मुल्क के लिए हम पैशनेट थे और रहेंगे, किसी की औ’कात नहीं कि हम पर सवाल उठाए’ -इरफ़ान पठान

एक इंटरव्यू में इरफान पठान ने कहा कि हम अपने देश के लिए अपनी मूल के लिए पैशनेट यानी जज्बाती थे और हमेशा रहेंगे किसी की औ,कात नहीं जो सवाल करें। ये इंटरव्यू हाल ही में इंडिया टुडे हिंदी मैग्जीन में प्रकाशित हुआ था. इसमें इरफान पठान से उनकी मौजूदा गतिविधियों, रासिखसलाम, जम्मू-कश्मीर के अनुभव और धा,र्मिक पहचान के सिलसिले में सवाल किए गए. पूर्व भारतीय क्रिकेटर ने इंटरव्यूअर केतन के इन सवालों के विस्तार में जवाब दिए हैं. आज इरफान पठान के इंटरव्यू की बात करेंगे।आइए जानते हैं पूरी तफसील।

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रासिख सलाम के साथ आपका जुड़ाव कैसे बना? आपने उन दिनों में रासिख के साथ काम किया जब काग़ज़ी तामझाम के चलते उनके बुरे दिन चल रहे थे. तब आप किस तरह से उनके पथ प्रदर्शक बने रहे?

इरफ़ान:रासिख के साथ उन दिनों में जो भी हुआ वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था. लेकिन मेरा फ़ोकस इस पर था कि उसे आगे कैसे ठीक किया जाए. इसलिये मैंने सबसे पहले उनके परिवार से बात की. उनके माता-पिता को सारी चीज़ें बतायीं जिससे उनके सामने तस्वीर साफ़ हो और वो अचानक से घबराएं नहीं. मैं रासिख से उन 2 सालों में लगातार बात करता रहा. और मुंबई इंडियन्स को भी बहुत सारा क्रेडिट मिलना चाहिये. उन्होंने इस लड़के का साथ नहीं छोड़ा. टीम ने 2 साल उसका बहुत ध्यान रखा. मेरी राहुल संघवी (मुंबई इंडियन्स के टीम मैनेजर) से बात हुई. मैंने उनसे कहा कि ‘ये लड़का पहली बार इस लेवल पर क्रिकेट खेला है, प्लीज़ ध्यान रखियेगा कि ये कहीं खो न जाए. मैं अपने लेवल पर उसका ध्यान रखूंगा ही, आप भी रखियेगा.

उन्होंने पूरा साथ दिया और मुंबई में जो भी सुविधाएं संभव हो सकती थीं, रासिख को मिलीं. रासिख कश्मीर से ज़्यादा मुंबई में रहता था, ट्रेनिंग करता था. और जब-जब मैं मुंबई जाता था, उससे मिलता था. मैं उसका मेंटॉर था तो मेरी ये ज़िम्मेदारी थी कि उसे अकेला न छोड़ा जाए. मेरी ज़िम्मेदारी थी उसे मोटिवेट करना. हम साथ में डिनर करते थे, बातें करते थे इधर-उधर की. मेरी कोशिश ये थी कि उसका दिमाग लाइट रखा जाए. क्यूंकि जो झटका उसे लगा था वो इतनी यंग उम्र में उस लेवल पर खेलने वाले लड़के के लिये बहुत बड़ी बात होती है. 2 साल में लोगों के करियर ख़त्म हो जाते हैं.

मुख्य काम तो ये होता है कि बुरे वक़्त में आपके ज़हन में जो चल रहा है, उसे हटाकर दिमाग को आगे लेकर जाना. तो मैं उसे लगातार यही बताता रहता था कि आगे उसे बहुत सारा क्रिकेट खेलना है. उसे बताता था कि उसमें वो दम-खम है जो उसे ख़ूब आगे ले जायेगा. भगवान् ने उसे शानदार कलाई दी है. वो दोनों ओर गेंद को स्विंग करवाता है.

केतन: रासिख पर पहली बार नज़र कब गयी?

इरफ़ान:श्रीनगर में मैंने पहली बार रासिख को देखा था. मेंटॉरशिप के सिलसिले में मैं वहां अलग-अलग ज़िलों में जाता था. वहां सेलेक्शन कैम्प था अंडर-19 का. क़रीब 100 बच्चे थे उस दिन मेरे पास. कोई अनंतनाग से आ रहा था, कोई कुलगाम से आया था. अलग-अलग ज़िलों से लड़के आये थे. वैसे भी मैं इधर-उधर जाता ही रहता था. लगातार ऐसे कैम्प्स लग रहे थे. इन्हीं कैम्प्स में से एक में रासिख मुझे दिखा.

तो उस दिन हुआ ये कि मैंने बस उसकी 2 गेंदें देखीं. मुझे समझ में आ गया था कि ये स्पेशल है. क्यूंकि जो स्पेशल होता है, वो बाकी लड़कों में एकदम अलग दिख जाता है. मैंने उसकी 2 गेंदें देखीं और उसको मना कर दिया कि ‘अब मत फेंको, खड़े हो जाओ साइड में’. और उसको लगा कि ‘आज भी मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ.’ क्यूंकि वो उससे पहले भी कई जगह गया था और उसे सेलेक्ट नहीं किया गया था. फिर थोड़ी देर में मैंने देखा कि वो जा रहा था. तो मैंने उसे रुकने के लिये बोला. मैं अपने हाथ में काग़ज़ और पेन लेके घूमता था. उस दिन मेरी लिस्ट में सबसे पहला नाम उसी का लिखा हुआ था. मैंने उससे बात की और उसे सब समझाया. आया तो था वो अंडर-19 के लिये, लेकिन कुछ ही दिन में हमारा सीनियर्स का कैम्प शुरू होना था, तो मैंने उसे सीधा सीनियर कैम्प में 30 लड़कों की फ़ेहरिस्त में डाल दिया. असोसिएशन से बात करके उसे श्रीनगर के होटल में सीनियर्स के साथ ही रुकवा दिया. फिर वहां वो मैच खेलने लगा. अच्छा परफॉर्म भी करने लगा. आगे हमने उसे रणजी ट्रॉफी से पहले विशाखापत्तनम में खेलाया. वहां भी उसने अच्छा किया. तो मैं पक्का हो गया था कि अब इसको 7-8 मैच हो गए हैं और ये सही कर रहा है, तो इसे अब विजय हज़ारे (ट्रॉफ़ी) में भेजना चाहिये. तो फिर इस तरह से वो विजय हज़ारे में दिखा.

लेकिन बॉस, जो सबसे बड़ा ब्रेकथ्रू था उसके लिये, वो मिला एयरपोर्ट पे. मैं मुंबई एयरपोर्ट पर बैठा हुआ था और मुझे राहुल संघवी दिखे. ऐसे ही क्रिकेटरों की बात निकली. उन्होंने कहा कि ‘यार जम्मू-कश्मीर में हो, क्या चल रहा है?’ उस वक़्त मैं खेल ही रहा था. तो ज़ाहिर सी बात है कि हम हमारे बारे में तो बात कर नहीं सकते थे. लेकिन दूसरों के बारे में कर सकते थे. तो मैंने इसे लड़के का वीडियो दिखाया. मैंने कहा कि लड़का अच्छा है, कैम्प में ज़रूर बुलाओ इसको. उन्होंने भी हां कह दिया. फिर एक-डेढ़ महीने बाद उनका फ़ोन आया कि ‘भई, लड़के को भेजो’. लड़का ट्रायल में गया, सबको पसंद आया. मैं सभी के साथ लगातार जुड़ा हुआ था. श्रीधर सर, ज़हीर ख़ान, रोहित, सभी को पसंद आया. और फिर ऑक्शन में उसका नाम आ गया.

केतन: ऑक्शन में आना और उसके बाद कैसा रहा?

इरफ़ान:मेरा ऑक्शन में आने का वो आख़िरी साल था. मैंने उसके बाद कभी अपना नाम ऑक्शन में नहीं डाला. उस ऑक्शन में मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ लेकिन इस लड़के का हो गया. और वो रात मैं इतना ज़्यादा ख़ुश था. मैं बहुत सुकून के साथ सोया. 30 सेकण्ड के लिये इस लड़के का फ़ोन आया और उसने उन 30 सेकण्ड में जो बातें कीं, मेरी आंखें भर आयी थीं. मैं बहुत ख़ुश था. वो मेरे जीवन का सबसे बड़ा ऑक्शन था. अपने ऑक्शन में, 2011 में, जब मुझे 7 करोड़ से भी ज़्यादा रुपये मिले थे, मुझे तब उतनी ख़ुशी नहीं हुई थी जितनी रासिख के सेलेक्शन पर हुई.

केतन:आप ऐसे इलाक़े में क्रिकेट पर काम कर रहे थे जहां इससे पहले लोग नहीं जाते थे. या जाते थे तो ख़बर नहीं बनती थी. वहां आप हर संभव लेवल पर नए-पुराने खिलाड़ियों के साथ जुड़े. उस पूरे प्रोसेस के बारे में कुछ बताइए.

इरफ़ान:असल में मेरी एक मीटिंग हुई थी. और उससे पहले, मैं जब बड़ौदा की टीम छोड़ रहा था तो मेरे पास 2 ऑप्शन थे. मेरे पास कैरीबियन प्रीमियर लीग का कॉन्ट्रैक्ट हाथ में था, टी-10 लीग और एक और लीग का कॉन्ट्रैक्ट हाथ में था. मेरे पास आराम से 3-4 करोड़ रुपये के कॉन्ट्रैक्ट थे. पर मैंने इनपर साइन नहीं किया क्यूंकि मेरी मीटिंग हुई. दिल्ली में हुई उस मीटिंग में कपिल देव साहब थे, आसिफ़ बुख़ारी थे, और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस सीके प्रसाद थे. वो लोग चाहते थे कि कपिल पाजी के साथ मिलकर हम थोड़ा क्रिकेट की फ़ील्ड में काम करें. कपिल पाजी थोड़ा मसरूफ़ थे उस वक़्त. उन्होंने मुझसे कहा कि ‘इरफ़ान आप ये काम करो. पैसा तो आता रहेगा लेकिन जो आप क्रिकेट को वापस दे पाओगे, जम्मू-कश्मीर क्रिकेट को सपोर्ट करके और इंडियन क्रिकेट को सपोर्ट करके, आपको जो संतुष्टि मिलेगी वो किसी लीग में नहीं मिलेगी.’ बस उसी पल मैंने अपने सारे कॉन्ट्रैक्ट छोड़ने का मन बना लिया. और रिटायरमेंट न लेने का फ़ैसला लिया (क्यूंकि विदेशी लीग में खेलने के लिये भारतीय पुरुष खिलाड़ियों का रिटायर होना, अर्थात उनका ऐक्टिव क्रिकेटर न होना अनिवार्य है).

तो मैंने 2 साल बाद रिटायरमेंट लिया लेकिन मैंने यही सोचा कि चलिये हम खेलते भी हैं और लड़कों को सहयोग भी करते हैं.
ख़ैर, जब हमने ये डिसाइड कर लिया कि हमें ऐसा करना था तो मैंने बाक़ी चीज़ें छोड़ दीं. और इसमें पूरी तरह से जुट गया. जब हमने अपना काम शुरू किया तो ज़ाहिर है कि आपको तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है. क्यूंकि वहां के लोगों के अपने मसले थे इधर-उधर के. और जम्मू-कश्मीर है भी इतना बड़ा स्टेट. और इन सभी के साथ बैलेंस करके आगे बढ़ना बहुत बड़ा चैलेंज है. और इस चैलेन्ज ने मुझे बहुत कुछ सिखाया. मैं इतना कुछ सीख गया हूं कि आगे कभी मुझे एडमिनिस्ट्रेटिव ज़िम्मेदारी दी जाती है तो मैं उसे बड़े आराम से निभा सकूंगा. और सबसे बड़ी बात ये है कि इस काम के ज़रिये मैं क्रिकेट को वापस कुछ दे पाया हूं. क्यूंकि क्रिकेट ने ही मुझे बनाया है. क्रिकेट नहीं होता तो इरफ़ान पठान, ये इरफ़ान पठान नहीं होता. और हमारे मुल्क़ के एक कोने में आकर वहां के लड़कों को रास्ता दिखाना, इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है?

केतन:जम्मू-कश्मीर पहुंचकर शुरुआती समस्याएं क्या आयीं? वहां के लोगों ने आपको कैसे रिसीव किया? वहां की परिस्थितियों में ये काम थोड़ा मुश्किल रहा होगा?

इरफ़ान:सबसे पहले तो आपको ट्रस्ट जीतना होता है. अगर आपको किसी के बीच जाकर अच्छा काम करना है तो आपको लड़कों का, आस-पास के लोगों का विश्वास जीतना होता है. ये करने में ही मुझे काफ़ी महीने लग गए. क्यूंकि ये इतना आसान नहीं है. (इस बीच सवाल किया गया कि क्या इरफ़ान के लिये आसान नहीं रहा होगा क्यूंकि वो एक मुक़म्मल नाम थे भारतीय क्रिकेट में. क्या कोई और कम जाना-पहचाना खिलाड़ी जाता तो उसे और मशक्कत करनी पड़ती?) मेरे अलावा अगर मेरे से बड़ा भी कोई नाम वहां जायेगा तो उसे भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ेगी. शायद मुझसे भी ज़्यादा मेहनत करनी पड़े. और इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है वहां का इतिहास. देखिये, ये सिर्फ़ जम्मू-कश्मीर की बात नहीं है. जितने भी बॉर्डर वाले इलाक़े होंगे न, किसी भी मुल्क़ में, वहां के लोग आपको ट्रस्ट करने में बहुत वक़्त लगायेंगे. और उस जगह का इतिहास इसमें बहुत बड़ा रोल अदा करता है. तो सबसे पहले आपका काम होता है कि आपको पूरी साफ़गोई के साथ, सभी के साथ उनके हक़ का फ़ैसला करना होता है. और ज़ाहिर सी बात है कि ये हक़ का फ़ैसला आपको हर दिन करना है. और सही चीज़ें करनी हैं. आपको सीधे शब्दों में उन्हें बताना होगा कि आख़िर आप वहां हासिल क्या करना चाहते हैं. आपको ये सभी चीज़ें हर मौके पर करनी होंगी, बार-बार करनी होंगी. जब आप मैच जीतते हैं तब भी और जब आप मैच हारते हैं, तब भी. तब जाकर वक़्त के साथ वो आप पर भरोसा करना शुरू करेंगे.

मुझे याद है शुभम खजूरिया नाम का बल्लेबाज़. वो आज के समय में डोमेस्टिक सर्किट में सबसे टैलेंटेड लड़का है. लेकिन वो लड़का विजय हज़ारे टूर्नामेंट के पहले 6 मैच में रन ही नहीं बना पा रहा था. वो एक भी पचास नहीं कर पाया. और असल में रन कोई भी नहीं बना पा रहा था. वो पिचें ही ऐसी थीं. हमारी बड़ी-बड़ी टीमें वहां चेन्नई में 120-110ऐसे स्कोरों पर आउट हो रही थीं. अब ये लड़का पहले मैच में रन नहीं कर पाया, दूसरे मैच में रन नहीं बना पाया, तीसरे मैच में भी जल्दी आउट हो गया. शुभम खजूरिया के अलावा शुभम पुंडीर और परवेज़ रसूल भी थे. मैंने कुछ मैचों के बाद इन 3-4 लड़कों को बुलाया और इनसे बात की. इन्हें लगा कि मैं शायद इन्हें परेशान करने वाला था. मेरे कमरे में ये मीटिंग थी और मैंने उनसे बस इधर-उधर की बातें कीं. अगले दिन ये लोग गए और आगे सभी ने बढ़िया क्रिकेट खेला. मैं ये नहीं कह रहा हूं कि मेरे कमरे में हुई मीटिंग के चलते उनका गेम इम्प्रूव हुआ. मेरा कहना ये है कि आप लगातार लड़कों की पीठ थपथपाते रहो तो वो अच्छा परफ़ॉर्म करेंगे ही करेंगे. मैंने वो मीटिंग इसीलिए रखी थी क्यूंकि मैं नहीं चाहता था कि वो अपना आत्मविश्वास खो दें. क्यूंकि ख़राब दौर में चल रहे खिलाड़ियों को हर रात यही लगता है कि ‘कल मुझे टीम में जगह नहीं मिलेगी.’ मैं उन लड़कों को यही बताना चाहता था कि ‘भाई, आपमें क़ाबिलियत है और आप अच्छा करेंगे.’ अगले मैच में शुभम ने जाकर 50 रन मारे. ये छठा मैच था. रन बनाने के बाद उस शाम शुभम मेरे पास आया और बोलने लगा कि ‘अगर ये 2 साल पहले की बात होती तो मैं अभी चेन्नई में नहीं बल्कि अपने घर में बैठा होता 2 मैच के बाद.’ तो हमारा ही काम है लड़कों को विश्वास से भरना, उन्हें सुरक्षित महसूस कराना. शुभम इसके बाद परफ़ॉर्म करता गया.

तो मुद्दा माइंडसेट का है. कई बार ये भी देखने को मिला कि जो पुराने लोग थे वो हमारी योजना और मेथड को सपोर्ट करने को तैयार नहीं थे. बीते समय में बहुत सारी चीज़ें होती थीं. लेकिन मैंने तो ये सोच रखा था कि पीछे जो भी हुआ हो, मैं तो पूरे विश्वास के साथ आगे बढूंगा. ये भी होता था कि जम्मू के लड़कों और कश्मीर के लड़कों में ज़हनी तौर पर बहुत अंतर हैं. ऐसे में आपको उन्हें साथ लेकर आगे बढ़ना होता है. और हमारा तो ये था कि हम जम्मू ऐंड कश्मीर नहीं बोलते थे बल्कि जम्मू-कश्मीर कहते थे. हमें उन सभी को हर संभव तरीक़े से ये दिखाना था कि सभी एक राज्य के लिये खेल रहे थे.

केतन:ग्रुप सी में 6 साल के बाद जम्मू-कश्मीर को आउटराइट जीत मिल रही थीं. ये आपके आने के बाद हुआ. इसका टीम पर, खिलाड़ियों कितना असर पड़ा और आपके रोल को इसने कितनी मज़बूती दी?

इरफ़ान:ये पहली दफ़ा था जब हमने आउटराइट लिया और फिर ये होता गया. हमारा लक्ष्य यही था कि हम सिर्फ़ टीम के बारे में सोचें. क्यूंकि ऐसा होता था वहां कि कोई सालों-साल 24 के एवरेज से खेले जा रहा था क्यूंकि उसने कुछ साल पहले कुछ ठीक कर दिया था. तो हमें ये सब बदलना था. आप परफ़ॉर्म करो, फिर आप यंग हो या सीनियर हो, आप टीम का हिस्सा रहोगे. आप परफ़ॉर्म नहीं करोगे और आप किसी दूसरी तरह से भी टीम की मदद नहीं करोगे तो फिर आपको बाहर जाना पड़ेगा. मुझे किसी को असुरक्षित महसूस नहीं करवाना था लेकिन ये ज़रूर बताना था कि हमने कहां जाने का लक्ष्य बनाया हुआ था. समय की पाबंदी, नींद की पाबंदी, सारा अनुशासन मौजूद था और उसकी सीमाओं में रहकर हम सभी एंजॉय करते थे. लड़कों को ख़ूब मज़ा भी आता था. सभी को अपने लिये चीज़ें करने का भी समय मिलता था. लेकिन जब एक बार आप मैदान में उतर गए तो सब कुछ भूलकर आपको एक साथ लग जाना था. ये पहले साल की बात थी. रंग तो आना शुरू हुआ अगले साल जब हम रणजी ट्रॉफ़ी में क्वालिफ़ाय किये (क्वार्टर फ़ाइनल के लिये). और वो क्वार्टर फ़ाइनल भी हम कर्नाटका से कम ही अंतर से हारे थे (हालांकि कर्नाटका की टीम 167 रनों से वो मैच जीती थी). पर वो क्वालिफ़ाय करना इतने सालों में, बहुत बड़ी बात थी. हम इतना अच्छा क्रिकेट खेलकर ऐसे आगे कभी नहीं बढ़े थे.

वहां भी एक बढ़िया कहानी हुई. उन दिनों में भी हम एक लड़के को तैयार कर रहे थे. वो बढ़िया लेफ़्ट आर्म मीडियम पेसर था लेकिन उसकी गेंद अंदर नहीं आती थी. उसका नाम था मुज्तबा यूसुफ़. परवेज़ (रसूल) उसे मेरे पास लेकर आया था. तो मुज्तबा उस वक़्त बस बाहर की ओर निकालता था गेंद. हमें उसके फ़ॉलो-थ्रू पर काम करना था. तो 2 महीने तो हमने उसे बहार की बॉल ही फेंकने नहीं दी. मैं आता था, उससे बात करता था और जो ड्रिल बताई थी, उसे पूरा दिन वही करनी होती थी. और मेरा काम था उसे हर वक़्त ये समझाते रहना कि ‘नहीं, आज भी तुझे यही करना है.’ फिर 2 महीने बाद मैंने उससे लम्बी बॉलिंग करवानी शुरू की. उसने नेट्स में 1 महीना ख़र्च किया और फिर उसन जो अपना पहला मैच खेला उसमें उसने 5 विकेट निकाले. तो कहने का मतलब ये है कि आप कुछ भी काम पूरे प्रॉसेस के साथ करते हो तो आपको अच्छा नतीजा मिलता ही मिलता है.

तो इन सभी लड़कों ने मेहनत की और उस मेहनत का फल हमें अगले साल से मिलने लगा. हां, उस प्रॉसेस में हमें एक-डेढ़ साल लगे जो लगते ही हैं.

केतन:आप कनफ़्लिक्ट ज़ोन में थे और एक समय पर परिस्थितियों से जूझते हुए आपको वो प्रदेश छोड़कर आनन-फ़ानन में निकलना पड़ा. आपने टीम को बड़ौदा बुलाया और वहां कैम्प शुरू किया. क्या फ़र्क है कनफ़्लिक्ट ज़ोन के क्रिकेट और देश के बाक़ी क्रिकेट में?

इरफ़ान:देखिये एक तो माइंडसेट का बहुत बड़ा फ़र्क होता है. वहां के जो पुराने क्रिकेटर थे, उन्होंने बड़ा अजीब माहौल बनाकर रखा हुआ था. उन्होंने अपने करियर में शायद 20 के एवरेज से रन बनाये थे लेकिन बाक़ी नये लड़कों को ऐसा डराकर रखा हुआ था कि जैसे उनके बगैर इन यंग लड़कों क काम ही नहीं होना था. लेकिन ऐसा होता नहीं है. आपको नये लड़कों को उनके कंधे पर हाथ रखकर चलाना है. जहां टाइट करना है, वहां टाइट भी करना है. लेकिन वो स्क्रू सही दिशा में टाइट होने चाहिये. मगर वहां अलग स्थिति थी. इसे बदलना था. हमने ऐसे लोगों को चिह्नित किया जो रन बनाने को और मेहनत करने को तैयार नहीं थे. उनसे सीधे बात की और तस्वीर साफ़ कर दी कि टीम में जगह तभी मिलेगी जब आप कुछ करेंगे.

दूसरा, देश के बाक़ी हिस्से से एक बहुत बड़ा अंतर ये होता है कि आपको मैटिंग क्रिकेट नहीं दिखेगा. आपको टर्फ़ क्रिकेट दिखेगा. वहीं पे तो मैच होते हैं. आप हमारे बड़ौदा चले जाओ. बड़ौदा जैसे छोटे शहर में आपको हर जगह टर्फ़ दिखेगी. लेकिन जम्मू-कश्मीर के कई हिस्सों में, ज़्यादातर हिस्सों में, ज़िलों में आपको मैटिंग विकेट दिखती थी. अब मैटिंग पर खेलने का जो अंदाज़ है वो अलग है. जो मैटिंग पर खेलता है वो पेस बहुत अच्छा खेलेगा लेकिन जैसे ही बॉल ग्रिप होगी, उसकी हालात ख़राब हो जायेगी. (यहां ये सवाल भी पूछा गया कि क्या वहां टेनिस बॉल का क्रिकेट हार्ड बॉल से ज़्यादा खेला जाता था?) जब मैं आया तो हमने यही कोशिश की क्रिकेट बॉल से ही हर कोई खेले. ये सही है कि मेरे आने के पहले से वहां टेनिस बॉल खेली जा रही थी. लेकिन हमने कहा कि भले ही मैटिंग पे खेलो लेकिन क्रिकेट बॉल के साथ खेलो. तो ऐसे शुरुआत हुई. तो हमारे और भी बहुत सारे प्लान थे. मैंने वो सभी प्लान क्रिकेट असोसिएशन के मौजूदा अधिकारियों तक पहुंचा दिए थे कि आप इस राह पर चलते रहोगे तो आगे बढ़िया रहेगा. खैर…

आप ये भी देखियेगा कि कश्मीर से ज़्यादातर गेंदबाज़ आये हैं और जम्मू से बैटर्स आये हैं. क्यूंकि जम्मू के लड़के क्या करते थे कि वो ऑफ़ सीज़न में बैंगलोर चले जाते थे आय कहीं और निकल जाते थे जहां उन्हें प्रैक्टिस करने को मिलती रहती थी. लेकिन कश्मीर में बारिश वगैरह होती थी और वहां के लड़कों को प्रैक्टिस का ज़्यादा मौका मिलता नहीं था, ख़ासकर 3-4-5 महीने जब बर्फ़ गिरती है. ये सारी चीज़ें देख समझ के ही मैं उन्हें वहां से निकालकर लाया. पूरी टीम बड़ौदा आयी. साथ ही ये भी था कि कश्मीर बंद हो गया था तो निकलना ही था.

केतन:और वहां के लड़कों में फ़िटनेस को लेकर क्या सोचा है? कैसे मैनेज होता है सब?

इरफ़ान:ये बड़ा इंट्रेस्टिंग पहलू है. क्यूंकि जब आप फ़िटनेस की बात करते हो तो बस एक ही पहलू नहीं होता. फ़िटनेस का मतलब ये नहीं होता कि आप कितना भाग सकते हो. और जब मुझे वहां ये दिखा तो मैं वीपी सुदर्शन (पूर्व टीम इंडिया ट्रेनर) को लेकर आया. पहले सीज़न में तो मैं आया और चीज़ें शुरू हो गयीं. एक सीज़न बाद मैंने उन्हें बुलाया. मुझे समझ में आया कि ये लड़के सीधा भागने में तो उस्ताद हैं. लेकिन जहां चपलता की बात आती है, वहां थोड़ा मामला कमज़ोर था. क्यूंकि क्रिकेट में तो आपको साइड में डाइव भी लगानी है, आपको एक रन के बाद दूसरा भी निकालना है. इन लड़कों के हार्ट बड़े मज़बूत हैं. लेकिन उसके साथ-साथ पैर की छोटी मांसपेशियां होती हैं, वो थोड़ी कमज़ोर थीं. क्यूंकि ये हमेशा सीधा भागने की ही प्रैक्टिस करते थे. यो-यो टेस्ट में एक-दो लड़के आगे थे लेकिन बाकी सब बहुत पीछे थे. तो बहुत सारी चीज़ों पर काम किया. फ़ील्डिंग के लिये अल-अलग ड्रिल्स लाये. मिलाप मेवाड़ा हमारे कोच थे. उन्होंने हमारी बहुत मदद की. वो बड़ौदा के ही थे. उन्होंने इंडिया अंडर-19 खेला था. वो हमारी बहुत मदद करते थे.

तो हमने इस तरीक़े से काम किया. हमने तय किया कि कोई भी लड़का आकर नॉर्मल नेट प्रैक्टिस नहीं करेगा. वो नेट में आयेगा, एक बॉल खेलेगा और तुरंत एक रन लेगा. यही काम सामने वाला बल्लेबाज़ करेगा.

केतन:और उनकी मेंटल फ़िटनेस?

इरफ़ान:वहां तो हमें बहुत ज़्यादा मेहनत करनी पड़ी. क्यूंकि वहां पुराने लोगों ने तो ये दिमाग में डाल रखा था कि आप बस एक पॉइंट तक ही खेल सकते हो. हमें तो उनके दिमाग में उस बैरियर को तोड़ना था और ये बहुत ज़रूरी था. हमें बच्चों को ये बताना था कि ‘आप शिखर पर खड़े हो जाओ और कूदो वहां से. हम नीचे खड़े हैं, हम आपको पकड़ लेंगे. लेकिन आपको उड़ने की कोशिश करनी है. अगर आप गिरे तो हम हैं.वक़्त के साथ वो लड़के कूदने लगे.और फिर नीचे गिरने की बजाय वो उड़ने लगे.

ये उनके ज़हन में डालना बेहद ज़रूरी था कि आप ग़लती करो, हम हैं इधर. आपका इरादा ठीक होना चाहिये. बस आप ये ध्यान में रखो कि आप अपने लिये परफ़ॉर्म करोगे, आपको कोई नहीं पूछेगा. लेकिन जम्मू-कश्मीर टीम क्वालिफ़ाय करेगी, लड़ेगी, तो सबकी नज़र आपके ऊपर रहेगी. और आप ज़्यादा आगे जाओगे.’ क्यूंकि जब कोई क्वालिफ़ाय करता है तो वो बड़े लेवल पर पहुंचता है. बड़े लोग देखने आते हैं, बड़ी मीडिया आती है. सेलेक्टर्स भी आकर मैच देखते हैं. ऐसे में ही खिलाड़ी को फ़ायदा होगा. कोई ये कहे कि उसने 4 विकेट ले लिये और वो ख़ुश है या 40-50 रन बनाकर, अपनी जगह पक्की करके ख़ुश है तो उसे ऐसा कतई नहीं सोचना चाहिये. टीम के लिये रन बनाओ, अपने लिये नहीं. लड़कों के ज़हन को बड़ा करना बेहद ज़रूरी था और इसके लिये हमने रेगुलर तमाम तरह की ऐक्टिविटी जारी रखीं. इस दौरान हम मस्ती ख़ूब करते थे जिससे लड़कों को मज़ा ज़रूर आये.

केतन:आखरी सवाल पर्सनल लेवल का है. कई बार आपको सोशल मीडिया पर, आपकी पहचान की वजह से, बहुत भद्दी बातें सुनने को मिली हैं. कितनी कोफ़्त होती है? कैसे निपटते हैं? आप खिलाड़ियों को मेंटॉर करते हैं, ऐसे दिनों में आपका मेंटॉर कौन होता है?

इरफ़ान:(हंसते हुए) ये बढ़िया बात कही. हर किसी का एक मेंटॉर होता है, चाहे वो किसी भी लेवल पर हो. मेंटॉर होना बहुत ज़रूरी भी है. बहुत हद तक मेरे लिये तो मेरी फ़ैमिली है. चाहे वो मेरा बड़ा भाई हो, चाहे वो मेरी बीवी हो (इरफ़ान की वॉट्सऐप डीपी में बस दो हाथ दिखते हैं. उनके हाथ को उनकी पत्नी ने थामा हुआ है) या मेरे वालिद हों. इनका बहुत बड़ा हाथ है. मेरी पत्नी मेरी बहुत बड़ी ताक़त हैं और उनसे काफ़ी राब्ता होता है. हर चीज़ की गुफ़्तगू होती है.

चीज़ें मैनेज करनी पड़ती थीं शुरू-शुरू में. जब मैंने सोशल मीडिया को बेबाक अपनाना शुरू किया था. तब मुझे ज़रूरत पड़ी थी. अभी आय डोंट गिव अ डैम! मुझे लगता है कि अगर मुझे किसी चीज़ के बारे में बोलना चाहिये तो मैं बोलता हूं. और ऐसा है कि घूम-फिर के मेरी चीज़ें या तो मेरे मुल्क़ के बारे में होती हैं, या तो अपने मुल्क़ के लोगों के लिये होती हैं, या उसमें कोई इंसानियत वाली बात होती है. न तो मैं झगड़ा करने की बात करता हूं, न किसी को उकसाता हूं नेगेटिव बात करने के लिये. मैं तो बस पॉज़िटिव चीज़ों की ओर जाता हूं. उसमें भी जो लोग आकर मेरे बारे में नेगेटिव बात करते हैं, मेरा यही कहना है कि मेरी अब बहुत मोटी चमड़ी हो चुकी है, मुझे फ़र्क नहीं पड़ता.

दूसरी बात, मेरा सोशल मीडिया मेरे लिये है. मुझे किस तरह से इस्तेमाल करना है, ये दूसरे नहीं बतायेंगे. लोग आयेंगे, बोलेंगे, चले जायेंगे. मैं अपने हिसाब से सोशल मीडिया इस्तेमाल करता था, करता हूं, करता रहूंगा.

और ये भी बता दूं कि हम जैसे लोग मुल्क़ के लिये बहुत पैशनेट होते हैं. आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं. हम इंडिया के लिये खेले. हम ये देखते हैं कि हमारा मुल्क़ कहां बेहतर हो सकता है, हम वो कहते रहेंगे. क्यूंकि हमें तो जीतने से मतलब है. हमने जब वर्ल्ड कप जीता, हमने ये नहीं देखा कि सामने कौन सी टीम कितनी मज़बूत है. हमें जीतने से मतलब था. मैं इंडिया अंडर-15 खेला तो इरादा बना. और मज़बूत हुआ जब इंडिया अंडर-19 खेला. फिर इंडिया के लिये खेला. आज रिटायरमेंट के बाद भी इंडिया के लिये काम करने का इरादा उतना ही मज़बूत है. हम खेलते रहेंगे ऐसे ही. मरते दम तक. लोग आयेंगे, जायेंगे, कुछ कहते रहेंगे, बात करते रहेंगे.

लेकिन इस सब के बीच हम इतने पैशनेट हैं कि हमारे वालिद के नये बन रहे दफ़्तर में लगने वाले मुल्क़ के झंडे के फ़्रेम को लेकर हमारी कई दिनों तक बहस चलती रही. फिर मेरी बीवी ने अपनी बात रखी और झंडा उनके हिसाब से लगा. हमारे ऑफ़िस की वो जान है. मैं ये सब कुछ इसलिये नहीं कह रहा हूं कि ‘देखो हम ऐसा कर रहे हैं.’ ये हमारा हर दिन का हिस्सा है.

खैर, हम मुल्क़ के लिये पहले भी पैशनेट थे. आज भी हैं. और आगे भी रहेंगे. न तो इसपे कोई सवाल पूछ सकता है, न तो किसी की इतनी औकात है कि वो हमारे माइंडसेट पर सवाल उठा सकता है. हमने अपने मुल्क का झंडा पाकिस्तान में भी गाड़ा, साउथ अफ़्रीका में भी गाड़ा, इंग्लैण्ड ऑस्ट्रेलिया में भी जाकर मुल्क़ का झंडा गाड़ा है.
ये सब जो आती रहती हैं चीज़ें बीच-बीच में, उससे फ़र्क नहीं पड़ता. लोग आएंगे और बोलेंगे. हम अपना काम करते जायेंगे.