जोधपुर के भाई-चारे को किसकी नज़र लगी?

अब्बास पठान

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जोधपुर में जो कुछ हुआ उसका ग्राउंड अंदर ही अंदर बहुत पहले तैयार हो रहा था। ये ग्राउंड तैयार हो रहा था लोगों के मन मष्तिष्क में, दिनचर्या में, बदलते स्वभाव में, राजनीतिक हिर्स में, गंदे मफाद में, रद्दी के बंडलों से बदबूदार बन चुके अख़बारों में, टीवी चैनलों पर बैठकर चौबीस घण्टा चीखने चिल्लाने वाली आवाजों में, बुद्धिहीनता के दलदल में फंसे किशोरों एवं युवाओं के व्यवहारों में.

एक 400 करोड़ के दुखियारे ने कश्मीर फाइल्स बनाई था. जिसके बाद देश में बची खुची सद्भावना मारी गई.. अप्रिय घटनाओं की झड़ी लग गई। उसका कहना था कि उसने सच दिखाया, दिखाया होगा सच, लेकिन भाई दुखियारे !! तूने आधा सच दिखाया, पूरा नहीं दिखाया.. पूरा दिखाता तो फ़िल्म किसी के मन में घृणा का प्रसार नहीं करती। तूने ये तो दिखा दिया कि 89 पंडितों का क़त्ल हुआ, ये नहीं दिखाया कि 1650 ग़ैर पण्डित मारे गए वे किस ख़ुदा का कलमा पढ़ते थे और उन्हें क्यों कत्ल कर दिया गया! ज़ाहिर है कश्मीर की सद्भावना को, कश्मीर के अमन को और कश्मीर के पंडितों को बचाते बचाते ही मारे गए।

ख़ैर! रमज़ान का मुबारक़ महीना बेचैनी भरी ख़बरों में गुजरा। करौली, खरगोन, हिम्मनगर,दिल्ली में पथराव-आगजनी की घटनाएं हुई. उसके बाद बुलडोज़र की तापड़तोड़ कार्यवाहीयाँ हुई। इन दुखद घटनाओं पर प्रशासनिक कार्यवाहियों का तरीका कितना सही था, कितना ग़लत इस बहस में आधे पौने पूरे दिमाग़ की आवाम महीनाभर से उलझी हुई थी। बस यही वो ग्राउंड था जो जोधपुर शहर के सुकून को भी लील गया। ये बारूद के बुरादे से लीपा गया था जिसे सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत थी।

जोधपुर शहर के बीच व्यस्ततम मार्ग पर एक चौराहा है, उस चौराहे को सभी वर्ग विभिन्न त्योहारों पर अपने अपने झंडों से सजाते हैं। ईद की पूर्व संध्या पर भी यही हुआ, एक ग्रुप चौराहा सजाने के लिए इकट्ठा हुआ, लेकिन दो दिन पहले ही शहर में परशुराम जयंती मनाई गई थी तो चौराहे पर ताजे झंडे लगे हुए थे। अब जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती, ठीक वैसे ही एक स्थान पर दो झंडे नहीं गाड़े जा सकते। बस झगड़ा यहीं पर हुआ। इस घटनाक्रम में चौराहे के बीच लगी स्वतंत्रता सेनानी की मूर्ति को भी तिरस्कृत किया गया। हरे झंडे वालों की भीड़ तितर-बितर हो जाने के बाद उसी चौराहे पर भगवे झंडे वाले भी पधारे और उन्होंने भी अच्छा खासा तांडव मचाया। उसी रात व्हाट्सप पर मैसेज वायरल हुआ, लिखा था कल सब ईदगाह में नमाज़ अदा करें.. ये मैसेज कहाँ बना, किसने बनाया कुछ नहीं पता लेकिन इसे मुसलमानों के ग्रुप में जमकर शेयर किया गया। रात 2 बजे नेटबन्दी हुई तब तक वो मैसेज अपना काम कर चुका था। सुबह ईदगाह में नमाज़ के लिए लोग इकट्ठे हुए, पुलिस प्रशासन ने अपने तरीके से उन्हें अच्छे से मैनेज कर लिया.. नमाज़ होने के बाद एक भीड़ उसी चौराहे पर पहुंच गई और हुल्लड़ मचाने लगी। पुलिस ने उन्हें घर चले जाने का निवेदन किया, वे नहीं माने तब हल्का बल प्रयोग किया। पुलिस के खदेड़े हुए ये लोग वहाँ से तो निकल गए लेकिन रास्ते भर में उत्पात मचाते हुए निकले। इन उत्पाती बंदरो ने राह चलते तोड़फोड़ की, पथराव किया, जमकर अपना परिचय दिया। इसके बाद कर्फ्यू लगा, वाहन जलाए गए, जिसे जो मिला उसके साथ मारपीट की गई, दोनों पक्ष अपने अपने इलाकों में लट्ठ लेकर मुस्तेद हो गए एवं हर आते जाते आदमी को अपने लट्ठ के नीचे लिया। दोनों पक्षो के कई निर्दोष लोग चपेट में आये। बस यही कहानी है।

अब हम बात करते हैं उत्पाती बंदरो की.. इन्होंने पूरा रमज़ान गफ़लत में निकाला है.. सारी रात ये सड़कों पर जागते थे, सवेरे सूरज उगने पर सोते थे। चाय के ढाबों पर रोज़ 2 से 6 घण्टे बैठने वालों की बुद्धि कैसे काम करती होगी आप स्वयं अंदाजा लगा लीजिए। ये सीज़न और फैशन के मुताबिक ड्रेस जरूर पहन लेते हैं लेकिन बुद्धि तो दर्जी से सिलवाई नहीं जा सकती ना! इन्हें कुछ पता नहीं देश दुनिया मे क्या चल रहा है, कानून क्या है, संविधान क्या है.. कैसे चलना है, कब सोना है, कब जागना है, क्या बोलना है, कैसे बोलना है.. कब बाहर निकलना है, कब घर में रहना है! चौक चबूतरों पर बैठकर अपना वर्तमान और भविष्य बर्बाद करने वाली इस प्रजाति को कोई भान नहीं है। एक कहावत है, “आप भले तो जग भला” ये अमूल्य कथन है। जब आपको आपकी आइडेंटिटी से जस्टिफाई किया जा रहा है तो आपका सबसे पहला फ़र्ज़ ये है कि आप कहीं ऐसी हरकत ना करें जिससे आपकी आइडेंटिटी पर दाग लगे.. लेकिन आप तो पूरा कीचड़ में ही कूद पड़े। आपके मुँह से निकला एक लफ्ज़ भी आपका पूरा परिचय दे देता है लेकिन आपने तो पूरी उल्टी ही कर दी। मैं अनगिनत हिन्दूओ और मुसलमानों को जानता हूँ जो इस देश की समावेशी संस्कृति को उग्र राष्ट्रवाद के हवाले स्वाहा होने से बचाने का प्रयास कर रहे हैं. हुकूमत के निशाने पर है जिनमे कई सारे तो जेल में बैठे हैं.. फिर भी प्रयास कर रहे हैं, संघर्ष चल रहा है। क्या जरूरत है, किस लिये जान जोखिम में डाल रहे हैं वे? इसी लिए ना कि नफ़रत का ये पूरा खेल आपकी तस्वीर पर तीरंदाजी करके खेला जा रहा है, और आपके नाम पर, आपके धर्म पर, आपकी पहचान पर चल रहे नफरत के इस राष्ट्रव्यापी खेल को वे अपनी जान जोखिम में डालकर रोकने का प्रयास कर रहे हैं। आपकी एक हरक़त उनकी सारी मेहनत पर गोबर लीप देती है, कैसा लगता होगा उनको सोचिए ज़रा!

उग्र राष्ट्रवाद के व्यापारी तो यही चाहते हैं कि तू आ प्यारे, आंगन लीप दिया है हमने.. बस तेरी कमी है, तू आ… आजा नच ले.. और तुम नाच लिए?? मूर्खों!

अच्छा! मस्जिद की कमेटियां! तुमसे भी एक बात कहनी है! बरसों पहले जब मैं किशोरावस्था में था तब मुझे नमाज़े पढ़ने का शौक लगा था। मैं पाबंदी से नमाज़ अदा करने जाता था। नमाज़ अदा करके बाहर 15-20 मिनट खड़ा रहकर लोगों से गप्पे हांकता था. एक दिन इशा की नमाज़ के बाद मैं मस्जिद के बाहर खड़ा था, एक आदतन शराबी मेरे पास आया, वो नशे में धुत्त था. उसने मुझसे कहा “अब्बास तू नमाज़ पढ़ता है, ठीक है. नमाज़ पढ़कर सीधा घर चले जाया कर, मस्जिद के सामने फालतू मत खड़ा रहा कर, इससे तेरे मन में तकब्बुर पैदा हो जाएगा कि तू नमाज़ पढ़ता है.. तेरे मन में रियाकारी आ जाएगी..” उस आदमी की बात मेरे दिल में धँस गई.. एक शराब के नशे में धुत्त व्यक्ति ने कितनी बड़े तथ्य से मेरा परिचय करवा दिया था ये हैरत की बात है। कुल मिलाकर अल्लाह आपकी हिदायत के लिये किसी को भी भेज सकता है। हां तो मस्जिद की कमेटियों.. ये बात बताने का मकशद ये था कि नमाज़ के बाद लोगों की भीड़ मस्जिद के बाहर क्यों खड़ी रहती है ये आप सोचिए और इसकी रोकथाम के लिए कुछ कीजिए.. भीड़ मस्जिद के अंदर होनी चाहिए, बाहर नहीं..!! मस्जिद के बाहर अंडे कबाब का ठेला क्या कर रहा है?? आप इस ठेले को अपने घर के सामने खड़ा रहने देंगे क्या?? दूसरी बात, फ़ज़र की जमाअत का वक़्त सुबह 5 बजे का था, हद से हद 6.30 बजे ईद की नमाज़ हो सकती थी.. ये प्रयोग हमनें करके भी देखा है। सुबह यदि फ़ज़र के बाद ईद की नमाज़ हो जाती तो तस्वीर कुछ और होती.. रातभर जागने वाली प्रजाति के लिए वो नमाज़ पकड़ लेना, और फिर हुड़दंग भी मचा लेना मुश्किल होता..!! अल सुबह दुकानें बंद रहती, सड़कें ख़ामोश रहती, भीड़ कम होती… तो ये हादसा शायद नहीं होता। और प्रशासन को ट्रैफिक इधर उधर करने की मशक्कत भी नहीं करनी पड़ती। शहर नींद से उठता उससे पहले ईद का शर्बत बनकर सड़क किनारे लग चुका होता, जिसे हिन्दू मुस्लिम सब पीते। शर्बत हलक़ में जाता, कलेजा ठंडा होता। लेकिन कलेजा जल गया। आपने ईद की नमाज़ का वक़्त 8.30 बजे तक रखा..!! इस समय शहर सड़कों पर निकलता है, लोग अपने काम काज और डेली रूटीन पर निकलते हैं… क्या आप नहीं समझते कि हमें इस क्रेश की सूरत से बचने की पहल अपनी ओर से करनी चाहिए??? होश कहाँ है?? शऊर किधर है?? आप इस भीड़ को कंट्रोल कर सकते हैं, तो आराम से कभी भी बुलाइए, लेकिन ये 18 से 24 साल के लड़के अपने मां बाप के कंट्रोल में नहीं है तो आपके कंट्रोल में कैसे आएंगे सोचिए ज़रा.. ! और आप इन्हें ऐलान करके बुला लेते हैं कि आ जाइये 8 बजे तक नहा धोकर.. । आपको अगर 8 बजे ईद पढानी है तो 2 शिफ्ट में नमाज़ कर दीजिए। ये तो तय है कि आने वाले समय में सड़क पर चद्दर बिछाकर नमाज़ पढ़ने पर रोक लग जानी है.. तो ऐसे में यदि आपकी मस्जिद छोटी है तो आप जुम्मे जैसी बड़ी नमाज़े दो शिफ्ट में करवाने की आदत अभी से डाल लीजिए.. इससे एक नया सिस्टम खड़ा हो जाएगा। शरीयत ने हमें सहूलत दी है ना..!!

बहरहाल जो भी हुआ बुरा हुआ.. बच्चों को ईद की ख़ुशी होती है, उनकी ईद ख़राब हुई। पूरे महीने सेहरी इफ़्तार में मेहनत करने वाली हमारी माँ बहने ईद के दिन तनाव में रहीं। इसके जिम्मेदार जो लोग हैं, उनसे प्रशासन सख़्ती से निपटे। ये सब किसी साज़िश के तहत बनी बनाई स्क्रिप्ट पर हुआ है, इसकी बहुत संभावना है.. जांच करें।

शहर का अमन अब भी अपनी जगह पर है, मैं कई सारे हिंदुओ से मिल चुका हूं.. सबने दुख व्यक्त किया है.. कह रहे हैं “ओ कायं हो ग्यो, अपा हैंग मिल जुल र रेवेनियाँ भाई भाई.. ईद नाश हो गई.. बुरो होयो” हमारे शहर में ईद की ख़ुशी हिंदुओ को भी होती है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, और जोधपुर मे रहते हैं)