कर्ज और दर्द से कराहते हमारे किसान!

अजय शुक्ल

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

किसानों के आंदोलन का इतिहास ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में शुरू हुआ, तो थमा ही नहीं। मुगल सल्तनत हो या राजे रजवाड़ों का वक्त, किसानों का उत्पीड़न नहीं होता था। अंग्रेजी हुकूमत में मनमानी खेती कराने और लगान वसूलने का विरोध करने पर किसानों पर बल प्रयोग हुआ, मगर घोड़ों के टॉपों और गाड़ियों से कुचला नहीं गया। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी प्राथमिकता में किसान और किसानी को रखा था। उन्होंने किसानों को अधिक उपज के लिए संसाधन उपलब्ध कराने और बांध, नहरें, उर्वरक, उचित भूमि प्रबंधन का संकल्प लिया। कृषि के साथ पशुधन और कृषि प्रसंस्करण उद्यमों को बढ़ावा दे, हरित और दुग्ध क्रांति का आगाज किया। नतीजतन किसानों की दशा सुधरना शुरू हुआ। वो राष्ट्र शक्ति बनकर उभरे। पिछले एक दशक में किसानों और किसानी की हालत बद से बदतर हुई है। अब किसान के साथ जो हो रहा है, वह भारत के इतिहास को कलंकित करने वाला है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का पुत्र अपनी ऐंठ में किसानों पर गाड़ी चढ़वा देता है। नामजद एफआईआर के बाद भी उसकी गिरफ्तारी नहीं होती है। पुलिस जघन्य अपराध के इस मुकदमें के अभियुक्त मंत्री पुत्र आशीष मिश्र मोनू की गिरफ्तारी के बजाय उसे गवाह की तरह (सीआरपीसी की धारा160) का सम्मन भेजती है। दो बार के सम्मन के बाद जब नामजद अभियुक्त पहुंचा भी, तो उसके साथ वकील और केंद्रीय मंत्री का सांसद प्रतिनिधि भी था। पुलिस ने मजिस्ट्रेट को बयान दर्ज करने के लिए साथ रखा, जबकि ऐसा तब होता है, जब अभियुक्त जुर्म स्वीकार कर ले। इन हालात में जांच पर सवाल खड़े होना लाजिमी है। बतौर एडवोकेट, अपराध संवाददाता और वकीलों तथा पुलिस अधिकारी परिवार से होने के बावजूद, हमने पहले कभी ऐसी विवेचना नहीं देखी। सुप्रीम कोर्ट की तीन जस्टिस की बेंच ने भी यूपी पुलिस की इस सहृदयतापूर्ण कार्यवाही पर सवाल उठाया, कि क्या सभी जघन्य मामलों में यूपी पुलिस इसी तरह कार्रवाई करती है?

लखीमपुर जिले में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बयानों का विरोध करने पहुंचे किसानों की जीप से कुचलकर हत्या करने के मामले में उनके पुत्र आशीष मिश्र मोनू मुलजिम हैं। आशीष के इस कृत्य के कारण वहां एक पत्रकार सहित 9 लोगों की मौत हो गई। सरकार के स्तर पर तत्काल आरोपी मंत्री को न तो हटाया गया और न ही नामजद अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया। किसान पहले ही तीन कृषि कानूनों को लेकर पिछले एक साल से आंदोलनरत हैं, जिसमें सात सौ से अधिक किसान शहीद हो चुके हैं। उनके प्रति सत्तारूढ़ दल और उनके समर्थकों में कहीं संवेदना नजर नहीं आती है। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो हम पाते हैं कि देश में हर महीने औसतन 80 किसान आत्महत्या कर लेते हैं। जिसकी तादाद पिछले एक साल में काफी बढ़ी है। अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेश सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 के वित्तीय वर्ष में देश में 52.5 प्रतिशत किसान परिवार कर्ज के दायरे में थे। अन्य रिपोर्ट्स के मुताबिक यह संख्या इस वक्त 60 फीसदी से अधिक है। कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार 68 फीसदी किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम भूमि है, जबकि 86 फीसदी किसान सीमांत और छोटे है। एनएसएसओ के मुताबिक 2012 में औसत एक किसान परिवार की आमदनी करीब 77 हजार रुपये सालाना थी, जो 2019 में 1.22 लाख रुपये हो गई। इस दौरान किसानों पर जो कर्ज 47 हजार रुपये था, वो 86 हजार रुपये हो गया। यही नहीं कर्जदार किसानों की औसत संख्या और कर्ज भी 57 फीसदी बढ़ गया है। भारी महंगाई और लागत में करीब 250 फीसदी का इजाफा हो गया, जिससे किसानों की शुद्ध आमदनी 36 हजार रुपये सालाना ही रह गई है। जिस दौर में देश की जीडीपी 52 फीसदी बढ़ी हो, वहीं किसानों की वास्तविक आमदनी घट गई हो, तो यह चिंता का विषय होना ही चाहिए।

पीएम किसान निधि के लिए पात्र किसान परिवारों की संख्या 14.5 करोड़ है। एमएसपी पर सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि देश के छह फीसदी किसानों को ही एमएसपी मिल पाती है। यही कारण है कि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी को एक्ट में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। कांट्रेक्ट फार्मिंग से अधिकतर राज्यों में किसान पहले से ही बेहाल हैं। पंजाब में आलू किसान हों या हिमाचल में सेब और टमाटर के किसान, मध्य प्रदेश में गेहूं किसान हों या फिर हरियाणा में धान के किसान, सभी को ठेके पर लेने वाली कंपनियों ने ठगा है। ऐसे में सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग का एक्ट ठेकेदार के समर्थन में बनाकर भूमि और फसल दोनों के लिए संकट खड़ा कर दिया है। अन्न खरीद और भंडारण को मुक्त बाजार को सौंपकर भी सरकार ने किसानों सहित देश वासियों के खाद्य आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है। इसमें कारपोरेट का अधिपत्य होने से देशवासियों का निवाला भी खतरे में पड़ गया है। यही वजह है कि किसान इन तीनों कानूनों को रद्द कराने के लिए पिछले एक साल से आंदोलनरत हैं। पहले ही किसानी नुकसान का व्यवसाय है। किसानों की जोत लगातार घट रही है और कर्ज बढ़ रहा है, जिससे वो आर्थिक संकटों में फंसे हुए हैं। यही उनकी आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण भी है। किसानी की लागत तेजी से बढ़ी है, उसके मुकाबले उनकी आमदनी नहीं बढ़ी। इससे उनका घाटा लगातार बढ़ रहा है। सरकारी अनुदान उसकी भरपाई करने में सहायक नहीं हो पा रहा है क्योंकि सरकार बीमा योजना सहित तमाम अन्य माध्यमों से जो बजट बीमा कंपनियों को दे रही है, उसके मुकाबले किसान के नुकसान की क्षतिपूर्ति नहीं होती है। किसानों और सरकार दोनों के धन से फायदा कारपोरेट कंपनियों को हो रहा है। इनके बाद दूसरा संकट यह है कि अपने साथ होते अन्याय पर आवाज उठाने वाले किसानों को लाठी खाने के साथ ही गाड़ियों से कुचल कर मार दिया जाता है।

हम सभी को याद है कि यूपीए सरकार में जब यही कृषि संशोधन विधेयक लाने की कोशिश तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने की थी, तो संसद में न सिर्फ भाजपा ने बल्कि कांग्रेस के भी तमाम सदस्यों ने विरोध किया था। नतीजतन डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने उसे वापस ले लिया था। इस बार बगैर किसी चर्चा और बहस के ये तीनों कानून लाद दिये गये, जिससे उसका विरोध होना लाजिमी है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में काले झंडे दिखाना और विरोधी नारे लगाना कोई अपराध नहीं है। शांतिपूर्ण आंदोलन करने वाले किसानों पर गाड़ी चढ़ाकर मार देना, निश्चित रूप से क्रूरतम अपराध है। अगर हमारा विपक्ष संजीदा और सजग न होता, तो शायद सरकार इस घटना के सच को दबा देती। विरोधी आवाज ने उसे कार्रवाई के लिए मजबूर किया है। अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी सख्त रुख अपनाया है। इसके बाद भी सरकार जांच के नाम पर ढुलमुल रवैया अपना रही है। देश सरकार से उम्मीद करता है कि वह किसानों को न सिर्फ कर्ज से बचाये बल्कि हमलों से भी बचाये। वह उनका हक छीनने वाले कानूनों को लेकर हठधर्मी की नीति न अपनाये बल्कि उनकी मर्जी के मुताबिक कार्यवाही करे। जब ऐसा होगा, तो किसान भी सलामत रहेगा और किसानी भी। अगर किसानी खतरे में पड़ी, तो तय है कि देश भुखमरी का शिकार होकर एक बार फिर से विदेशियों के आगे दो वक्त की रोटी के लिए भिखारी बन जाएगा।
जय हिंद!

(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक-मल्टीमीडिया हैं, उनसे ajay.shukla@itvnetwork.com पर संपर्क किया जा सकता है)