एम. फारूक़ ख़ान
जयपुर (थार न्यूज़-इक़रा पत्रिका)। 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनाई। इतनी बड़ी सफलता भाजपा को पहली बार मिली। जिसकी सबसे बड़ी वजह तत्कालीन यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार, यूपीए गठबंधन की पार्टियों का सत्ता स्वार्थ, आपसी खींचतान और बिना किसी रणनीति के केंद्र सरकार का संचालन करना रही। इस जीत की दूसरी वजह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरे आरएसएस ने वोटों का ध्रुवीकरण किया।
इन सबके बावजूद दक्षिण भारत के राज्यों केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा आदि में भाजपा को कोई खास सफलता नहीं मिली। यही हाल बंगाल में हुआ, वहां भी भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। इन राज्यों में भाजपा की या आरएसएस की या नरेंद्र मोदी की हार का मुख्य कारण यह था कि इन राज्यों में स्थानीय पार्टियां मजबूत थीं और उनका नेतृत्व करने वाले नेता भी धरातल से जुड़े हुए मजबूत लोग थे। उनके सामने आरएसएस की कोई भी चाल और ध्रुवीकरण काम नहीं आया। लेकिन उत्तरप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार आदि राज्यों में भाजपा को एक तरह से एकतरफा सीटें मिली, यानी इन राज्यों में भाजपा की ऐतिहासिक जीत हुई।
इस ऐतिहासिक जीत के पीछे भी सबसे बड़ी वजह यह रही कि इन राज्यों में स्थानीय पार्टियां मजबूत नहीं थी या इनमें कुछ राज्य ऐसे थे, जहां प्रमुख विपक्षी पार्टी के तौर पर कांग्रेस थी, जिसकी नैय्या पूरी तरह से जर्जर हो चुकी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद पांच साल नरेंद्र मोदी ने एकछत्र राज चलाया, मनमर्जी के फैसले लिए, लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर किया, आनन-फानन में नोटबंदी कर देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया और बिना किसी विशेष तैयारी के जीएसटी लगा दिया। मोदी राज में बेरोजगारी बढ़ी, महंगाई बढ़ी, लेकिन फिर भी 2019 के लोकसभा चुनाव में पहले से ज्यादा बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी को जीत मिली तथा वे दूसरी बार प्रधानमंत्री बने।
नरेंद्र मोदी की इस जीत के पीछे भी दो प्रमुख कारण रहे। एक वोटों का ध्रुवीकरण और दूसरा विपक्षी पार्टियों का बिखराव। जिन राज्यों में स्थानीय पार्टियां और स्थानीय नेता मजबूत थे, वहां 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को कोई विशेष सफलता नहीं मिली, यानी इन राज्यों में 2014 जैसा ही नतीजा रहा। अपवाद के तौर पर कुछ राज्यों में सीटें जरूर बढ़ गई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी विपक्षी पार्टियां और उनके नेता ख्याली पुलाव बना रहे थे, 10-10 और 20-20 सीटें आने की उम्मीद करने वाले स्थानीय नेता भी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे। एक दूसरे की टांग खींच रहे थे।
कुछ राज्यों में विपक्षी पार्टियों का गठजोड़ हुआ, कुछ में नहीं हुआ, कुछ राज्यों में भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ़ विपक्षी पार्टियों की तरफ से तीन या चार उम्मीदवार मैदान में थे। मैदान में थे कहना ग़लत है, बल्कि यह कहना सही है कि इनमें कुछ तो भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए मैदान में तय योजना के तहत उतरे हुए थे। इसका परिणाम यह रहा कि विपक्ष चारों खाने चित हो गए। इस हार के पीछे एक विशेष कारण यह भी रहा कि विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी जो चाहे नाम की बड़ी पार्टी रही है कांग्रेस, जिसके तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी भी अपने आप को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार मान रहे थे और जब मुकाबला राहुल और मोदी के चेहरे में हुआ, तो जाहिर सी बात है जनता ने राहुल गांधी को नकार दिया।
चुनाव के दौरान ही राहुल गांधी ने अपने हाव-भाव और भाषणों से कांग्रेस की नैय्या डुबो दी तथा भाजपा की जीत सुनिश्चित कर दी। अब एक बार फिर 2024 के चुनाव को लेकर विपक्षी पार्टियां, बुद्धिजीवी, सेक्यूलर माइंड पत्रकार एक्टिव हो चुके हैं तथा यह लोग चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी को हरवाया जाए, ताकि देश में सत्ता परिवर्तन हो, लोकतंत्र को बचाया जाए और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण व नफरत के माहौल से देश को छुटकारा दिलवाया जाए। लेकिन यह होगा कैसे ? चुनाव राजनीतिक दलों को लड़ना है और यह दीवार पर लिखी हुई सच्चाई है कि राज नाम के लिए भाजपा का है, पर राज असल में आरएसएस का है तथा आरएसएस देश का सबसे मजबूत संगठन है, सबसे ज्यादा पैसा इसी संगठन के पास है, सबसे ज्यादा समर्पित कार्यकर्ता इसी संगठन के पास हैं।
दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियों के पास समर्पित कार्यकर्ता ना के बराबर हैं, पैसा आरएसएस के मुकाबले बहुत कम है। विपक्षी नेता एक दूसरे के पीछे खड़े होने की बजाए टांग खींचने और खुद विपक्ष का चेहरा बनने की फिराक में है, यानी विपक्ष के करीब एक दर्जन नेता आज यह सोच रहे हैं कि कैसे ना कैसे हम भी प्रधानमंत्री बन जाएं। जबकि इनमें किसी की यह हैसियत नहीं है कि वो 50 लोकसभा सीट भी अपने दम पर जीत ले। इतिहास गवाह है कि 1977 में इंदिरा गांधी को इसलिए हराया जा सका कि विपक्ष एकजुट था, जनता पार्टी के नाम पर। और जनता पार्टी में शामिल नेता बेहद ईमानदार, जुझारू एवं जनहित के लिए सड़कों पर लड़ने वाले थे।
फिर 1989 में जनता दल के नेतृत्व में जनता ने राजीव गांधी की सरकार को उखाड़ फेंका। वीपी सिंह प्रधानमंत्री बनें। उस वक्त भी विपक्ष में ईमानदार, जुझारू एवं जनता के लिए आवाज उठाने वाले अनगिनत नेता थे। लेकिन आज क्या है ? विपक्ष के ज्यादातर नेता भ्रष्ट हैं, वे खुद लोकतांत्रिक नहीं हैं, उनकी पार्टियों में आन्तरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ नहीं है। जनता के बीच में जाने से वे डरते हैं, जनता के हित में सड़क पर उतरकर जद्दोजहद करने की उनमें हिम्मत नहीं है। ऐसी स्थिति में विपक्षी पार्टियां 2024 के लोकसभा चुनाव में क्या खाक मोदी का मुकाबला करेंगे ?
अगर मोदी का मुकाबला करना है, आरएसएस को सत्ता से हटाना है, तो इसका एक ही तरीका है विपक्षी नेता एकजुट होकर एक मजबूत गठबंधन बनाएं, यह गठबंधन नीति व सिद्धांतों पर आधारित हो और उस गठबंधन का एक मुखिया बनाएं, फिर सभी उसके नेतृत्व में एकजुट होकर जनहित के लिए सड़कों पर उतरें तथा मोदी सरकार के जनविरोधी व अलोकतांत्रिक फैसलों के खिलाफ आवाज़ उठाएं। लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं लग रहा है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी जो एक तरह से राजीव गांधी के परिवार की पार्टी है, वह परिवार किसी भी पार्टी के नेता को गठबंधन का मुखिया बनाने के लिए तैयार नहीं होगा तथा राहुल गांधी के नेतृत्व में ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, लालू प्रसाद यादव और प्रकाश करात जैसे नेता खड़े नहीं होंगे।
ऐसी स्थिति में यह बिखरा हुआ, कमजोर व अवसरवादी विपक्ष बिना कुछ किए ही आसानी से अपनी हार अपने हाथों लिख देगा। विपक्षी पार्टियां चुनाव हार जाएं कोई फर्क नहीं पड़ेगा, विपक्ष का कोई नेता प्रधानमंत्री नहीं बने कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन इन विपक्षी नेताओं की सिरफुटव्वल और खुदगर्जी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का खात्मा देगी और देश को 2047 की बजाए वापस 1947 की तरफ धकेल देगी।
सभार थार न्यूज़