पत्रकार जाहिद ख़ान का छलका दर्द ‘कोरोना ने नहीं, सिस्टम की संवेदनहीनता और लापरवाही ने छीना पिता को’

जाहिद ख़ान

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देश में कोरोना संक्रमण को आए एक साल से ज्यादा बीत गया है। इस दरमियान मेरे पिचहत्तर साल ऊपर उम्र के पिता सेहतमंद बने रहे। उन्हें कोई परेशानी पेश नहीं आई। जबकि वे बीते तीस साल से हार्ट पेशेंट थे और नियमित तौर पर उनकी ब्लड प्रेशर की दवाएं चल रही थीं। लेकिन अप्रैल का महीना परिवार पर आफत बनकर आया। 17 अप्रैल को छोटे भाई और उसकी पत्नी ने कोरोना से बचाव के लिए वैक्सीनेशन करवाया। उनकी देखा-देखी मैंने भी टीका लगवाया और उसके बाद पिता से पूछा, तो वे भी वैक्सीन लगवाने के लिए तुरंत तैयार हो गए। पापा के इतनी जल्दी तैयार हो जाने पर मैंने एक बार फिर उनसे तस्दीक की, तो कहने लगे ‘‘वैक्सीन न लगवाने से भी तो खतरा है। अब जो होगा देखा जाएगा।’’ जाहिर है उनके इस सकारात्मक जवाब के बाद, मेरे दिल के अंदर वैक्सीन को लेकर जो आशंकाएं उठी थीं, वे शांत हो गईं। आखिरकार, उन्हें भी वैक्सीन लग गई। सभी को कोविशील्ड वैक्सीन लगी। वैक्सीन लगने से पहले सभी का बाकायदा टेम्परेचर लिया गया। बीपी, ऑक्सीजन लेवल नापा गया। सब कुछ दुरुस्त होने के बाद ही वैक्सीन लगी। शाम होते-होते मुझे बुखार आ गया। पैरासिटामोल की एक गोली ली, लेकिन रात तीन बजे तक नींद नहीं आई। एक बेचैनी शरीर में बनी रही। खैर, दूसरे दिन भी बुखार रहा, तो एक गोली और ली। बाकी लोगों को ऐसे कोई लक्षण नहीं दिखलाई दिए। लेकिन 19 अप्रैल होते-होते पापा को खांसी शुरू हो गई। साथ ही बुखार भी आ गया। दवा दी, मगर कोई आराम नहीं मिला। मजबूरन 20 अप्रैल को जिला अस्पताल के एक डॉक्टर को उसके घर दिखाया। घर इसलिए कि अस्पताल में पहली बात, तो ओपीडी चल नहीं रही, दूसरा संक्रमण का भी डर था। पिता की हालत और प्रारंभिक लक्षणों को देखते हुए, डॉक्टर ने कोविड जांच और सीटी स्कैन का मशविरा देते हुए पांच दिन की दवा लिख दी।

यहां से हमारे परिवार की जद्दोजहद शुरू हुई। पहले दिन, तो हमने यह सोचकर पापा की कोई जांच नहीं कराई कि हो सकता है, दवा से ही आराम मिल जाए। लेकिन जब आराम नहीं मिला, तो पहले कोविड की जांच करवाने की कोशिश की। 21 अप्रैल को दोपहर अस्पताल पहुंचा, तो वहां दो बजे ही जांच खत्म कर दी गई थी। जबकि जांच का समय सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक था। काउंटर पर पूछा, तो बताया गया कि आज का कोटा पूरा हो गया। अब दूसरे दिन जांच होगी। मेरे सामने ही कई संदिग्ध मरीज बिना जांच करवाए वापिस लौटे। मैं भी अपना सा मुंह लेकर वापिस घर लौट आया। घर में भाईयों ने तय किया कि कोविड टेस्ट न करवाते हुए, पापा और मां के चेस्ट की सीटी रिपोर्ट करवाते हैं, उससे यह मालूम चल जाएगा कि दोनों के फेफड़ों में कितना इंफेक्शन है ? सीटी टेस्ट मामले में जिलेवासी खुशनसीब हैं कि यहां जिला अस्पताल के साथ-साथ एक प्राइवेट सेंटर पर भी टेस्ट होता है। खैर, 22 अप्रैल को सीटी टेस्ट के लिए प्राइवेट सेंटर पहुंचे, लेकिन वहां इस जांच के लिए लंबी लाइन मिली। मालूम चला कि आज जांच मुमकिन नहीं। कल के ही नंबर चल रहे हैं। लिहाजा कार में ही एक घंटा इंतजार कर, वापिस घर लौट आए। अगले दिन यानी 23 अप्रैल को जिला अस्पताल में जांच के लिए कमर कसकर, वहां पहुंच गए। जांच हुई, पर इसके लिए पूरे दो घंटे का वक्त लगा। एक्स—रे टेक्नीशियन ने टेस्ट के बाद एक्स—रे फिल्म तो दे दी, पर जांच रिपोर्ट दूसरे दिन देने का कहा। रिपोर्ट जयपुर से ऑन लाइन आती है। जिला अस्पताल में जो व्यवस्था है, वह पीपीपी मॉडल पर है। जिसमें एक निश्चित रकम भरकर, कोई भी अपनी जांच करवा सकता है। बीपीएल और आयुष्मान कार्ड वालों के लिए यह जांच मुफ्त है। बहरहाल, जांच 24 अप्रैल को हाथ आई। जांच में पापा तो संक्रमित निकले, मां का संक्रमण पिता से भी ज्यादा निकला। इस रिपोर्ट को डॉक्टर को दिखाया, तो उसने फिर कोविड जांच करवाने की बात कही। दवाओं का पूछा, तो जो दवा वह पहले लिख चुके थे, उसे ही तीन दिन और बढ़ाने का मशविरा दिया। मां की रिपोर्ट लेकर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर के पास पहुंचा, तो वहां मरीजों का इतना मजमा मिला कि जांच रिपोर्ट दिखाने का उत्साह ठंडा हो गया। दिल में ख्याल आया कि जांच रिपोर्ट जैसे-तैसे दिखा भी ली, तो इन मरीजों की चपेट में आकर मै। संक्रमित हो जाऊंगा। लिहाजा यह निश्चय किया कि पापा और मां को अब प्राइवेट हॉस्पिटल ही दिखाना ठीक होगा।

प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टर चूंकि मेरे दोस्त थे, इसलिए यह यकीन था कि वहां इलाज पूरी गंभीरता से होगा। डॉक्टर दोस्त ने गंभीरता दिखलाई भी। उन्होंने उसी रात से मम्मी-पापा का इलाज शुरू कर दिया। रात में जरूरी स्टेरॉयड इंजेक्शन और बॉटल चढ़ीं। तीन दिन का ट्रीटमेंट बतलाया। जो हमने घर ही लेना शुरू कर दिया। इस ट्रीटमेंट का असर जल्द ही देखने में आया। दो दिन में ही मम्मी-पापा बेहतर महसूस करने लगे। ट्रीटमेंट में डॉक्टर ने एंटी वायरल दवा फैबिफ्लू 800 एमजी दवा भी लिखी हुई थी, जो इंजेक्शन और बॉटल लग जाने के बाद स्टार्ट करना थी। नगर के मेडिकल स्टोर पर दवा का पता किया, तो यह दवा हर जगह नदारद थी। दवा की हर जगह शॉर्टेज देखने को मिली। मजबूरन दवा ग्वालियर से मंगवाई। वहां भी फैबिफ्लू 800 एमजी की जगह 400 एमजी मिली। और वह भी दोगुने दामों पर। तीन दिन के ट्रीटमेंट के बाद चौथे दिन 28 अप्रैल को पापा का अचानक ऑक्सीजन लेवल गिर गया। जो अभी तक स्थिर था। जाहिर है कि इससे परिवार घबरा गया। घबराहट की हालत में एम्बुलेंस कर जिला अस्पताल पहुंचे। ‘‘जिला अस्पताल में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं और पर्याप्त बेड हैं।’’, इस दावे की जमीनी हकीकत अस्पताल जाते ही मालूम चल गई। जिला अस्पताल का आइसोलेशन और आईसीयू वार्ड दोनों ही फुल थे। किसी अतिरिक्त मरीज के लिए वहां ऑक्सीजन की कोई व्यवस्था नहीं थी। जब इधर-उधर सिफारिशी फोन लगाए, तो बतलाया गया कि अब मरीज को मेडिकल कॉलेज से ही राहत मिल सकती है। वहां अतिरिक्त बेड हैं और भर्ती करवाने की हर मुमकिन कोशिश की जाए। मेरे अंकल जिला अस्पताल में ही डॉक्टर के पद से रिटायर्ड हुए हैं। फिलहाल आईएमए के जिला अध्यक्ष हैं। उन्होंने कोशिशें की, तो पापा को मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया। कॉलेज स्टाफ ने मरीज को अपने अंडर में लेकर, चौथी मंजिल जहां आइसोलेशन वार्ड है, वहां शिफ्ट कर दिया। आइसोलेशन वार्ड में मरीज के किसी अटेंडर को जाने की इजाजत नहीं।

28 अप्रैल का दिन और रात जैसे-तैसे गुजरी। शाम को पापा की हार्ट की जरूरी दवाएं भी स्टाफ के मार्फत पहुंचा दीं। 29 अप्रैल को पापा से फोन पर बात हुई, तो वे लड़खड़ाती ज़बान में कहने लगे कि यहां ऑक्सीजन कहां है ? मेडिकल कॉलेज की हेड नर्स पहचान की निकलीं। उन्होंने जानकारी दी कि आपके फादर ठीक हैं और वे ऑक्सजीन कंसंट्रेटर पर हैं। घबराने की कोई जरूरत नहीं। हेड नर्स पहचान की होने से जो आसरा बंधा था, वह जल्द ही टूट गया। उनके पति से मालूम चला कि वे भी कोरोना पॉजिटिव निकली हैं और अब उन्हें होम आइसोलेट रहना होगा। उनका मेडिकल कॉलेज से जाना हुआ कि दूसरी मिलने वालीं या कहें घर की मेंबर जैसी एक नर्स, उनकी उसी दिन मेडिकल कॉलेज में ड्यूटी लग गई। उन्होंने वादा किया कि वे पापा के स्वास्थ्य की पल-पल की जानकारी देती रहेंगी। पहली जानकारी यह सामने निकलकर आई कि पापा का ऑक्सीजन लेवल गिर रहा है। स्टाफ के अभाव में उनकी क्या, किसी की भी सही देख-रेख नहीं हो पा रही है। ऑक्सीजन की आपूर्ति सही तरह से मिले, उसके लिए मरीज को आईसीयू वार्ड में शिफ्ट करना होगा। वरना, उनकी हालत और बिगड़ेगी। इन समाचारों को सुनने के बाद रहा-सहा हौसला टूट गया। आइसोलेशन वार्ड में अपने मरीज से न मिल पाने की वजह से वैसे भी परिवार के लोग परेशान रहते हैं। तिस पर इस तरह की नेगेटिव खबरें उनका हौसला तोड़ने के लिए काफी हैं। बहरहाल, इस खबर के मिलते ही नगर के प्राइवेट अस्पतालों में भागदौड़ की। एक निजी अस्पताल के आश्वासन के बाद कि वहां मरीज को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहेगी, हमने मरीज को मेडिकल कॉलेज से डिस्चार्ज कराने का फैसला कर लिया। लेकिन जिस तरह से एडमिशन के समय जद्दोजहद करनी पड़ी, वही जद्दोजहद डिस्चार्ज कराने के लिए भी करनी पड़ी। तमाम सिफारिशी फोन के बाद आइसोलेशन वार्ड इंचार्ज डॉ. वर्मा से बात हुई, तो उन्होंने कहा, आपके मरीज का ऑक्सीजन लेवल वाकई कम है। उनकी हालत को देखते हुए हम उन्हें आईसीयू वार्ड में ले रहे हैं। लेकिन एक मर्तबा जो किसी सिस्टम से यकीन उठ जाता है, वह बमुश्किल ही बहाल हो पाता है। तीनों भाईयों का एक फैसला था, अब पिता को मेडिकल कॉलेज से डिस्चार्ज ही कराना है। जो मुमकिन होगा, अब इलाज प्राइवेट हॉस्पिटल में ही करवाएंगे।

30 अप्रैल को पिता को आखिरकार नगर के प्राइवेट हॉस्पिटल में शिफ्ट करवा दिया। वहां उन्हें प्रॉपर ऑक्सीजन मिलने लगी। रात में डॉक्टर ने रेमडेसिविर इंजेक्शन लिखे और सुबह इनका इंतजाम करने को कहा। 1 मई को सुबह-सुबह जरूरी दवाएं, इंजेक्शन और बॉटल चढ़ीं। जैसा कि सभी को मालूम है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन जिला प्रशासन और सीएमएचओ की निगरानी में जरूरतमंद मरीजों को ही मिल पा रहे हैं। जिसके लिए कुछ प्रारंभिक औपचारिकताएं भी हर एक को जरूरी है। तभी वे इंजेक्शन मरीजों के परिजनों को मिल पाते हैं। इन औपचारिकताओं के लिए मैंने भी भागदौड़ शुरू कर दी। पहले एक एप्लीकेशन पर जिला अस्पताल के डॉक्टर के साइन हुए और उसके बाद सीएमएचओ ने अपनी उस पर मुहर लगाई। सारी औपचारिकताएं पूरी हुई, तो मालूम चला कि इंजेक्शन तो सुबह से ही स्टॉक में नहीं है। इसे हासिल करने के लिए कुछ इंतजार करना पड़ेगा। सुबह से शुरू हुआ ये इंतजार, शाम साढ़े चार बजे खत्म हुआ। इस दौरान मरीजों के परिजन इधर से उधर मायूस घूमते रहे। शाम पांच बजे छोटा भाई इंजेक्शन लेकर पहुंचा, तो पिता की तबीयत एक बार फिर बिगड़ी। इंजेक्शन उन्हें लग भी नहीं पाए और उन्होंने अपनी आखिरी सांस ले ली। पिता की मौत कोरोना वायरस से नहीं, बल्कि सिस्टम की लापरवाही और असंवेदनशीलता के चलते हुई। जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में जब पर्याप्त ऑक्सीजन उपलब्ध था। रेमडेसिविर इंजेक्शन और तमाम दवाओं की कोई कमी नहीं थी। जिला प्रशासन और अस्पताल, मेडिकल कॉलेज प्रबंधन के मुताबिक स्टाफ की कोई कमी नहीं थी, तो फिर क्या वजह थी पिता को बचाया नहीं जा सका। यदि उन्हें जरूरत के मुताबिक ऑक्सीजन मिलती, मरीज की पास्ट हिस्ट्री के हिसाब से प्रॉपर इलाज किया जाता, तो मरीज की जान बचाई जा सकती थी। यह किसी एक मरीज के परिवार का अकेला ग़म भरा दुखड़ा नहीं है, बल्कि इसमें कई परिवारों का दुःख, आंसू, मायूसी और उनकी बेबसी शामिल है।