वह चाहते, तो एक आरामदेह जिंदगी जी सकते थे। उनके पास कानून की डिग्री थी और फिर वह जमीन-जायदाद के कारोबार से भी जुडे़ हुए थे। आखिर नाइजीरिया के उस सूरते-हाल में भी लोग-बाग जी ही रहे थे। मगर जन्नाह बकर मुस्तफा को एक मंजर रह-रहकर परेशान कर देता। सड़कों पर बिलखते-सुबकते बच्चे। ये वे यतीम बच्चे थे, जिनके अपने किन्हीं कुदरती वजहों से मौत के शिकार हो गए थे, और इनका हाल पूछने वाला कोई न था। समाज उन्हें अजीब हिकारत भरी नजरों से देखता। बोर्नो सूबे की राजधानी मैदुगुरी में ऐसे बच्चों की तादाद काफी थी।
मुस्तफा सामने पड़ने वाले अनाथों की कुछ न कुछ मदद कर दिया करते, मगर यह कोई समाधान नहीं था। यतीम बच्चों को देखकर उन्हें अपना बचपन याद आ जाता। वह कितना अच्छा था! मुस्तफा एक मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखते हैं, मगर उनकी तालीम ऐसे स्कूल में हुई, जिसके प्रमुख एक कैथोलिक पादरी थे। वहां इस्लाम व ईसाइयत, दोनों धर्मों की पढ़ाई बगैर किसी भेदभाव के होती थी। उच्च मानवीय मूल्यों के साथ बड़े हुए मुस्तफा के जेहन में इस्लाम की एक खूबी बचपन में ही नक्श हो गई थी कि किसी यतीम की मदद करने से बड़ा सवाब कोई नहीं।
मुस्तफा ने मजहबी और आधुनिक, दोनों तरह की पढ़ाई की और आगे चलकर वह शरीयत कानून के भी माहिर वकील बने। इसीलिए जब उनकी माली हैसियत अपने तईं कुछ करने लायक हुई, तो उन्होंने साल 2007 में सबसे पहले मैदुगुरी के 36 यतीम बच्चों के लिए ‘फ्यूचर प्राउइस स्कूल’ की नींव रखी। इसमें उनकी पढ़ाई के साथ-साथ भोजन, स्कूल ड्रेस और प्राथमिक उपचार की भी व्यवस्था की गई। उस वक्त तक मुस्तफा को कोई इलहाम न रहा होगा कि उनका यह स्कूल एक मिसाल बनने वाला है। दरअसल, यही वह समय था, जब आतंकी संगठन बोको हराम ने नाइजीरिया में तेजी से सिर उठाया। बोर्नो सूबा उसकी बर्बरता का केंद्र बनता गया। आए दिन अपहरण और कत्लेआम की घटनाएं दुनिया भर में चर्चा बटोरती गईं और अनगिनत बच्चे लावारिस बनते गए। बच्चियों की हालत ज्यादा बुरी थी। बोको हराम की यौन ज्यादतियों से किसी तरह मिली मुक्ति के बाद सामाजिक हिकारत की एक नई सलीब उनके लिए टंग जाती थी।
बोको हराम की हिंसा दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। बोर्नो में अराजकता का आलम था और अनाथ बच्चों की बढ़ती संख्या मुस्तफा की नींद उड़ाने लगी थी। हर कुछ दिन पर किसी यतीम बच्चे को बुरी तरह पिटते या दुत्कारे जाते देख उनका मन खिन्न हो उठता। अंतत: उन्होंने एक बड़ा फैसला किया। मुस्तफा जानते थे कि जब तक नफरत का जड़ से इलाज नहीं किया जाएगा, समाज में शांति और स्थिरता नहीं आएगी। साल 2009 में उन्होंने तय किया कि वह यतीम बच्चों में कोई बाडे़बंदी नहीं करेंगे, भले ही वे बोको हराम के आतंकियों के ही बच्चे क्यों न हों। वह ऐसे बच्चों के वैधानिक हक की रक्षा के लिए अदालत में भी खड़े हुए। पर इस आतंकी संगठन के सताए लोगों को यह नागवार गुजरा। कइयों ने मुस्तफा को ‘बोको हराम का वकील’ तक कहना शुरू कर दिया। मगर मुस्तफा अपने ईमान पर थे।
सोचिए, कितनी बड़ी चुनौती रही होगी कि जिन दहशतगर्दों ने आधुनिक शिक्षा के खिलाफ हथियार उठा रखा हो, उनके ही बच्चों, परिवारों में इसकी रोशनी पहुंचाने की कसम मुस्तफा ने खाई। और उनकी इस मंशा, प्रतिबद्धता ने कैसा असर डाला, इसकी तस्दीक चंद वर्षों के भीतर ही हो गई। 2014 में बोको हराम ने चिबोक शहर के एक स्कूल से 270 लड़कियों को अगवा कर लिया। चारों तरफ कोहराम मच गया। दुनिया भर की सरकारों ने बोको हराम से इन बच्चियों को सकुशल छोड़ने की मिन्नतें कीं। मगर दहशत के कारोबारियों को तो सिर्फ अपनी सौदेबाजी के नफे-नुकसान का ख्याल होता है। दो साल बीत चले थे। दुनिया अपनी अन्य चिंताओं में डूब गई थी। तब मुस्तफा बोको हराम और नाइजीरिया सरकार के बीच पुल बने और 103 बच्चियों को छुड़ाने में उन्हें कामयाबी मिली।
लेकिन बोको हराम की गिरफ्त से छूटकर बाहर आईं कई बच्चियों के घरवालों ने अपनाने से इनकार कर दिया, तब मुस्तफा के स्कूल ने उनके लिए अपने दरवाजे खोले। जन्नाह बकर मुस्तफा की नेकनीयती को दुनिया कब तक नहीं देखती? साल 2017 में संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें ‘नानसेन शरणार्थी सम्मान’से नवाजा। इसमें मिली लगभग एक करोड़ रुपये की राशि से उन्होंने स्कूल के लिए नदी किनारे की 10 हेक्टेयर जमीन खरीदी, जिसमें मछली-पालन, धान और केले की खेती होती है। आज 1,000 से अधिक बच्चे मुस्तफा के फाउंडेशन के स्कूलों से पास होकर विभिन्न क्षेत्रों में करियर का प्रशिक्षण ले रहे हैं या कॉलेज में हैं। सबसे बड़ी बात, इन अनाथ विद्यार्थियों में लड़कियां आधी से ज्यादा हैं। नफरत के कोहरे को चीरकर निकल रही इस रोशनी में नाइजीरिया अपने लिए कुछ बेहतर रच सकता है।
(सभार हिंदुस्तान, प्रस्तुति: चंद्रकांत सिंह)