जय भीम’: उत्पीड़ितों के ख़ून में डूबी व्‍यवस्‍था की न्‍यायप्रियता स्‍थापित करने वाली फ़‍िल्‍म

आनंद सिंह

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तमिल फ़‍िल्‍म ‘जय भीम’ को देखकर भॉंति-भॉंति के उदारवादी, अस्‍मितावादी व सामाजिक जनवादी समीक्षक और बुद्धिजीवी लोटपोट हुए जा रहे हैं। आज के फ़‍ासिस्‍ट दौर में जब भारत के पूँजीवादी लोकतंत्र में विधायिका और कार्यपालिका ही नहीं बल्कि न्‍यायपालिका सहित व्‍यवस्‍था की सभी संस्‍थाएँ पूँजी और सत्‍ता के इशारे पर जनता की छाती पर मौत का ताण्‍डव कर रही हैं और जब इस व्‍यवस्‍था का क्रूर जनविरोधी चेहरा दिन के उजाले के समान सबके सामने आ चुका है, ‘जय भीम’ जैसी फ़‍िल्‍में हमारे समीक्षकों और बुद्धिजीवियों को दलितों-आदिवासियों-अल्‍पसंख्‍यकों-शोषितों-उत्पीड़ितों के ख़ून से लथपथ व्‍यवस्‍था की न्‍यायप्रियता पर भरोसा बनाये रखने का एक कारण देती हैं। ऐसी फ़‍िल्‍में देखकर उनका यह यक़ीन पुख्‍़ता हो जाता है कि दरअसल दोष इस व्‍यवस्‍था का नहीं है बल्कि कुछ लोगों का है जो अपनी ताक़त का दुरुपयोग करके कमज़ोर तबकों पर ज़ुल्‍म ढाते हैं। इसलिए फ़‍िल्‍म देखकर वे आश्‍वस्‍त हो जाते हैं कि ज़रूरत इस व्‍यवस्‍था को आमूलचूल रूप से बदलने की नहीं है बल्कि चन्‍द्रू जैसे वकीलों और कुछ समाज सुधारकों की है जो आदिवासियों, दलितों , शोषितों और उत्‍पीड़‍ितों के पक्ष में सही दलील दे सकें और कुछ सुधारवादी आन्‍दोलनों के ज़रिये जनमत तैयार कर सकें। अगर ऐसा हो तो इस व्‍यवस्‍था के शीर्ष स्‍तर पर बैठे गणमान्‍य न्‍यायप्रिय न्‍यायाधीश और पुलिस के आला अधिकारी यह सुनिश्चित करेंगे कि उत्‍पीड़़‍ितों के पक्ष में सामाजिक न्‍याय हो और दोषियों को कड़ी सज़ा मिलेगी।

उत्पीड़ितों पर हो रहे ज़ुल्‍म में व्‍यवस्‍था की भूमिका का प्रश्‍न उठाने पर इस फ़‍िल्‍म के प्रशंसक यह दलील दे रहे हैं कि दरअसल यह फ़‍िल्‍म एक सच्‍ची घटना पर बनी ‘यथार्थवादी’ फ़‍िल्‍म है जिसमें निर्देशक ने घटना को बस फ़‍िल्‍म के पर्दे पर ज्‍यों का त्‍यों प्रस्‍तुत किया है। लेकिन ऐसी दलील देने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि कोई भी फ़‍िल्‍म सम्‍पूर्ण सामाजिक यथार्थ का चित्रण नहीं होती है बल्कि यथार्थ के किसी पहलू की कलात्‍मक पुनर्सृजन होती है। सामाजिक यथार्थ के किस पहलू को उभारना है और उसे किस प्रकार प्रस्‍तुत करना है, यह हर फ़‍िल्‍मकार अपने विश्‍वदृष्टिकोण के अनुसार तय करता है। मिसाल के लिए आज के सामाजिक यथार्थ का मुख्‍य पहलू यह है कि मौजूदा  व्‍यवस्‍था में आदिवासियों, दलितों , शोषितों और उत्‍पीड़‍ितों को न्‍याय मिलने की सम्‍भावना बेहद कम होती है क्‍योंकि व्‍यवस्‍था की सभी संस्‍थाओं पर उन्‍हीं वर्गो को क़ब्‍ज़ा है जो इन शोषित-उत्‍पीड़ि‍त तबकों पर होने वालो ज़ुल्‍म के लिए ज़‍िम्‍मेदार हैं। लेकिन इस व्‍यापक यथार्थ को नज़रअन्‍दाज़ करके निर्देशक टी. जे. ज्ञानवेल सामाजिक यथार्थ के एक ऐसे पहलू का फ़‍िल्‍मांकन करने को चुना जिसमें उत्‍पीड़‍ित पक्ष को अन्‍तत: न्‍याय मिल जाता है और पीड़‍ित परिवार का व्‍यवस्‍था पर भरोसा क़ायम हो जाता है। यह सभी जानते हैं कि मौजूदा व्‍यवस्‍था में अपवादस्‍वरूप ही ऐसा होता है, लेकिन इस अपवाद को फ़‍िल्‍मांकित करके ज्ञानवेल कुछ कहना चाहते हैं। आइए देखते हैं कि निर्देशक महोदय कहना क्‍या चाहते हैं?

सबसे पहले तो फ़‍िल्‍म में तमिलनाडु की इरुला जनजाति, जिसे अंग्रेज़ों ने क्रिमिनल ट्राइब की श्रेणी में रखा था, के जीवन और उनके ऊपर होने वाले ज़ुल्‍मों को ग्राफ़‍िक डिटेल में प्रस्‍तुत करती है। हाल के वर्षों में तमिल सिनेमा में पा रंजीत, मारी सेल्‍वाराज और वेत्रीमारण जैसे निर्माता-निर्देशकों ने दलित उत्‍पीड़न पर केन्द्रित कई फ़‍िल्‍में बनायी हैं, मिसाल के लिए कर्णन, असुरन, पेरियेरम पेरुमल आदि।  इन फ़ि‍ल्‍मों में दलितों के जीवन और उनके उत्‍पीड़न के कई दृश्‍यों को कलात्‍मक ढंग से प्रस्‍तुत किया गया है जिनके ज़रिये ये निर्देशक दलितों और आदिवासियों पर होने वाले ज़ुल्‍मों के तथ्‍य को उभारना चाहते हैं। दक्षिण भारत और ख़ास तौर पर तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद-विरोधी द्रविड़ आन्‍दोलन के इतिहास की वजह से इन फ़‍िल्‍मों को कमर्शियल सफलता भी मिली है जिसकी वजह से ऐसी फ़‍िल्‍मों का एक बाज़ार भी पैदा हुआ है। ज्ञानवेल की फ़‍िल्‍म ‘जय भीम’ भी इन फ़‍ि‍ल्‍मों की ही निरन्‍तरता में है, हालाँकि इस फ़‍िल्‍म में निर्देशक ने पुलिस कस्‍टडी में आदिवासियों की प्रताड़ना के दृश्‍यों को और अपनी अस्मितावादी-व्‍यवहारवादी विचारधारा को अन्‍य फ़‍िल्‍मों के मुक़ाबले ज्‍़यादा ‘लाउड’ रूप में प्रस्‍तुत किया है। इन फ़‍िल्‍मों में हमें दलित-आदिवासी उत्‍पीड़न वीभत्‍स घटनाओं के कारणों और इनकी ऐतिहासिकता की ओर कोई इशारा तक नहीं मिलता है। मिसाल के लिए ‘जय भीम’ में हमें अन्‍त तक यह नहीं पता चलता कि आखिर इरुला जनजाति के लोगों के साथ ऐतिहासिक रूप से इतना भेदभाव और ज़ुल्‍म क्‍यों होता आया है और आज के पूँजीवादी भारत में भी यह क्‍यों जारी है। ज़ाहिर है इन निर्देशकों की अस्मितावादी-जीवनदृष्टि ऐसे मूलभूत प्रश्‍नों के जवाब ढूँढने में बाधा पैदा करती है। चूँकि इन निर्देशकों के पास ऐसी घटनाओं के मूल कारणों और मौजूदा व्‍यवस्‍था के साथ उनके रिश्‍तों की समझ नहीं है इसलिए ऐसी फ़‍िल्‍में हमारे सामाजिक यथार्थ के अहम मुद्दे उठाने के बावजूद अन्‍त में मौजूदा व्‍यवस्‍था के दायरे में निहायत ही बचकाना सुधारवादी समाधान प्रस्‍तुत करती हैं। मिसाल के लिए ‘जय भीम’ में अन्‍त में इरुला जनजाति की बच्‍ची को अख़बार पढ़ते हुए दिखाया गया है जिसके ज़रिये निर्देशक महोदय हमें बताना चाह रहे हैं कि दलितों-आदिवासियों की शिक्षा ही समाधान है।

इस फ़‍िल्‍म की ग़ैर-क्रान्तिकारी और सुधारवादी अन्‍तर्वस्‍तु के बारे में भ्रम की कोई गुंजाइश न छूट जाये इसके लिए निर्देशक महोदय ने बौद्धिक ईमानदारी का परिचय देते हुए फ़‍िल्‍म का नाम ‘जय भीम’ रखा है। यह बात दीगर है फ़‍िल्‍म के कई दृश्‍यों में अम्‍बेडकर के साथ पेरियार और मार्क्‍स-लेनिन की तस्‍वीरों-बुतों का इस्‍तेमाल करके और कम्‍युनिस्‍टों के कुछ आन्‍दोलनों के दृश्‍य दिखाकर अम्‍बेडकर, पेरियार और मार्क्‍स के विचारों का स्‍पष्‍ट रूप से घालमेल करके एक-दूसरे से बिल्‍कुल अलग विचार-सरणियों के बीच के अन्‍तर को मिटाकर इन सभी को एक ही प्रकार के समाज सुधारक के रूप में पेश करने की कोशिश भी की है जिसकी वजह से भी अस्मितावादी और सामाजिक जनवादी इस फ़‍िल्‍म पर लहालोट हो रहे हैं। फ़‍िल्‍म में वकील चन्‍द्रू को मार्क्‍सवाद और अम्‍बेडकरवाद से प्रभावित दिखाया गया है। पूर्व जस्टिस चन्‍द्रू ने मीडिया में जो इन्‍टरव्‍यू दिये हैं उनसे भी यह स्‍पष्‍ट होता है कि वे मार्क्‍सवाद और अम्‍बेडकरवाद दोनों से प्रभावित हैं। अपनी युवावस्‍था में वे सीपीएम से जुड़े भी थे। उनकी इस पृष्‍ठभूमि को जानने के बाद इसमें ताज्‍जुब नहीं रह जाता है कि उनका मार्क्‍सवाद महज़ उत्पीड़ितों के पक्ष में दलील देने और उनके हित में सुधारवादी आन्‍दोलन करने तक सीमित है। मार्क्‍स और लेनिन से उन्‍हें इस व्‍यवस्‍था की मूलत: जनविरोधी अन्‍तर्वस्‍तु की शिनाख्‍़त करने और उसके आमूलचूल बदलाव की प्रेरणा नहीं मिलती बल्कि इसी व्‍यवस्‍था के भीतर ही लोगों को न्‍याय दिलाने की प्रेरणा ही मिलती है।

फ़‍िल्‍म में निचले स्‍तर के पुलिसवालों को बेहद क्रूर और बर्बर दिखाया गया है लेकिन आला अधिकारियों और न्‍यायाधीशों को निहायत ही संवेदनशील और न्‍यायप्रिय दिखाया गया है। इसमें न्‍यायालय को निष्‍पक्ष दिखाते हुए बन्‍दी प्रत्‍यक्षीकरण (habeas corpus) के संवैधानिक उपचार का महिमा मण्‍डन किया गया है। सच तो यह है कि अव्‍वलन तो ऐसे संवैधानिक उपचार इस देश की अधिकांश आबादी की पहुँच से बाहर है, और अगर किसी तरह इसकी पहुँच होती भी है तो यह अपने आप में न्‍याय की कोई गारण्‍टी नहीं है, जैसाकि जेएनयू के छात्र नजीब के मामले में साबित हुआ।

फ़‍िल्‍म में वकील चन्‍द्रू पीड़‍िता सेंगेनी से ज़ोर देकर कहता है कि केवल सच बोलो क्‍योंकि सच ही हमें बचाएगा, मानो भारतीय न्‍यायालयों में सच का ही बोलबाला है! अगर किसी नागरिक को बदनसीबी से भारत के न्‍यायालय में एक दिन भी बिताने का भी मौक़ा मिला है तो वह जानता है कि अगर वहाँ किसी चीज़ का बोलबाला है तो वह है मुद्रा!

फ़‍िल्‍म के अन्‍त में जब न्‍यायाधीश फ़ैसला सुनाते हैं तो उस समय न्‍यायालय के दृश्‍य को टॉप एंगल से प्रस्‍तुत किया गया है जिससे दर्शकों के ऊपर व्‍यवस्‍था की भव्‍य और अजेय छवि क़ायम होती है। न्‍यायाधीश महोदय ख़ून से लथपथ पुलिस के दामन को धोते हुए और व्‍यवस्‍था को बरी करते हुए गर्व से कहते हैं, ‘‘कुछ ऑफ़‍िसर्स की वजह से पुलिस डिपार्टमेण्‍ट के माथे पर जो कलंक लगा था उसे मिटाकर लोगों का भरोसा फिर से जीतने के लिए आईजी पेरुमल स्‍वामी ने जो इन्‍वेस्टिगेशन किया वो क़ाबिले तारीफ़ है।’’ ऐसे दृश्‍यों और डॉयलॉग के ज़रिये निर्देशक महोदय साफ़ तौर पर यह कहना चाह रहे हैं कि दरअसल व्‍यवस्‍था सत्‍यनिष्‍ठ और न्‍यायप्रिय है, बस कुछ बुरे लोग, जो ख़ास तौर पर निचले पदों पर आसीन होते हैं, क़ानून को अपने हाथों में ले लेते हैं जिसकी वजह से दलितों और आदिवासियों के ऊपर ज्‍़यादती हो जाती है। फ़ैसले के बाद सभी आदिवासी दीन-हीन मुद्रा में हाथ जोड़कर खड़े हुए दिखायी देते हैं जो समूची व्‍यवस्‍था के प्रति उनके कृतज्ञता के भाव को दिखाता है।

कोई भी शोषणकारी और उत्पीड़नकारी व्‍यवस्‍था केवल ज़ोर-ज़बर्दस्‍ती के सहारे समाज में नहीं टिकी रहती, आम लोगों के बीच व्‍यवस्‍था के प्रति भ्रम भी उसकी उत्‍तरजीविता के लिए बहुत ज़रूरी होती है। निर्देशक टी.जे. ज्ञानवेल और उनकी टीम ने ‘जय भीम’ के रूप में महज़ एक फ़‍िल्‍म का निर्माण नहीं किया है, उन्‍होंने व्‍यवस्‍था के प्रति भ्रम का भी थोक भाव से उत्‍पादन किया है। कुछ लोगों ने इस फ़‍िल्‍म की सीमाओं को स्‍वीकार करते हुए भी इसे बालीवुड या टॉलीवुड में इस विषय पर बनने वाली अन्‍य फ़‍िल्‍मों की तुलना में बेहतर बताया है। लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि आभासी तौर पर रैडिकल दिखने वाली जो फ़‍िल्‍में समाज के सापेक्षत: उन्‍नत तत्‍वों के बीच व्‍यवस्‍था के प्रति भ्रम पैदा करती हैं वो व्‍यवस्‍था के वर्चस्‍व को समाज में ज्‍़यादा प्रभावी ढंग से स्‍थापित करती हैं। ‘जय भीम’ ऐसी ही एक फ़‍िल्‍म है।