एक लेखक को किसी भी विषय या शख्सियत पर कलम उठाने से पहले खुद को ईमानदार होना चाहिए. हर पहलु पर वही लिखना चाहिए जो सच है. अक्सर वही लिखा या बोला जाता है जो खुद को सही लगता है. विनायक दामोदर सावरकर के मामले में भी वही रुख अपनाया गया है. एक वर्ग सिर्फ विनायक दामोदर सावरकर के बचपन में अंग्रेजों के खिलाफ मुहीम को सामने लेकर वीर घोषित करने में पुरे जोर व शोर से संघ परिवार से जुड़े सभी राजनीतिक व सामजिक संगठन के नेता मुहीम चलाते नज़र आ रहे है जबकि विनायक दामोदर सावरकर के दूसरे पहलु उग्र हिंदुत्व का रूप व अंग्रेजो से गुप्त समझौते के तहत जेल से वरी होकर अंग्रेजों के एजेंडे पर चलनेवाले सावरकर के कार्यप्रणाली को भूल जाते है. देश हित में विनायक दामोदर सावरकर को सही ठहराने के लिए महात्मा गांधी का सहारा लिया जा रहा लेकिन 1910 के बाद सावरकर का इतिहास उनका साथ नहीं दे रहा है. सावरकर की विचारधारा व आंदोलन पर लिखी मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी की किताब ‘ सावरकर फ़िक्र व तहरीक – एक मुताअला ‘ एक बेहतरीन किताब है. सावरकर के जीवन का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि शुरुआती दिनों में सावरकर देश की स्वतंत्रता और उसके लाभ हानि को समग्र संदर्भ में देखते थे. लेकिन बाद के दिनों में उनपर सांप्रदायिकता हावी हो गई.
सावरकर की पहली पुस्तक ‘ 1857 की जंगे आज़ादी ‘ जिसमें हिंदू मुस्लिम एकता और देश की आज़ादी के जज़्बे का वर्णन करते हुए पूरी ताक़त से 1857 की क्रांति और संघर्ष को ग़दर के बजाय स्वतन्त्रता आंदोलन साबित किया गया है। ब्रिटिश ने पहली मर्तबा 13 मार्च 1910 को सावरकर को गिरफ्तार किया। सावरकर पर तीन आरोप के तहत मुकदमे चलाए गए और 25, 25 वर्ष की दो सजा सुनाई गई। उस समय सावरकर की आयु केवल 27 वर्ष की थी। सावरकर पर जिन आरोप के तहत मुकदमे चलाए गए थे वह यह थे: 1.ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध 2. दूसरों के लिए शस्त्र मुहैय्या करना 3.भड़काऊ पुस्तकें लिखना.
जुलाई 1911 में अंडमान द्वीप में बंद कर दिया गया वहां उनको विभिन्न प्रकार के अत्याचारों और विपरीत परिस्थितियों को सहन करना पड़ा। अंत के दिनों में अंग्रेज़ी सरकार से गुप्त समझौतों के बाद सज़ा की निर्धारित अवधि से पहले 6 जनवरी 1924 को रिहा कर दिया गया और हिंदू मुस्लिम घृणा और भेदभाव के कट्टरपंथ की राजनीति के प्रतिनिधि बनकर सामने आ गए।
हिंदुत्व- यह सावरकर की सबसे ख्याति प्राप्त और सिद्धान्तों का निर्माण करने वाली पुस्तक है. इस पुस्तक से बाद के लगभग सभी हिंदू पुनरुद्धार वाहकों ने लाभ उठाया है। सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा और सीमा बनाई है। इस किताब ने देशभर में सांप्रदायिकता का माहौल तैयार करने में अहम भूमिका निभाई. और अंग्रेज भी यही चाहते थे की हिन्दू मुस्लिम में विभाजन हो. सावरकर अंग्रेजों के मकसद पर खड़े उतरे. देश में विवाद बढ़ने के बाद संघ ने खुद को सावरकर से किनारा कर लिया था लेकिन आज वर्त्तमान में संघ के ही पॉलिटिकल विंग बीजेपी के नेता चाहे अमित साह हो या राजनाथ सिंह सभी संवैधानिक पदों पर होते हुवे भी सावरकर के गुणगान में करते है .
जब गांधी अहिंसा का मूलमंत्र के साथ ब्रिटिश के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे तो विनायक सावरकर ने ‘गांधी गड़बड़’ यह मराठी हिंदी में गांधी जी के विचार एवं कार्यों पर आक्रामक आलोचना लेख पर आधारित किताब लिखा. हिंसावादी बनने का सफर विनायक सावरकर द्वारा गांधी गड़बड़ नामी किताब साबित करता है.
सावरकर स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि अहिंसा की प्रचार करने वाले अज्ञानी हैं या शत्रु, अहिंसा की बात केवल कमज़ोर और बुज़दिलों के मुंह से अच्छी लगती है।
सावरकर बुद्ध मत वालों को देश का ग़द्दार, देशद्रोही घोषित करते हुए कहते हैं कि उन्होंने विदेशी हमलावरों का साथ दिया ( प्रमाण किताब:- मज़कूरह किताब का तीसरा बाब).
जहाँ हिंदुस्तान के अल्पसंख्यकों, मुसलमानों और ईसाइयों आदि के संबंध में वह विभिन्न प्रकार के प्रश्न उठा कर देश से वफ़ादारी पर संदेह का मार्ग साफ़ करते हैं, वहीं दूसरी ओर हिंदू बहुसंख्यक समाज को हिंसा और कट्टरता पर उभारते भी हैं। एक बार 1940 में मदुरई में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के महासम्मेलन में भारी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि हिंदुओं को अहिंसा, चरख़ा व सत्याग्रह के फ़रेब से निकलना चाहिए। पूर्णरूपेण अहिंसा की नीति आत्महत्या के नीति है और एक बड़ा भारी पाप भी।( मोहन दास निमेष राय की किताब :- भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास जिल्द 2).
रामलीला मैदान दिल्ली में 5 मई 1957 में आयोजित समारोह में सावरकर ने कहा था हमारे सामने बुद्ध नीति और युद्ध नीति है। हम बुद्ध की आत्मघाती नीति के बजाय विजय प्रदान करने वाली युद्ध नीति को अपनाएंगे।
सावरकर हिंदुस्तान में ईसाइयत को एक बड़े संकट के रूप में देखते हैं. ईसाइयों की आबादी बढ़ती गई तो भारत में ईसाइस्तान के अस्तित्व का ख़तरा पैदा हो जाएगा। इसलिए हिंदुओं को चाहिए कि इस संकट का मुक़ाबला करने के लिए तैयार हों, केसरी का वीर सावरकर अमृत मीनू विशेष नंबर। ( साक्ष्य और प्रमाण: सावरकर अफ़कार व ख़यालात, पेज 47).
द्वितीय विश्व युद्ध के अवसर पर ब्रिटिश सरकार से सहयोग और असहयोग के मामले में सावरकर हिंदू महासभा ने कांग्रेस और महात्मा गांधी से अलग मार्ग अपनाया। सावरकर ने हिन्दू युवाओ को ब्रिटिश फौज में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जबकि गांधी नहीं चाहते थे.
सावरकर का विचार था कि हिंदू युवाओं की फ़ौज में भर्ती से रोज़गार मुहैया होने के अतिरिक्त युद्ध के अनुभव भी प्राप्त होंगे। हिंदू महासभा और सावरकर का समर्थन करते हुए प्रोफ़ेसर भावे ने गांधी जी के स्टैंड को समझदारी के विपरीत बताया है। ( साक्ष्य और प्रमाण:- विनायक दामोदर सावरकर पेज 76 ).
सावरकर की नीति ब्रिटिश सरकार के उद्देश्य के अनुरूप थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के सिलसिले में जब कांग्रेस के लगभग सभी योग्य नेता जेल में थे तो सावरकर बाहर ब्रिटिश के उद्देश्य के अनुरूप हिंदुत्व का एजेंडा चला रहे थे और कहा कि जो होना था वही हुआ। ( साक्ष्य और प्रमाण:- हिस्टोरिकल स्टेट मिन्ट्स पेज 77).
डॉ भीमराव अंबेडकर ने सख़्त आलोचना व टिप्पणी करते हुए लिखा है कि सावरकर की सांप्रदायिक योजना भारत की सुरक्षा के लिए अत्यंत विनाशकारी स्थिति पैदा कर रही है, ( साक्ष्य और प्रमाण:- Pakistan On Partition Of India, पेज 142, मुम्बई मुद्रक 1946, हिंदी अनुवाद सम्यक प्रकाशन, Edition 2014 ).
1910 के बाद सावरकर के कार्यप्रणाली से साबित होता है की देशभक्त से हिंसावादी और देशद्रोही बनने का सफर कैसे तय किया. अगले लेख में सावरकर के माफ़ीनामा के ऑरिजिनल डॉक्युमेंट्स ( दस्तावेज ) के सन्दर्भ में विस्तार से लिखेंगे.
(लेखक शिक्षाविद्य एंव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)