भारत का जगमगाता सितारा- हकीम अजमल ख़ाँ

दिल्ली के बल्लीमारान की एक गली में स्थित शरीफ़ मंज़िल में एक इतिहास छुपा है। इसी घर से मसीह उल मुल्क यानी मुहम्मद अजमल ख़ाँ यानी हकीम अजमल ख़ाँ की पहचान जुड़ी हुई है। एक हकीम, चिंतक, पत्रकार, लेखक और सामाजिक नेता के रूप में भारत का इतिहास उन्हें भुला नहीं सकता। हिन्दुस्तानी दवाख़ाना, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और तिब्बिया कॉलेज के रूप में उनके योगदान को इतिहास में बहुत मान्यता है।

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11 फरवरी 1868 को एक हकीम परिवार में पैदा हुए अजमल ख़ाँ को हिकमत अपने परिवार से मिली। उनके बुज़ुर्ग मुग़ल बादशाह बाबर के समय आए थे। उनके दादा हकीम शरीफ़ ख़ान मुग़ल बादशाह शाह आलम के हकीम थे और उन्होंने ही शरीफ़ मंज़िल नाम से बल्लीमारान में ‘शरीफ़ मंज़िल’ बनाई थी। यहाँ अस्पताल और हिकमत की पढ़ाई का इंतज़ाम था। बचपन से ही अजमल ख़ाँ इसी माहौल में पले बढ़े। सन् 1892 में हिकमत की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह रामपुर नवाब के आधिकारिक हकीम बने। सन् 1890 के समय उनकी हिकमत का यह रुत्बा था कि वह शहर से बाहर जाने पर एक हज़ार रुपये फ़ीस लेते थे मगर दिल्ली में शरीफ़ मंज़िल में आकर इलाज करवाने पर वह कोई पैसा नहीं लेते।

हकीम अजमल ख़ाँ के पड़पोते मसरूर अहमद ख़ाँ ने एक मीडिया डॉक्यूमेंट्री में साक्षात्कार के दौरान बताया कि हमारे परिवार को ‘ख़ानदाने शरीफ़ी’ कहा जाने लगा। शरीफ़ मंज़िल की स्थापना के साथ ही ग़रीबों के इलाज को हमेशा मुफ़्त रखा गया।

जब अंग्रेज़ों ने आयुर्वेद और यूनानी इलाज पद्धति को चलने से बाहर करने का निर्णय किया, वह इसके विरोध में खड़े होने वाले सबसे बड़े व्यक्ति बनकर उभरे। पद्मश्री प्रोफ़ेसर ज़िल्लुर रहमान ने एक साक्षात्कार मे बताया कि हकीम अजमल ख़ाँ ने आयुर्वेद और यूनानी पद्धति को बचाने के लिए सन् 1906 में ‘ऑल इंडिया आयुर्वेदिक यूनानी तिब्बी कांफ्रेंस’ में एक संगठन की स्थापना की। इसी की बदौलत भारत में यूनानी और आयुर्वेदिक पद्धति को बचाया जा सका। ब्रिटिश राज के एक्ट से पहले ही हकीम अजमल ख़ाँ दिल्ली समेत बम्बई और लखनऊ में यह माहौल बना चुके थे कि ऐसे किसी भी क़ानून की अवहेलना की जाएगी जो भारतीय और यूनानी इलाज पद्धति को प्रेक्टिस से बाहर करे। कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में हकीम अजमल ख़ाँ यह प्रस्ताव पारित करवाने में कामयाब रहे कि आज़ाद भारत में आयुर्वेद और यूनानी पद्धति को इलाज से बाहर नहीं किया जाएगा बल्कि उसे प्रश्रय दिया जाएगा। देसी रियासतों में अपने रसूख और प्रभाव को इस्तेमाल करते हुए हकीम अजमल ख़ाँ ने अंग्रेज़ों पर दबाव बनाकर आयुर्वेद और यूनानी पद्धति पर प्रतिबंध की ब्रिटिश योजना को नाकाम करवा दिया। यह हकीम अजमल ख़ाँ की दूरअंदेशी का नतीजा है कि आज भारत समेत पूरी दुनिया में जहाँ भी आयुर्वेद और यूनानी पद्धति से इलाज होता है उसे संरक्षण का श्रेय हकीम अजमल ख़ाँ को जाता है।

हिकमत में उनके बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें ‘मसीह उल मुल्क’ यानी देश के मसीहा के रूप में याद किया जाता है। दिल की अव्यवस्थित धड़कन को अंग्रेज़ी में ‘एंटी एरिमाइटिक एजेंट’ कहा जाता है। हकीम अजमल ख़ाँ को सम्मान देने के लिए दिल की इस समस्या के शोध औऱ निदान पद्धति को ही इनके नाम से तय कर दिया गया। अर्थात् मेडीसिन में दिल की समस्या और निदान को ‘एंटी एरिमाइटिक एजेंट’ कहा जाता है, यूनानी पद्धति में इसे ‘अजमलाइन’ पुकारा जाता है।

हकीम अजमल ख़ाँ का देश की आज़ादी, राजनीति और शिक्षा में योगदान बहुत बड़ा है। वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया के संस्थापक सदस्य हैं। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली केन्द्रीय महाविद्यालय, हिन्दुस्तानी दवाख़ाना और आयुर्वेदिक यूनानी तिब्बिया कॉलेज खोला। आज यह करोल बाग़ में तिब्बिया कॉलेज के नाम से स्थापित है। हकीम अजमल ख़ाँ वर्ष 1920 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के पहले चांसलर चुने गए और अपने देहांत 1927 तक इस पद पर बने रहे। जामिया को उन्होंने अपने निजी धन और चंदे से बहुत मदद की।

वह ‘अकमल उल अख़बार’ नाम के समाचार पत्र के सम्पादक भी थे। सन् 1906 में भारत के वॉयसरॉय के नाम ज्ञापन देने वाले प्रतिनिधि मंडल का उन्होंने नेतृत्व किया। दिसम्बर 30, 1929 को ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना में उन्होंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। ख़िलाफ़त आंदोलन के दौरान उन्होंने महात्मा गाँधी, मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली के साथ मिलकर काम किया। वह अकेले ऐसे नेता हैं जो ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, इंडियन नेशनल कांग्रेस और ऑल इंडिया ख़िलाफ़त कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं।

हकीम अजमल ख़ाँ ने पहले विश्व युद्ध के दौरान कांग्रेस की तरह ब्रिटेन का साथ देने के निर्णय किया। इससे ख़ुश होकर अजमल ख़ाँ के योगदान पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘हाज़िक़ उल मुल्क’ और ‘क़ैसर ए हिन्द’ के अवॉर्ड से नवाज़ना चाहा लेकिन उन्होंने यह सम्मान लेने से मना कर दिया। महात्मा गाँधी ने अपने अख़बार में उनके इस बहादुर फ़ैसले की तारीफ़ की।

अल्लामा इक़बाल ने लिखा था कि “हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा”। कहीं से भी नहीं लगता कि यह बात हकीम अजमल ख़ाँ के लिए नहीं कही गई हो। एक सम्मानित समाज में जो स्थान हकीम अजमल ख़ाँ का है, उसे कभी फ़रामोश नहीं किया जा सकता।

(लेखक मशहूर पत्रकार हैं)