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विचार चिंतन: क्या ‘जय श्रीराम’ के नारों में ‘राम’ खो गए हैं? और भगवा आतंक का नया रंग है?

विनोद वर्मा

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वैदिक काल से लेकर पौराणिक और उपनिषद काल में भगवान की अवधारणाएं अलग अलग रही हैं. हर समय काल में देवी देवताओं की छवि को नए सिरे से परिभाषित किया गया है. अब हम एक नए काल में हैं. अब फिर से देवी देवताओं की नई छवियां गढ़ी जा रही हैं.

इस नए काल में भगवान राम नए रूप में दिखाई पड़ रहे हैं. सीता जी के साथ स्मित मुस्कान वाले भगवान राम अब बिसरा दिए गए हैं. अब वे हर समय धनुष लिए युद्ध मुद्रा में दिखने वाले राम हैं. युद्ध क्रोध का प्रतीक होता है. सो राम अब हर समय क्रोधित हैं. हालांकि यह तर्क दिए जा सकते हैं कि राम तो रावण से युद्ध करते हुए भी क्रोधित नहीं थे. पर भगवान राम के पास क्रोधित होने का कारण था. रामायण की कथा बताती है कि सीता का अपहरण करना और उन्हें लौटाने से इनकार करना पर्याप्त क्रोध का कारण था. यह मान लेना चाहिए कि एक क्षणिक क्रोध तो उनके मन में रहा ही होगा. उस क्रोधित राम को जनमानस में स्थापित करने का प्रयास चल रहा है.

राम और सीता की मूर्ति के साथ दिखने वाले हनुमान का भी नया रूप सामने आ गया है. अब वे राम और सीता के चरणों पर बैठे विनम्र भक्त नहीं हैं. वे भी क्रुद्ध मुद्रा में हैं. जैसा वर्णन रामचरित मानस में हनुमान का किया गया है उसके अनुसार वे इतने शक्तिशाली और बलशाली थे कि वे किसी पर क्रोध कर ही नहीं सकते थे. उनकी इस विनम्रता को प्रदर्शित करने के लिए कई उद्धरण दिए जा सकते हैं. सुंदर कांड का एक प्रसंग है. हनुमान लंका जा रहे हैं. सुरसा नाम की राक्षसी विकराल रूप लेकर रास्ता रोक रही है. हनुमान चाहते तो उसका वध कर देते. शुरुआत में हनुमान ने ऐसा किया भी. जैसे जैसे सुरसा ने अपना आकार बढ़ाया, वे भी अपना आकार बढ़ाते गए. तुलसी दास कहते हैं, ‘जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा’. यहां तक कि बात आज हनुमान भक्तों या बजरंग दल के लोगों को याद है. पर उसके बाद जो हनुमान ने किया वह किसी को याद नहीं. ‘सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा, अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा’ यानी हनुमान ने बहुत छोटा रूप धर लिया. एकाएक वे विनम्र हो गए. लेकिन नए हनुमान रुप में वे विनम्र नहीं हैं. वे अपनी पूरी शक्ति के साथ साक्षात हैं और सतत क्रोधित भी.

ऐसा नहीं है कि क्रोधित भगवान रुपों का चित्रण नहीं है. काली और दुर्गा देवियों को जिस रूप में पूजा जाता है वह उनका शक्ति रूप ही है. क्रोधित मुद्रा. शिव का तांडव रूप भी है. पर भारतीय जनमानस में देवी देवताओं की छवि प्रेम प्रदर्शित करने वाली छवियां हैं. यह हमारे अभिवादनों में भी दिखता है. ‘जय सिया राम’ से लेकर ‘राधे राधे’ तक.

इतिहास गवाह है कि हर धर्म की अपनी राजनीति होती है. या राजनीति अपने हिसाब से धर्म का उपयोग (या दुरुपयोग) करती है. भारत में भी हिंदू धर्म के प्रतीकों का राजनीति में दुरुपयोग हुआ है. राम मंदिर आंदोलन के समय से ‘सिया राम’ एकाएक ‘जय श्रीराम’ में तब्दील हो गए. रथयात्रा ने बहुत सांप्रदायिकता फैलाई और साथ में फैला ‘जय श्रीराम’ का नारा. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की सोच से निकला नारा था.

आरएसएस ने रामायण की कथा पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रखा है. सब मानते हैं कि रामायण प्रेम और सद्भाव की जीत की कहानी है पर आरएसएस मानता है कि दशहरा शक्ति की जीत है. उनके लिए दशहरा सोनपत्ती बांटने का पर्व नहीं है, शस्त्र पूजा का है. उनके लिए राम ‘जय सिया राम’ नहीं हैं ‘जय श्रीराम’ हैं.

गांधी के लिए राम आख़िर में ‘हे राम’ थे.

सावरकर की प्रेरणा से आरएसएस और उसके राजनीतिक प्रकोष्ठ भारतीय जनता पार्टी ने धीरे धीरे ‘जय श्रीराम’ को एक राजनीतिक नारे में बदल दिया. बाबरी मस्जिद गिराने के समय जो नारा लगा वह भी ‘जय श्रीराम’ था और कर्नाटक से लेकर मध्यप्रदेश तक देश के हर कोने में हिजाब के ख़िलाफ़ लग रहा नारा भी ‘जय श्रीराम’ है. उत्तर प्रदेश में एक राजनेता के विरोध का नारा भी ‘जय श्रीराम’ है और किसानों के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में लगने वाला नारा भी ‘जय श्रीराम’ है. यहां तक कि वैलेंटाइन डे पर प्रेमी जोड़ों को पीटने का नारा भी ‘जय श्रीराम’ ही है.

‘जय श्रीराम’ आरएसएस और भाजपा के लिए नया ‘आल्हा-ऊदल’ है जो उनके लोगों को युद्ध में प्रेरणा प्रदान करता है. वे आक्रामक होने के लिए ‘जय श्रीराम’ का प्रयोग करते हैं. ज़ाहिर है कि राम उनके मन में त्याग, प्रेम और करुणा के प्रतीक नहीं हैं. दरअसल राम उनके मन में देव रूप में हैं हीं नहीं. वे बस एक योद्धा हैं कि जो अपने दुश्मनों को ख़त्म करने के लिए निकल पड़े हैं. ये लोग आतंक का प्रतीक हो गए हैं.

वह दृश्य याद कीजिए जब एक अकेली लड़की हिजाब पहने कॉलेज पहुंचती है और उसके पीछे भगवा गमछा और साफ़ा बांधे उजड्ड लड़कों का एक झुंड नारा लगा रहा है, ‘जय श्रीराम’. लड़की की निर्भिकता की चर्चा की ज़रूरत यहां नहीं है. ज़रुरत उस आतंक पैदा करने की कोशिशों की है और उसके लिए लगने वाले ‘जय श्रीराम’ के नारों पर चर्चा करने की है. सोचिए कि पुराना समय होता तो इस दृश्य को देखकर एक सामान्य भारतीय नागरिक क्या कहता? ‘राम राम राम’ ही तो? पर ‘जय श्रीराम’ के शोर में राम खो गए हैं.

केसरिया हिंदू धर्म का एक प्रतीक रहा है. हनुमान का रंग लाल रहा है. हम यही तो पढ़ते आए हैं, ‘लाल देह लाली लसै..’. लेकिन पता नहीं कब और कैसे हनुमान लाल से केसरिया हो गए. अब देश भर में हनुमान की मूर्तियों पर केसरिया रंग ही पुता होता है.

यही केसरिया रंग अब भगवा रंग में बदल गया है. और हनुमान विनम्र भक्त से एक आतंक पैदा करने के प्रतीक के रूप में बदल गए हैं. धार्मिक प्रतीकों से इतर हमारे देश में आतंक का रंग लाल रहा है पर धीरे धीरे लाल रंग भी विस्थापित हो रहा है.

अब तो आरएसएस और भाजपा के लोगों का विरोध प्रदर्शन देखें तो मन में सवाल उठता है कि क्या ‘जय श्रीराम’ इस देश में नया ‘मुर्दाबाद’ है और भगवा आतंक का नया रंग?

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)