फ़ायक़ अतीक़ किदवई
तीन शब्द अक्सर प्रचलित हैं, पहला तुष्टिकरण, दूसरा इस्लामीकरण, तीसरा एडजस्ट नही करते। प्रधानमंत्री जी हर महीने किसी न किसी मंदिर जाते हैं, और कभी गंगा स्नान कभी पूजा कभी आरती करते हुए फ़ोटो आते रहते हैं। संवैधानिक पद पर बैठकर आप ये सब करते है औऱ इसमें पैसा किसका जाता है? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो कपड़े से लेकर कोई ऐसा धार्मिक कार्य नहीं जो न करते हो। अब सरकारी स्कूल/सरकारी अस्पताल/सड़क/फ्लाई ओवर वगैरह की नींव पड़ती है, शिलान्यास में पूजा होती है, अगल बगल मुस्लिम सिख ईसाई खड़े हैं। आप कहते है मुस्लिम एडजस्ट नही करते, जबकि एडजस्ट करने की शुरुवात ही यहीं से हो जाती है।
स्कूल में बच्चे आते है, एक मुस्लिम टीचर की जॉइनिंग होती है, स्टाफ उसे माला पहनाता है बहुत जगह पर माथे पर टीका लगा दिया। प्रेयर में वंदना शुरू हुई, मुस्लिम सिख ईसाई पढ़ रहे है, सरस्वती पूजा हुई सब खड़े है, प्रसाद ले रहे हैं। आपके लिए तो ये सामान्य है, आपको लगता है कि ये तो सामान्य जीवनशैली है। स्कूल में कम्प्यूटर रखे गए फिर पूजा हुई, हर टीचर को नमस्ते कर रहे है। मुस्लिम है तो क्या हुआ नमस्ते करने में क्या चला जायेगा। ज़्यादा सम्मान दिया तो पैर छू लिया। पैर छूने से कोई धर्म थोड़ी भ्रष्ट हो जाता है।
एक सुबह आए तो पता चला विश्वकर्मा पूजा है डिपार्टमेंट के बाहर खड़े है एक स्टाफ आपके कंप्यूटर पर फूल चढ़ाकर आपको एक लड्डू दे देता है, सब सामान्य है। स्कूल में मंत्री जी आ रहे है फिर वहीं माला टीका पूजा अग्नि सब शुरू। नारियल फोड़कर एक डिपार्टमेंट का उद्घाटन कर गए। चूंकि हमें पता है कि हिंदी की तरह उर्दू भी इस प्रदेश की राजभाषा है पर नज़र नही आती, क्यो नही आती? एक दिन सुबह आये और प्यार से एक आदमी चेहरे पर रँग लगा गया, रँग तो मना नही कर सकते वरना कट्टरपंथी हो गए, आपने पूछा होली कब है पता चला हफ्ते भर बाद। होली आ गई घर में दुबके बैठे है कहीं कोई रँग न डाल दे, सड़क पर निकले तो देखा एक बाइक पर तीन तीन लोग धुत्त नशे में लहराते हुए चले आ रहे है, किस मुश्किल से बचते बचाते गाड़ी चलाओ, अगर ट्रेन पर बैठे हों तो खिड़की से रँग अचानक बोगी में आ गया, उल्टा घर ही वाले कह रहे क्या ज़रूरत थी होली में निकलने की। फिर दीवाली आई, धनतेरस, छोटी दीवाली बड़ी दीवाली जमघट। ऑफिस में एक सोनपापड़ी का डिब्बा मिल गया, मैसेज देखा दीवाली भत्ता आ गया। ईद आई बकरीद आई, क्रिसमस आया, लोहड़ी आई किसी में भत्ता नही। अरे दीवाली का मुक़ाबला ये सब कहाँ कर सकते है, भत्ता तो दीवाली के लिए ही होना चाहिए क्योंकि हिन्दू धर्म के लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर है, मुहल्ले में आये तो पता चला कि पड़ोसी से लड़ाई हो गई थाने गए तो उसी थाने में दरोगा साहब पूजा कर रहे हैं और झगड़ा भी धार्मिक मसले पर हुआ है।
कोर्ट पहुँचे तो जज साहब अंदर ही बने मंदिर में माथा टेक कर आ रहे है। घर आये टीवी खोला तो पता चला न्यूज़ चैनल्स वाले चीख रहे है कि जमातियों ने कोरोना जिहाद कर रखा है। चैनल पलटा तो दूसरे पर लव जिहाद चल रहा, तीसरा पलटा तो देखा तीन तलाक चल रहा। चौथा पलटा तो फतवा रजनीति चल रहा। पांचवा पलटा तो देखा तालिबान आइसिस चल रहा। फ़िल्मे देखना शुरू की तो पता चला हर फ़िल्म एक ही विचारधारा को पोषित कर रही, और आगे चैनल्स बढ़ाया तो तकरीबन पंद्रह चैनल्स ऐसे जहाँ हिन्दू बाबा आध्यात्मिक ज्ञान दे रहे लेकिन उसमें भी वो कॉमेडी भरी बात तो कभी बीच में इंग्लिश और कभी पॉलिटिकल हुए जा रहे हैं।
आपने सोचा छोटी जगह पर ऐसा होता है अगर लोग पढ़ लिख जाए तो इन सब चीज़ो से दूर हो जाएं। उसी वक़्त आप देखते है यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गोबर के उपले बना रहे है। चलो ये बड़ी बात नही, राफ़ायल खरीदा गया औऱ पूजा शुरू, नींबू मिर्ची टांग दिए गए। मुस्लिम धार्मिक बहुत है, साल में बीस त्योहार आप मनाए, कोई मुस्लिम ईद मना रहा और उसके धर्म मे शराब मना है पर शराब की दुकान खुलेगी। पर आपका त्योहार तो स्पेशल भावनाओं वाला है त्योहार वाले दिन मीट की दुकानें नही खुलेंगी बल्कि मंदिर के सामने खुलने से आहत हो जाएंगे। मुस्लिम अपने धर्म को लेकर कट्टर है जबकि उन्होंने बारावफ़ात, शबे बारात कूंडे जैसे तमाम त्योहार तो बस खत्म ही कर दिये ले देकर दो या तीन त्योहार बचे है। जबकि आप अपने से तुलना कीजिये, मेरे बचपन में यहाँ लखनऊ में छठ पूजा नही होती थी, गणेश चतुर्थी को मनाते नही देखा, पर अब ज़ोर शोर से होती है। पहाड़ो पर करवा चौथ नही होता था पर अब वहां होता है, हर त्योहार आप धूमधाम से मनाते हैं, होली में शहर लगभग जैसे बंद हो जाता है और धार्मिक हम लोग हो रहे है। आस्था के नाम पर फैसला आप देते है। साड़ी पहनकर हिजाब पर लेक्चर देते है, अरे साड़ी भी तो कंडीशनिंग है, कैसे लोगों को मूर्ख बना सकते है।
यहाँ लखनऊ में कॉलोनी के लगभग आधे पार्कों में मंदिर है नही तो किसी पेड़ के नीचे मूर्तियां रखी है औऱ सुबह शाखा लगती है। हमारा बच्चा कान्हा बनकर स्कूल जा रहा तो बढ़िया है। मैं एक सवर्ण मुस्लिम हूँ सरकार से मुझे कोई स्पेशल बेनिफिट नही मिला पर कभी दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को लेकर सवर्ण हिंदुओ की तरह रोना नही रोया। जब आप दलितों आदिवसियों को हिन्दू मानते है तो ये भी मानिए की आरक्षण का बड़ा लाभ भी हिन्दू ही ले रहे है, केवल ओबीसी आरक्षण मुस्लिम पाते है वरना हिन्दू धोबी SC लेकिन मुस्लिम धोबी Sc नही, मुस्लिम फकीर, कबराज, बंजारा किसी को SC ST कैटगरी में ही नही रखा। बड़ी आसानी से कह दिया कि इस्लाम मे जाति नही होती फिर ये अशराफ और पसमांदा को लेकर रायता क्यो फैलाते हो। मुस्लिम आर्थिक रूप से दलितों से भी कामज़ोर है पर उसे स्पेशल लाभ नही चाहिए बस आप उसकी पहचान मत मिटाइये, वो कोई न कोई काम करके पेट भर लेगा।
पर आप लगातार दिल दुखाते है, कभी नागरिकता को लेकर, कभी देशभक्ति को लेकर, हमेशा शक की निगाह से देखा, हमेशा म्लेच्छ औऱ विदेशी कहा, कभी कटुवा तो कभी मुल्ला। आपको पता है खतना तो यहूदी भी करवाते है औऱ इज़राइल में तो आप मूर्ति पूजा भी नही कर सकते लेकिन हर मुस्लिम देश मे आप पूजा पाठ कर सकते है पर किसी इजराइली को कटुवा कहने की हिम्मत है?
हमारी तरफ जैनियों का दस दिन का प्रोग्राम होता है उस दौरान पुलिस वाले नॉनवेज की दुकानें बंद करवा देते है, जैन गुरु सुबह सुबह बिना कपड़े पहने निकलते है और उसी दौरान लड़कियां स्कूल जाती है पर वो निगाह नीचे करके चली जाती है क्योंकि उन्हें दूसरे धर्म का सम्मान करना आता है, किसी घर वालों ने इसबात का विरोध नही किया। हमारे यहाँ शादी होती है वेज खाने के लिए सैंकड़ो लोगो का इंतिज़ाम करते है ताकि वो हिन्दू असहज न हो जो नॉनवेज नही खाते, आप कहते है हम सामाजिक नही है, आपसे कहीं ज़्यादा हम सामाजिक है। जब आपके पास इन सवालों के जवाब नही होते तो आप पाकिस्तान का उदाहरण देते है क्योंकि आपको पता है कि यहाँ वर्तमान परिस्थितियों पर बात ही नही कर सकते, जैसे पत्नी से तार्किक रूप से हारकर पति को जब कुछ नही मिलता तो वो उसके माता पिता और मायके वालों पर आरोप लगाने लगता है वैसे ही आप बाबर औरंगज़ेब का राग अलापने लगते है।
कल एक साड़ी का पल्लू सर पर डाले, सिंदूर बिछिया पहनें कह रही हम हिन्दू लड़कियां तो आधुनिक हो रही पर मुस्लिम अभी भी धर्म की जड़ में लिपटी है ये वही लोग है जो रामायण आने पर टीवी पर फूल चढ़ाने लगते थे। हिपोक्रेसी की सीमा देखिए 74 प्रतिशत लोग यहाँ नॉनवेज खाते है और नॉनवेज के लिए बदनाम 13 प्रतिशत वाले मुस्लिम है, “अल कबीर” जैसे मुस्लिम नाम रखकर खुद दुनिया भर मे मीट सप्लाई करते है बदनाम मुस्लिम है, तलाक सबसे ज़्यादा खुद लोग देते है बदनाम मुस्लिम है। फर्टीलिटी रेट की गिरावट सबसे अधिक मुस्लिम में है लेकिन बदनाम मुस्लिम है। मुस्लिम पुरुष मुस्लिम महिला की शिक्षा के बीच महज़ 6 प्रतिशत का अंतर है और हिन्दू पुरूष और महिला में 9 से अधिक पर बदनाम मुस्लिम है कि वो अपनी औरतों के साथ भेदभाव करते है। एक आख़िरी बात मुंह न खुलवाये चुप इसलिए नही रहते की कुछ पता नही बल्कि चुप इसलिए रहते है कि समाज मे नफरत न फैले वरना फेसबुक पर कितने बरसो से लिख रहा पर कभी ऐसा लिखने की ज़रूरत नही पड़ी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)