जम्मू-कश्मीर परिसीमन पर सवाल

पलश सुरजन

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जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 और अनुच्छेद-35 ए की वापसी के साथ ही राज्य को दो हिस्सों में बांटने का फैसला 5 अगस्त, 2019 को मोदी सरकार ने लिया था। दावा था कि इससे राज्य में विकास के नए द्वार खुलेंगे, कश्मीरी पंडितों की घर वापसी होगी, आतंकवाद पर रोक लगेगी। लेकिन लगभग ढाई साल बाद भी इस अनूठे प्रदेश में हालात सामान्य नहीं हुए हैं। लद्दाख तो अलग हो ही गया, वहां की अपनी चिंताएं हैं।

इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में भी जनजीवन सामान्य नहीं हो पाया है। न आतंकवाद को ख़त्म किया जा सका, न कश्मीरी पंडितों की घर वापसी हुई और अब तो इस राज्य में पिछले दरवाजे से आकर विभाजनकारी खेल खेलने की कोशिश हो रही है। भाजपा परिसीमन के बहाने जम्मू-कश्मीर में अपना राजनैतिक एजेंडा यानी हिंदू बहुल वोटों को अपने पक्ष में करने के पैंतरे चल रही है, ऐसा आरोप विभिन्न राजनैतिक दल लगा रहे हैं।

दरअसल इस सोमवार दिल्ली में परिसीमन आयोग की बैठक हुई। बैठक में जम्मू क्षेत्र में छह नई सीटें और कश्मीर घाटी के लिए एक नई सीट जोड़ने का प्रस्ताव रखा गया। प्रस्ताव के मुताबिक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कम से कम 16 सीटें आरक्षित रहेंगी। इस प्रस्ताव के अमल में आने के बाद 83 सीटों वाली जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जम्मू क्षेत्र की सीटें 37 से बढ़कर 43 और कश्मीर घाटी की सीटें 46 से बढ़कर 47 हो जाएंगी। अनुसूचित जाति और जनजाति मुख्य रूप से जम्मू में हैं और इसका मतलब यह हुआ कि जम्मू को लगभग 60 सीटें मिलेंगी। इसके पूर्व जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 87 सीटें थीं जिनमें लद्दाख़ की चार सीटें शामिल थीं लेकिन अगस्त 2019 के पुनर्गठन विधेयक के बाद लद्दाख़ को अलग कर दिया गया था।

गौरतलब है कि भारत में परिसीमन आयोग का गठन पहली बार 1952 में किया गया। यह आज़ादी के बाद का दौर था, कई भारतीय रियासतें खत्म हुई थीं और एक नए लोकतंत्र का भारत में उदय हुआ था। जिसमें सरकार के सामने यह चुनौती थी कि सभी जाति, धर्म, वर्ग और समुदायों की एक समान भागीदारी लोकतंत्र में रहे। अलग-अलग भौगोलिक इलाकों में रहने वाले नागरिकों को निर्वाचन की प्रक्रिया में बराबरी का हक़ मिले और उन्हें उचित प्रतिनिधित्व मिले, इस लिहाज से भी परिसीमन का ख़ास महत्व है।

इसलिए 1952 के बाद 1963, 1972 और फिर 2002 में परिसीमन आयोग बने। संविधान के अनुच्छेद-81 के अनुसार, लोकसभा के संयोजन में आबादी में होने वाले बदलाव नजर आने चाहिए। हालांकि 1976 में जो परिसीमन किया गया था, उसका आधार 1971 की जनगणना थी, और उस समय सीटों की संख्या कमोबेश पहले जैसी ही थी। राज्य की सीटों की संख्या और आबादी का अनुपात सभी राज्यों में लगभग एक सा होना चाहिए।

ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित हो कि हर राज्य को एक बराबर प्रतिनिधित्व मिले। और 60 लाख से कम आबादी वाले छोटे राज्यों को इस नियम से छूट दी जाती है। हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश को कम से कम एक सीट आबंटित है, भले ही उसकी जनसंख्या कितनी भी हो। उदाहरण के लिए लक्षद्वीप की आबादी एक लाख से कम है लेकिन संसद में वहां से एक लोकसभा सांसद है। दक्षिण के राज्यों में आबादी नियंत्रित है, लेकिन ये सुनिश्चित करने के लिए कि उन्हें कम सीटें न मिलें, 2001 तक वहां परिसीमन का काम इस आधार पर रोक दिया गया कि देश में 2026 तक आबादी की एक समान वृद्धि दर हासिल कर ली जाएगी।

लेकिन पिछले साल केंद्र सरकार ने ख़ास जम्मू-कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग का गठन किया और उसके बाद आयोग ने जम्मू और कश्मीर के तमाम राजनीतिक दलों के साथ बैठकें कीं। हालांकि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने इस पूरी प्रक्रिया पर ही संदेह जताया था और इन बैठकों में भाजपा सरकार के अनुच्छेद-370 को रद्द करने का मुद्दा उठाया। नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस पार्टी ने सवाल उठाया था कि जब देश में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन को साल 2026 तक के लिए रोक दिया गया तो जम्मू और कश्मीर में अभी ऐसा क्यों हो रहा है।

वहीं पीडीपी ने तो परिसीमन आयोग के साथ बैठक में हिस्सा नहीं लिया था। महबूबा मुफ़्ती का तर्क था कि केंद्र सरकार ने आम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। उन्होंने परिसीमन की प्रक्रिया के नतीजों को ‘व्यापक तौर’ पर पहले से तय बताया था। परिसीमन से ऐतराज़ जताने वाले राजनीतिक दलों ने आशंका जताते हुए कहा है कि यह परिसीमन आयोग जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुमत के ख़िलाफ़ काम करेगा और उन्हें राजनीतिक तौर पर अल्पसंख्यक में बदल देगा।

पिछले साल पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता में दिल्ली स्थित ग्रुप ऑफ़ कन्सर्न्ड सिटिज़न्स ने परिसीमन आयोग को एक ज्ञापन सौंपा था। इसमें कहा गया कि 2011 में हुई जनगणना का संदर्भ लेते हुए ‘परिसीमन’ किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार परिसीमन के उद्देश्यों की जगह अपने उद्देश्यों की पूर्ति में लगी है। कश्मीर के मुकाबले जम्मू की सीटें बढ़ाकर हिंदू बहुल आबादी का फ़ायदा भाजपा अपने लिए उठाना चाहती है।