विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति से जोर पकड़ता भारत का हिजाब विवाद: ह्यूमन राइट वॉच

मीनाक्षी गांगुली

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भारत के कर्नाटक राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने को लेकर हुए हाल के विरोधों ने भारत में सांप्रदायिक दरारों को उभार कर दिया है. विभाजनकारी राजनीतिक अभियानों से ये दरारें तेजी से चौड़ी हो रही हैं. ये इतनी गहरी हैं कि राज्य में स्कूलों को अस्थायी तौर पर बंद करना पड़ा.

सरकार द्वारा स्कूल और कॉलेजों में हिजाब पर प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत भारत के दायित्वों का उल्लंघन है. यह कानून व्यक्ति को बगैर किसी दवाब के अपने धार्मिक विश्वासों को प्रकट करने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बिना किसी भेदभाव के शिक्षा के अधिकार की गारंटी देता है. कर्नाटक की एक अदालत प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.

कर्नाटक सरकार ने मुस्लिम छात्राओं के कक्षाओं में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध का समर्थन किया और दावा कर रही है कि यह सार्वजनिक सुरक्षा के लिए जरुरी है. बहुतेरे भारतीयों ने सोशल मीडिया पर भेदभावपूर्ण और स्त्री विरोधी विचार व्यक्त किए; या ऐसे विचारों के खिलाफ बहस में हिस्सा लिया.

छात्राओं के परिधानों की पसंद के बारे में चर्चाओं को भारत में महिलाओं और लड़कियों, चाहे वे किसी भी धर्म की हों, को अधिकारों से वंचित करने के एक अन्य तरीके के रूप में देखा जाना चाहिए. कई लोगों का तर्क है कि हिजाब को अक्सर मुस्लिम महिलाओं पर थोपा जाता है और निजी पसंद की स्वतंत्रता की मांग करने वाले वास्तव में नुकसान पहुंचा रहे हैं. हालांकि, धार्मिक परिधानों के उपयोग पर रोक लगाना या फिर महिलाओं और लड़कियों को एक विशेष तरीके से कपड़े पहनने के लिए मजबूर करना, दोनों ही अपने परिधान चुनने के उनके अधिकारों को कमजोर करते हैं.

एक और चर्चा सुरक्षा के बारे में है. कुछ रूढ़िवादी मुसलमान इस पर जोर देते हैं कि हिजाब महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाता है. यह पूरे भारतीय समाज में व्याप्त सोच को दर्शाता है जो महिलाओं को अपनी पसंद के कपडे पहनने के कारण यौन शोषण का शिकार होने के लिए उन्हें ही दोषी ठहराता है. अनेक लोग जो हिजाब प्रतिबंध का मुखर समर्थन कर रहे हैं, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थक हैं, जिसके कुछ नेताओं ने पहले जींस और स्कर्ट पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी, या कहा था कि जहां लोग “पारंपरिक मूल्यों” का पालन करते हैं, वहां बलात्कार नहीं होते हैं.

महिलाओं के कपड़ों को या तो यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने वाला या फिर इन्हें भड़काऊ  करार देना दरअसल दोनों पीड़ित पर ही दोष मढ़ने वाले तर्क हैं. ऐसे तर्क महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा की रोकथाम करने, इसके खिलाफ कार्रवाई करने और दोषियों को दंडित करने वाला प्रभावकारी तंत्र, जो उत्तरजीवियों का मददगार हो, को स्थापित करने के कठिन कार्य से बचने का आसान बहाना हैं.

सांप्रदायिक राजनीति में लिप्त होने के बजाय, भारतीय सरकारी तंत्र को चाहिए कि धर्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं शिक्षा के अधिकारों समेत सभी महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा पर ध्यान दे.

(लेखिका ह्यूमन राइटस वॉच दक्षिण एशिया निदेशक हैं)