एक ही फ़न तो हमने सीखा है
जिससे मिलिए उसे खफा कीजिए
हां, मैं अमरोहे का था, भारत का था, भारत का ही रहा. मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद जानते हैं कि मैं जब पाकिस्तान से भारत आया तो अमरोहा पहुंच कर उस मिट्टी में लेट गया था. मैंने चूमा उस मिट्टी को यार…! मैं भारत का ही हो सकता था और हो सकता हूं. कई दिन तक तो मैं माना ही नहीं कि मुल्क के दो टुकड़े हो गए हैं. मैं इस विभाजन के खिलाफ था. मुखालिफ़ था इस तरह की तकसीम का. लेकिन जाना पड़ा. फिर आना भी चाहा लेकिन आ नहीं पाया.
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
वो अमरोहा की शाम थी. सामने से जॉन एलिया आ रहे थे. अमरोहे की मिट्टी माथे पर लगी हुई थी. हाथ में सिगरेट लिए हुए. किसी ने कहा कि आपसे मिलने की बहुत ख्वाहिश थी, ठहाका मार कर हंसे और अपने सिर पर हाथ मारा, दो तीन बार मारा …फिर कहा, ‘अरे बदबख्त …कैसे ढूंढ़ लिया मुझे तुमने. जबकि मैं तो यही कहता आया हूं, कोई मुझ तक पहुंच नहीं सकता इतना आसान है पता मेरा.
कर लिया था मैं अहद-ए-तर्क-ए-इश्क़
तुमने फिर बांहें गले में डाल दीं
मैं हर उस जगह में रहता हूं जो पूरी नहीं है. जहां कहीं जो अधूरापन है, समझ लो मैं वहीं हूं. बाकी मेरा क्या पता होगा, वामपंथी रहा लेकिन खुदा को भी मानता हूं. हुस्न अच्छा लगता है लेकिन हुस्न ही सब कुछ हो ऐसा भी नहीं, मैं हर पांच मिनट बाद कुछ और ही हूं. मैं सब कुछ हूं, सब जगह हो सकता हूं लेकिन मक्कारी के साथ नहीं हो सकता. मेरे जानने वालों और पढ़ने वालों ने भी मेरे साथ बहुत इंसाफ नहीं किया है. मैं इतनी भाषाएं जानता हूं…उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, फरसी, अरबी, हिब्रू और न जाने क्या क्या. कितने ही काम किए संपादक रहा, अनुवाद किए लेकिन बस लोग शेर सुनते हैं और वाह-वाह में डूब जाते हैं. जॉन केवल भाषा के हवाले से लिखे गए शेरों में नहीं है बल्कि खयाल के हवाले से मजबूती के साथ कहे गए शेरों में भी है. सबके लिए जॉन एलिया एक शायर है, बस और कुछ नहीं. इसलिए कहता हूं प्यारे, इतना आसान है पता मेरा. दूसरा दुख पाकिस्तान बना कर मुझे वहां धकेल दिए जाने का दुख है.
चढ़े दरिया से वापस आने वालो
कहो कैसा रहा उस पार रहना ?
अमरोहे में ऐसे परिवार से हूं जहां इल्म और इल्म की बात होती थी. उसके बाद मुल्क बंट गया. लकीर खिंच गई. मैं मानने को तैयार नहीं था. दस साल तक नहीं माना. कैसे छोड़ देता अमरोहा, बरेली, कानपुर या लखनऊ ? बताओ ? 1957 में पाकिस्तान चला गया. कराची में रहा. पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा बनाने में मदद की. इल्म साथ चला. जिंदगी में इतने हादसे हुए कि तजुर्बों की कमी कहां रही. शादी की जो चली नहीं. बच्चियों के लिए कभी अच्छा पिता नहीं बन पाया.
14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे जॉन एलिया अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं. ‘शायद’ ‘यानी’ ‘गुमान’ ‘लेकिन’ और ‘गोया’ प्रमुख संग्रह हैं. पाकिस्तान सरकार ने उन्हें सन 2000 में प्राइड ऑफ परफार्मेंस अवार्ड दिया. उन्हें अब तक सहज शब्दों में कठिन बात करने वाला, अजीब-ओ-गरीब जिंदगी जीने वाला शायर ही माना गया लेकिन जॉन इन सबसे बहोत आगे थे.
मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ जनाब
मेरा बेहद लिहाज़ कीजिएगा