मोहम्मद वज़हुल क़मर
जब आप इस्लाम और कल्चर दोनों को अलग अलग करेंगे तो ऐसे ही दिन देखने पड़ेंगे। भारतीय मुसलमान पांच वक्त के नमाज़ और एक महीने के रोज़े में पूरे मुसलमानी गेट अप में होते हैं। लेकिन नौकरी कारोबार शादी ब्याह बगैरह 95 फीसदी कामों में हम फौरन एक आम इंसान बन जाते हैं। तब हम ध्यान भी नहीं देते कि इस्लाम इसके बारे में क्या कहता है। हमें नमाज़ पढ़ने से पहले वजु कैसे बनाना है वह बखुबी मालूम होता है लेकिन बाकी कामों में इस्लामी तरीक़ा क्या है वह नहीं मालूम। नतीज़ा शादी का कल्चर गैर इस्लामी इंगेजमेंट हल्दी रस्में अब धुमधाम से होती है, अकीका की जगह छठी, मरने के बाद दसवीं ग्यारहवीं चालीसा, लिबास ऐसा कि जिस्म दिख रहा है या नहीं दिख रहा कोई होश नहीं, नक़ाब भी अपनाना है तो टाईट फीटिंग वाला ताकि जिस्म के हिस्सों का आकार साफ साफ पता चल जाए कुल मिलाकर नब्बे फीसदी कामों में कल्चर गैर इस्लामी लेकिन दस मिनट के नमाज़ के वक़्त और एक महीने के रोज़ा के समय हम इस्लामी हो जाएंगे। फिर ऐसे ही फैसले आते हैं कि हिजाब इस्लाम का हिस्सा नहीं।
मुझे तो वह दिन भी दूर नहीं दिख रहा जब निकाह पर भी बैन सिर्फ़ यह कह कर लगा दिया जाएगा कि अगर निकाह इस्लाम का हिस्सा है तो आप हल्दी रस्म के लिए होटल बैंकेट बगैरह क्यूं बुक करते हैं? अगर आपके शादी का तरीक़ा सिर्फ़ निकाह है तो फिर आप लाखों रूपए खर्च करके इंगेजमेंट क्यूं करते हैं और फिर बारात का आपकी शादी में क्या मतलब। और धीरे धीरे बात कुर्बानी तक भी बहुत जल्द पहुंचेंगी कि जब आप के लोग यह कहते हैं कि कुर्बानी फर्ज़ नहीं है तो क्यूं करते हो। समझने वाली बात यह है कि यहां जब खुद मुसलमानों ने अपने धर्म और कल्चर को अलग कर रखा है तो मौक़ा परस्त लोग तो फायदा उठाएंगे ही।
हिजाब मामला सामने आने के बाद कितनी मां बहनों ने हिजाब को अपना लिया? हिजाब का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन हिजाब अपना लेना था। लेकिन सड़कों पर नज़र सानी कर लीजिए। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जामिया हमदर्द बगैरह तो मुस्लिम शिक्षण संस्थान है यहां तो कम से कम सौ प्रतिशत मुस्लिम छात्राएं हिजाब में दिखनी चाहिए थी लेकिन पचास फीसदी भी नहीं आतीं और हम सवाल दूसरे कॉलेजों पर रहे हैं। काश पहले दिन से हमारा कल्चर इस्लाम पर ही आधारित होता तो फिर यह दिन नहीं देखना पड़ता। ख़ैर अभी भी वक़्त है। जब संभलें तभी सवेरा।
आज कहां दफन हैं करोड़ो फॉर्म
जब तीन तलाक़ पर कोर्ट का फैसला आया था तब मुस्लिम पर्सनल लॉ के आह्वान पर हमारी मां बहनें भरी दोपहरी में चौक चोराहों पर खड़ी होकर दिन दिन भर एक फॉर्म भरवाती थी। क्या किसी मुस्लिम सहाफी या ठेकेदार ने यह पता करने की कोशिश किया कि वह करोड़ों फॉर्म आज कहां दफन है ? आज कर्नाटक हाई कोर्ट का हिजाब पर जो फैसला आया है उसके बाद फिर मुस्लिम तंजीमें और नेतागिरी चमकाने वाले युवा जगह जगह फॉर्म भरवाएंगे। राजनीतिक दलों में अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए और क़ौम के नाम पर चंदा करने के लिए जगह जगह जुलुस निकालेंगे और सी ए प्रोटेस्ट की तरह फिर से मुसलमानों को प्रदर्शन में व्यस्त कर दिए जाएंगे और प्रदर्शन में एक देग बिरयानी भेजवा कर लोग सबाब ए दारेन हासिल कर रहे होंगे।
क्या कोई मुस्लिम तंजीम या कोई मुस्लिम विधायक सांसद या वकील या ठेकेदार कोर्ट में स्कूलों से मुर्तियां हटवाने या सरस्वती पूजा क्रिसमस बगैरह धार्मिक पूजा बंद करवाने की मांग कर सकता है? जिस दिन राजनीति का जवाब राजनीति से देना मुस्लिम तंज़ीमें, विधायक सांसद चेयरमैन बगैरह सीख लेंगे हिजाब जैसे मुद्दे कोर्ट पहुंचना तो दूर इस पर चर्चा भी नहीं होगा।
लेकिन जब मुस्लिम तंजीमें ठेकदार नेता विधायक और सांसद असली सवाल न करके फोटोबाजी वाली नेतागिरी और चंदे चिट्ठा के लिए रैली और धरना प्रदर्शन करेंगे तो कोर्ट के ऐसे ही फैसले आते हैं। अभी युपी में 36 ग्ययुर मुस्लिम विधायक जीते हैं क्या वह स्कूल की मुर्तियों और सरस्वती पूजा व क्रिसमस पर सवाल कर सकते हैं ? ओवैसी साहब ट्विट और टीवी डिबेट के अलावा एक पीआईएल दाखिल कर सकते हैं कि स्कूल से धार्मिक पूजाएं और धार्मिक मुर्तियां लगना बंद हों क्योंकि यह स्कूल है कोई धार्मिक केंद्र नहीं। क्यूं नहीं करेंगे क्योंकि तंज़ीमों को नेताओं को विधायक सांसद चेयरमैन सभी को ऐसे ही मौकों का तो इंतज़ार रहता है।
तंज़ीमों को ऐसे मुद्दों से चंदा मिल जाता है, युवाओं की नेतागिरी चमक जाती है और विधायक सांसद भ्रष्ट होकर भी सरकार की कार्रवाई से बच जाते हैं। इसलिए जब मुसलमानों को अपनी लड़ाई खुद झेलनी है तो फिर तंज़ीमों और नेताओं पर जुतों का हार डालना शुरू करें। और हर मुसलमान खुद सरकार से सीधा संवाद करें। और नहीं कर सकते तो बिरयानी खाकर मस्त रहें। लेकिन यह धरना प्रदर्शन वाली राजनीति से अब ऊपर उठें। साथ ही आपको इस गलतफहमी से भी बाहर निकलना है कि धरना प्रदर्शन से सरकार का स भी टेढ़ा होता है। मुसलमानों का कुछ भला तो नहीं होता उल्टा बहुसंख्यकों का धुर्वीकरण ज़रूर होता है।
(लेखक एक्टिविस्ट एंव टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)