मुसलमान हमेशा मुख्य धारा की सियासी पार्टियों से ही जुड़े रहे। कभी सांप्रदायिक आधार पर वोट नहीं दिया। यह सही है कि मुसलमानों को मौजूदा दौर में अलग-थलग किया जा रहा है। पर, यह भी सही है कि भारतीय मुसलमानों ने यहां अन्य किसी भी मुल्क से कहीं ज्यादा हासिल किया है। यह कहना है भारत-पाक विभाजन का विरोध करने वाली जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष और पूर्व राज्यसभा सदस्य मौलाना महमूद मदनी का। वे कहते हैं कि अच्छा होता कि मुसलमान अन्य पार्टियों की तरह ही भाजपा को भी वोट देने की सोच पाते। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि मुसलमानों को किसी पार्टी विशेष को हराने की सोच के साथ वोट नहीं करना चाहिए, बल्कि मुफीद प्रत्याशी को जिताने की सोच के साथ वोट देना चाहिए। अमर उजाला अख़बार के संवाददाता अजीत बिसारिया ने उनसे लंबी बातचीत की…
यूपी का चुनावी माहौल कैसा लग रहा है?
तस्वीर बहुत साफ नहीं दिख रही है। इतना जरूर कहना चाहता हूं कि चुनाव में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण नहीं होना चाहिए। चुनाव जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दों पर ही होना चाहिए।
इन वास्तविक मुद्दों के नजदीक कौन सी पार्टी है?
पहली बात, कोई भी पार्टी सत्ता में होती है, कुछ न कुछ अच्छे काम जरूर करती है। लेकिन, उसके काम का मूल्यांकन समग्रता में करना होता है। वर्तमान सत्ताधारी पार्टी अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन नहीं कर रही है। सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण खराब करने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है। दूसरी बात, सपा, बसपा, भाजपा व अन्य जो भी पार्टियां हैं, उनमें हर समुदाय के लोग हैं। दलित भी हैं, ओबीसी भी हैं और ब्राह्मण भी। सभी में मुसलमान भी हैं। आजादी के बाद से लेकर अभी तक मुसलमान ने कभी भी सांप्रदायिक आधार पर वोट नहीं किया। सदैव मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों का ही साथ दिया है।
क्या मुसलमानों का बड़ा हिस्सा सपा के साथ नहीं जाता?
हां, यह सच है। मुसलमानों का बड़ा हिस्सा सपा के साथ है। इसकी वजह है कि मुसलमान राजनीतिक कार्यकर्ता सबसे ज्यादा सपा के पास हैं। वे अपने समुदाय के मतदाताओं पर प्रभाव डालते हैं। उन्हें सपा का साथ देने के लिए तैयार करते हैं।
असदुद्दीन ओवैसी भाजपा के एजेंट हैं या मुसलमानों के रहनुमाई करने वाले नेता?
ओवैसी साहब अच्छे वक्ता, राजनेता और बैरिस्टर हैं। लेकिन, बहुत सारी बातों पर मैं उनसे सहमत नहीं हूं। इस असहमति के बावजूद कहना चाहता हूं कि अगर वे अपनी पार्टी यहां खड़ी करना चाहते हैं, तो उसका विरोध नहीं करना चाहिए। यह हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती है कि जो लड़ना चाहे, लड़े। यह उसका मूल अधिकार है। किसी की नजर में ओवैसी भाजपा के एजेंट हो सकते हैं, फिर भी उनके पार्टी खड़ा करने के अधिकार को बाधित नहीं किया जा सकता। अगर एआईएमआईएम ने कोई अच्छा प्रत्याशी मेरे क्षेत्र से उतारा तो हो सकता है कि मैं उसे वोट दे दूं।
भाजपा का विरोध क्यों?
भारत विभिन्न मतों व संप्रदायों का कुनबा है। भाजपा इसे तोड़ने की कोशिश कर रही है। इससे देश का नुकसान होगा। लोग जाति व धर्म में बंटे, यह न समाज हित में है और न राष्ट्र हित में। हां, मैं इतना जरूर कहता हूं कि भाजपा को हराने की भावना के साथ वोट देना उचित नहीं। जो उम्मीदवार उम्मीदों पर खरा उतरता हो, उसे जिताने की भावना के साथ वोट देना चाहिए।
क्या मुसलमानों का सियासी प्रतिनिधित्व कम हुआ है?
यह चिंता की बात है। आज देश में मुसलमानों को आइसोलेट (अलग-थलग) किया जा रहा है। वे इसे महसूस भी कर रहे हैं। अगर यह जारी रहा तो यह दुर्भाग्य होगा। राष्ट्र निर्माण में उसके योगदान को बढ़ाना होगा। न सिर्फ राजनीतिक बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक और सुरक्षा के मोर्चे पर भी। समग्रता में कहें तो क्षमता निर्माण का काम करना होगा। लेकिन, इस मुल्क में मुसलमानों ने बहुत कुछ हासिल किया है। इसलिए उन्हें निराश या हताश होने की जरूरत नहीं है। मालदार मुसलमान तो पाकिस्तान चले गए थे। यहां तो अधिकतर मजदूर वर्ग के लोग रह गए थे। भेदभाव के बावजूद उन्होंने अपनी मेहनत और देश में मिले प्लेटफाॅर्म (सांविधानिक अधिकार) की बदौलत बहुत कुछ हासिल किया है।
जिन्ना भी काफी राजनीतिक चर्चा में रहे?
जिन्ना ने देश के बंटवारे की बात करके ऐतिहासिक जुर्म किया। धर्म के आधार पर कोई राष्ट्र नहीं बनता। ऐसा होता तो फिर पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) कभी अलग नहीं होता। इससे सबक मिलता है कि धर्म के आधार पर देश को जोड़े नहीं रखा जा सकता। बंटवारे का फायदा आज दुनिया उठा रही है। यह पूरे भारतीय उप महाद्वीप के लिए नुकसानदायक रहा। जिन भारतीय मुसलमानों ने भारत को चुना, उन्होंने किसी भी मुल्क के मुसलमानों से यहां ज्यादा ही हासिल किया है।
भाजपा मथुरा के मुद्दे को भी ला रही है?
चुनावी लिहाज से फायदा उठाने के लिए भाजपा ऐसा कर रही है। यह राष्ट्र हित में नहीं है। भाजपा गलती कर रही है। भाजपा सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास का सिर्फ नारा देती है। इस पर अमल नहीं करती। इसे मैं अच्छी स्थिति मानूंगा, अगर भारतीय मुसलमान यह महसूस करे कि अन्य पार्टियों की तरह भाजपा को भी वोट दिया जा सकता है। लेकिन, ताली एक हाथ से नहीं बज सकती है। असम चुनाव के दौरान भाजपा के मुख्यमंत्री पद के कैंडीडेट ने तो यहां तक कह दिया कि उन्हें मियां भाई का वोट नहीं चाहिए।
धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को ठगा नहीं गया?
अगर 100 प्रतिशत ऐसा होता तो मुसलमान इतना सब कुछ कैसे हासिल कर पाते। शिकायतें तो दूसरे समुदायों की भी हैं। जिंदगी के साथ शिकायतें और मांगें रहती ही हैं। सबने छला होता तो मुसलमान इस स्थिति में कैसे होता।
सीएए-एनआरसी चुनावी मुद्दा बनेगा?
मुझे नहीं लगता कि यह कोई चुनावी मुद्दा बनेगा। यह अलग लंबी बहस का मुद्दा है कि जिस अंदाज में उसका विरोध हो रहा है, उचित है या नहीं?
सरकार की विभिन्न योजनाओं के लाभार्थी बड़ी संख्या में मुसलमान भी हैं। इस पर क्या कहेंगे?
मैं पहले ही कह चुका हूं कि हर सरकार अच्छे काम करती ही है। उसकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन, वर्तमान माहौल का मुद्दा अच्छे कामों पर हावी हो गया है। देश की तमाम राजनीतिक पार्टियों ने देश के लिए काफी कुछ किया है। इसका फायदा मुसलमानों को भी मिला। हमें एक ऐसी सत्ता चाहिए, जो इंसाफ के साथ समझौता न करे। आगे बढ़ने के अवसरों को पारदर्शी ढंग से सबके लिए उपलब्ध कराए। जो काबिल हो, वो उसे हासिल कर ले।
चुनावी फतवे जारी करना कहां तक उचित है?
मैं खुद मौलाना हूं। मेरा मानना है कि फतवे सिर्फ धार्मिक मामलात पर दिए जा सकते हैं, राजनीतिक पर नहीं। हजारों मुफ्ती भी एक जगह इकट्ठा हों तो भी किसी दल विशेष को वोट देने की बात कहना उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है।
सभार अमर उजाला