भारतीय क़ानून और लॉकडॉउन की वैधानिकता

डॉ. फर्रुख़ ख़ान एडवोकेट एवं सौम्या मिश्रा एडवोकेट

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अब जबकि पूरा देश लॉकडाउन के बीच फंसा हुआ है, ये ज़रूरी हो गया है कि हम लॉकडॉउन का मतलब, इसकी उत्पत्ति औऱ वैधानिकता के बारे में जानें। हालांकि इस मुद्दे पर तमाम लेख लिखे जा चुके हैं लेकिन इनकी भाषा इतनी ज़्यादा क़ानूनी है कि ये आम आदमी की समझ से परे हैं। मौजूदा हालात में आम आदमी कर्फ्यू, लॉकडॉउन और क्वारंटीन के लगभग एक दूसरे का अनुपूरक समझ रहा है। यही दिक़्क़त कानून लागू करने वाली एजेंसियों, ख़ासकर निचले स्तर के कर्मचारियों की भी है। इस लेख में हम इन शब्दों का क़ानूनी अर्थ समझेंगे और ये ये जानेंगे कि इनको लागू करने में हमारी सरकारों ने क्या घालमेल किया है।

 

लॉकडॉउन

‘लॉकडॉउन’ शब्द का इस्तेमाल 19वीं सदी में ब्रिटेन में शुरु हुआ। बाक़ी तमाम चीज़ों की तरह ये शब्द घूम फिरकर भारत भी आ गया। मौजूदा हालात की तुलना हम 1918 के दैरान स्पेन में एच1एन1 वायरस संक्रमण फैलने की स्थिति से कर सकते हैं। तब शायद पहली बार सार्वजनिक जगहों पर भीड़-भाड़ को क़ाबू करने के लिए लॉकडॉउन की शुरुआत हुई ताकि लोग एक दूसरे के क़रीब न आएं। भारत में लॉकडॉउन को एक देशी नाम ‘जनता कर्फ्यू’ दिया गया है। हालांकि ये शब्द भारत में किसी क़ानून की किताब में नज़र नहीं आएगा।

दुनिया भर में मौजूदा लॉकडॉउन की स्थिति को समझने के लिए हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की बात सुननी पड़ेगी। आईएमएफ की आर्थिक काउंसलर ने इसे ग्रेट यानि ‘महान लॉकडॉउन’ नाम दिया है। उनका कहना है कि इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर जो असर पड़ेगा उसके नतीजे में लगभर 9 ट्रिलियन की नुक़सान होगा। ये जापान और जर्मनी की संयुक्त अर्थव्यवस्था से कहीं ज़्यादा है।

क्या कहता है भारतीय क़ानून?

अगर हम भारतीय क़ानून की बात करें तो इसमें लॉकडॉउन शब्द भले ही न हो लेकिन इन हालात से निपटने के लिए तमाम तरह के प्रावधान हैं। जैसे कि भारतीय दंड संहिता की धारा 269 कहती है कि जानलेवा संक्रामक रोगों को लापरवाही के चलते फैलाने के दोषी को 6 महीने तक की सज़ा हो सकती है। आईपीसी की धारा 270 के मुताबिक़, जानबूझ कर किसी कृत्य से जानलेवा संक्रामक रोग फैलाने के दोषी को दो साल तक कारावास की सज़ा हो सकती है। आईपीसी की धारा 270 में क्वारंटीन नियमों का उल्लंघन करने के लिए 6 महीने तक की सज़ा का प्रावधान है।

महामारी रोग अधिनियम, 1897 की धारा 2 सरकारी अधिकारियों को संक्रामक महामारी को फैलने से रोकने के लिए तमाम तरह की शक्तियां देती है। इसी क़ानून की धारा 3 कहती है कि सरकारी आदेशों का उल्लंघन करने के लिए आईपीसी की धारा 188 के तहत कार्रवाई की जा सकती है।

मौजूदा हालात में जो कार्रवाई हो रही है वो दरअसल इसी महामारी रोग अधिनियम, 1897 की धारा 2 और 3 का नतीजा है। हालांकि आईपीसी की धारा 188 के तहत अधिकतम सज़ा 6 महीने तक के कारावासा की हो सकती है जो मौजूदा हालात में लागू नहीं की जा रही है। तमाम राज्यों में सरकार ने जिस तरीक़े से भी अभी तक लॉकडॉउन लागू किया है वो क़ानून के हिसाब से बहुत ही ढीला-ढाला और लचर है। लॉकडॉउन को ही लोगों ने क्वारंटीन नियम न मानने की सज़ा मान लिया है। ऐसा इसलिए हुआ है कि सरकार ने इमरजेंसी लागू करने की ज़रुरत नहीं समझी है और हालात को ऐसे ही क़ाबू में करने की कोशिश की है। हालांकि गृह सचिव ने लॉकडॉउन लागू करने के संदर्भ में आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 8 का हवाला दिया था।

उपयोगितावादी दृष्टिकोण

जनता का एक बड़ा हिस्सा लॉकडॉउन को मुसीबत मान रहा है क्यों ये उनकी चलने फिरने की आज़ादी छीनता है। संविधान के अनुच्छेद 19 के हमें चलने फिरने की आज़ादी मिलती है। मौजूदा हालात में ये आज़ादी औऱ क़ानून तक़रीबन टकराव की स्थिति में हैं। हालांकि महामारी के मद्देनज़र लॉकडॉउन लागू करने को समझा जा सकता है लेकिन इसके क़ानूनी पहलू समझना भी ज़रुरी है।

उपयोगितावाद का सिद्धांत देने वाले जेरेमी बेंथम कहते हैं कि दर्द और ख़ुशी दो संप्रभु शक्तियां हैं। उनहोंने इस सिद्धांत से जुड़ी 4 अहम बातें बताईं:

  1. हर व्यक्ति निजी फायगे या लाभ की तलास में हैष
  2. सामूहिक तौर पर सभी लोग किसी भी हालात विशेष के बावजूद खुशी चाहते हैं।
  3. अंत में लक्ष्य अधिकतम प्रसन्नता हासिल करना और लोगों को होने वाले दुख को न्यूनतम करना है।
  4. राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वो अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम प्रसन्नता की वजह बने।

 

इन तमाम बातों पर नज़र डालें तो लॉकडॉउन को लागू करने में सरकार की उपयोगितावाद साफ नज़र आता है। इन हालात में अगर हम देखें तो एक वायरय तमाम लोगों के दुख का कारण बना हुआ है। घरों में रहने का दुख स्वस्थ्य रहने की खुशी पर हावी है। इन हालात में सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो लोगों को उनकी निजी प्रसन्नता सभी के सामूहिक हित के बीच का फर्क़ समझाए। हालात कह रहे हैं कि स्वंय के लिए प्रसन्नता की तलाश सामूहिक हितों पर हावी नहीं होनी चाहिए। यही म़ौजूदा लॉक़डॉउन को क़ानूनी बुनियाद मुहैया करा रहा है।

 

(डॉ. फर्रुख़ ख़ान सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं जबिक सौम्या मिश्रा दिल्ली की लीगल फर्म दीवान एडवोकेट्स के साथ बतौर वकील काम कर रही हैं।)