिका ने अभी तक चुनावी बांड के बारे में कोई फैसला नहीं सुनाया है और किसी भी तरह के स्वतः संज्ञान लेने से परहेज किया है। जमाअत इस्लामी हिन्द की मांग है कि राजनीतिक दलों को एक साथ आना चाहिए और पूरी प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाकर चुनावों में धन बल के बढ़ते दबदबे को रोकने के लिए कानून लाना चाहिए। हमें उम्मीद है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय जल्द ही निष्पक्षता और पारदर्शिता के पक्ष में अपना फैसला सुनाएगा ताकि हमारा लोकतंत्र मजबूत हो और राजनीति में एक समान अवसर आए।

अडानी पर बहस

जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द अडानी-हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर चर्चा करने में सरकार की अनिच्छा पर चिंता व्यक्त करता है, जिसके परिणामस्वरूप लाखों करोड़ रुपये के स्टॉक मूल्यांकन (बाजार पूंजीकरण में गिरावट) का नुकसान हुआ। अडानी प्रकरण ने हमारे नियामक निकायों और हमारे लेखा परीक्षकों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया है। बताया गया है कि एलआईसी ऑफ इंडिया का अडानी ग्रुप ऑफ कंपनीज में भी एक्सपोजर था। इतने बड़े घटनाक्रम के साथ, यह समझना मुश्किल है कि सरकार इस मुद्दे पर संसद में चर्चा क्यों नहीं चाहती है और अडानी मामले की जांच के लिए जेपीसी गठित करने की विपक्ष की मांग को मानने से इनकार क्यों कर रही है। जमाअत को लगता है कि किसी भी लोकतंत्र में सरकार को लोगों को भरोसे में लेना चाहिए। इसलिए, लगभग 80 बिलियन डॉलर के स्टॉक मूल्यांकन के इतने बड़े पैमाने पर ओवरप्राइसिंग को रोकने में आरबीआई, सेबी और अन्य नियामक निकायों की विफलता के खिलाफ किसी भी आरोप पर सफाई देनी चाहिए। अगर कोई गलत काम नहीं है और सब कुछ निष्पक्ष है, तो सरकार को चर्चा से नहीं शर्माना चाहिए और एक जांच गठित करनी चाहिए।