ज़ाहिद ख़ान
6 फरवरी, आज़ाद हिंद फौज के संस्थापक सदस्य कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन का स्मृति दिवस है। यही वह तारीख़ है, जब जंग-ए-आज़ादी का यह सूरमा हम से हमेशा के लिए जुदा हो गया था। आज़ाद हिंद फौज सेनानी कर्नल ढिल्लन ने जंग के मैदान में ब्रिटिश फ़ौज को जमकर चुनौती दी थी। उनके पराक्रम का दुश्मन भी लोहा मानते थे। अविभाजित भारत में 18 मार्च, 1914 को अमृतसर के अलगो गांव में साधारण किसान परिवार में जन्मे गुरबख़्श सिंह की शुरुआती तालीम गवर्मेंट हाई स्कूल चूनियन लाहौर में हुई। हाई स्कूल इम्तिहान पास करने के बाद, साल 1933 में उन्होने इंडियन मिलिट्री अकादमी में दाखिला ले लिया। भारतीय थल सेना ने 14वीं पंजाब रेजीमेंट के जवान ढिल्लन को साल 1940 में नियमित कमीशन दे दिया। दूसरी आलमी जंग कर्नल ढिल्लन की ज़िंदगी में फ़ैसलाकुन मोड़ लेकर आई। मलाया कैम्पेन के दौरान जापान से अंग्रेज़ सेना की शिकस्त के बाद, दक्षिण-पूर्व एशिया में जनरल मोहन सिंह के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फौज का गठन हुआ। आज़ाद हिंद फौज की स्थापना होते ही अंग्रेज़ी सेना में अभी तक रहे हज़ारों हिंदुस्तानी फ़ौजियों के साथ, कर्नल ढिल्लन भी आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गए। आगे चलकर आज़ाद हिंद फौज के नेतृत्व का जिम्मा नेताजी सुभाषचंद्र बोस को मिला और आख़िर तक उन्होने इसकी कमान संभाले रखी।
आज़ाद हिंद फ़ौज में कर्नल (रेजीमेंटल कमाण्डर) के ओहदे तक पहुंचे कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन ने आज़ाद हिंद फ़ौज की कई लड़ाईयों में हिस्सेदारी की और अपनी बहादुरी, जांबाजी के जौहर दिखलाए। आईएनए के इस जांबाज सिपाही ने बर्मा (वर्तमान-म्यांमार) में इरावदी नदी के किनारे जनरल सर विलियम सिलम की 14वीं ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़ जंग लड़ी थी। तारीख़ इस बात की गवाह है कि उन्होने इस लड़ाई में अपने से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली गोरों की फ़ौजों को पूरे छह रोज तक रोके रखा था। कर्नल ढिल्लन की पराजय के बावजूद दुश्मन जनरल सर विलियम सिलम ने जंग-ए-मैदान में उनकी बहादुरी की तारीफ़ की। यही नहीं अंग्रेज सेना के एक और अफ़सर जनरल मेंजिज ने भी रणक्षेत्र में कर्नल ढिल्लन के युद्ध कौशल को सराहा था। आज़ाद हिंद फ़ौज की चौथी गोरिल्ला रेजीमेंट (नेहरू ब्रिगेड) के इस पराक्रमी नायक को गोरिल्ला पद्धति से दुश्मनों को छकाने में महारथ हासिल थी।
इम्फ़ाल ऑपरेशन के दौरान अंग्रेज़ी सेना से आज़ाद हिंद फ़ौज की पराजय के बाद कर्नल ढिल्लन दीगर आज़ाद हिंद फ़ौज सेनानियों के साथ गिरफ़्तार कर लिए गए। 5 नवंबर, 1945 से 31 दिसंबर, 1945 तक दिल्ली के लाल किले में उन पर मुकदमा चलाया गया। हिंदुस्तानी तारीख में यह मुकदमा ‘लाल किला ट्रायल’ के नाम से जाना जाता है। इस ऐतिहासिक मुकदमे में कर्नल प्रेम कुमार सहगल, मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान के साथ कर्नल ढिल्लन पूरे मुल्क में महानायक बन कर उभरे। आज़ाद हिंद फ़ौज के इन तीनों अहम अफ़सरों पर अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने के इल्जाम में मुकदमा दायर किया गया था। बहरहाल जब मुकदमे की ट्रायल शुरू हुई, तो इस मुकदमे ने उस समय आज़ादी के लिए लड़ रहे लाखों वतनपरस्तों को एक सूत्र में बांध दिया। वकील भूलाभाई देसाई मुकदमे के दौरान जब लाल किले में बहस करते थे, तो सड़कों पर सैकड़ों नौजवान ये जोशीले नारे लगाते-‘‘लाल किले से आई आवाज़, सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़। तीनों की उम्र हो दराज़।’’
‘लाल किला ट्रायल’ मुल्क की आजादी के संघर्ष में निर्णायक मोड़ साबित हुआ। मुकदमा कई मोर्चों पर हिंदुस्तानी एकता को मजबूत करने वाला था। मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान को मुस्लिम लीग और कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने की पेशकश की थी, लेकिन इन देशभक्त सिपाहियों ने कांग्रेस के बचाव दल को ही अपनी पैरवी करने की मंजूरी दी। मज़हबी जज़्बात से ऊपर उठकर सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज का यह देशभक्ति भरा फ़ैसला सचमुच काबिले तारीफ़ था। कांग्रेस की बचाव टोली में सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में कई नामी गिरामी वकील भूलाभाई देसाई, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सर दिलीप सिंह, आसफ़ अली, बख़्शी सर टेकचंद, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर ख़न्ना, सुल्तानयार ख़ान, राय बहादुर बद्रीदास और पीएस सेन आदि शामिल थे। सर तेज बहादुर सप्रू की अस्वस्था के चलते वकील भूलाभाई देसाई ने आज़ाद हिंद फौज के तीनों वीर सिपाहियों का संयुक्त मुकदमा लड़ा। मुकदमे के दौरान पूरे मुल्क में कौमियत का माहौल पैदा हुआ। सारे मुल्क में अंग्रेजी सरकार के ख़िलाफ़ धरने-प्रदर्शन और एकता सभाएं हुईं। इन सभाओं में मुकदमे के मुख्य अभियुक्त कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज की लंबी उम्र की दुआएं की गईं। सीनियर एडव्होकेट भूलाभाई देसाई की शानदार दलीलों ने इस मुकदमे को आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों के हक़ में कर दिया। सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज के अलावा आज़ाद हिन्द फ़ौज के अनेक फ़ौजी जो जगह-जगह गिरफ़्तार हुये और जिन पर देश भर में सैकड़ों मुकदमे चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गये।
लाल किले में चलाए गए अभियोग का असर मुल्क में सशस्त्र सेना के हिंदोस्तानी अफ़सरों और फ़ौजियों पर पड़ा। लाल किला ट्रायल के प्रभाव से ही मुम्बई नौसेना और वायु सेना में विद्रोह हुआ और कई जगह अनेक टोलियों में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह की हवा फैल गई। कामगार, आम राजनैतिक हड़ताल पर चले गये तथा आम जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। इस पूरे घटनाक्रम से हिंदोस्तान में ब्रिटिश राज की नींव हिल गई। लाल किला मुकदमा और आज़ाद हिंद फ़ौज के संघर्षों का ही नतीज़ा था कि एक साल के अंदर हमारा मुल्क आज़ाद हो गया। आजादी के बाद साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन ने मुल्क को एक बार फिर अपनी ख़िदमत दी। साल 1964 से लेकर साल 1967 तक वे एनसीसी में एक्टिंग केप्टन के पद पर रहे। साल 1977 में आपातकाल की मुख़ालिफ़त में वे जनता पार्टी के टिकिट से लोकसभा चुनाव भी लड़े। हिंदुस्तान की आज़ादी में कर्नल ढिल्लन के योगदान को सरकार ने इक्यावन साल बाद आंका और उन्हें 12 अप्रैल, 1998 को अपने सर्वोच्च सम्मानों में से एक पद्मभूषण सम्मान से नवाज़ा। 15 अगस्त, 1997 को भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट भी जारी किया। लाल किले के एक हिस्से सलीमगढ़ में जहां आज़ाद हिंद फ़ौज के तीनों नायक सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज कैद थे, इस जगह को सरकार ने नवंबर, 1995 में आज़ाद हिंद फौज की याद में स्वतंत्रता स्मारक घोषित कर दिया। किताब ‘फ्रॉम माय बोन्स’ कर्नल ढिल्लन द्वारा लिखी गई आत्मकथा है। इस आत्मकथा में कर्नल ढिल्लन और आज़ाद हिंद फ़ौज की रोमांचक संघर्ष यात्रा का ब्यौरा मिलता है।
अपने वतन से मोहब्बत और उस पर मर मिटने का जज़्बा कर्नल ढिल्लन के दिल में आख़िर तक रहा। मौजूदा दौर में वतनपरस्ती के जज़्बे में आई गिरावट पर कर्नल ढिल्लन कहा करते थे,‘‘हमारी पीढ़ी ने पहली बार जब अपनी आंखें खोली, तो गुलाम हिंदुस्तान और गुलामी की बेड़ियां थीं। लेकिन नई पीढ़ी ने अपनी आंखें आज़ाद हिंदुस्तान में खोली हैं। लिहाज़ा वे आज़ादी की क़ीमत को नहीं पहचानते। किस तरह हज़ारों-लाखों लोगों की क़ुर्बानी के बाद, मुल्क आज़ाद हुआ। आज हमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई तो मिल जाते हैं, लेकिन नहीं मिलते तो हिन्दुस्तानी।’’ वतनपरस्ती के बीज इंसान के दिल में किस तरह अंकुरित होते हैं ?, इसके मुताल्लिक कर्नल ढिल्लन कहा कहते थे,‘‘आज़ाद हिन्द फ़ौज में भर्ती होने पर हम अपना मज़हब नहीं लिखते थे। लिखते थे, तो सिर्फ हिन्दुस्तानी। वतनपरस्ती का यही जज़्बा हमें अपने मुल्क से जोड़े रखता था।’’ अपना आख़िरी समय कर्नल ढिल्लन ने दुनियावी चकाचौंध से दूर मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के छोटे से गांव हातौद में बिताया। 6 फरवरी 2006 को, 92 साल की उम्र में आज़ाद हिंद फ़ौज के इस जांबाज़ सिपाही ने दुनिया से अपनी रुख़सती ली। अपने अदम्य साहस, अद्भुत पराक्रम और वतनपरस्ती के लिए कर्नल गुरबख़्श सिंह ढिल्लन मुल्क में हमेशा याद किए जाएंगे। उनके बहादुरी भरे कारनामों को कोई भुला नहीं पाएगा।