दुनिया की बदसूरती से डर लगता हो तो एक दिलरुबा हमेशा अपने भीतर रखिये!

अमरुद्दीन के पिता संगीतज्ञ थे और खूबसूरत नीली मस्जिद वाले अफ़ग़ानिस्तान के शहर मज़ार-ए-शरीफ़ में उनकी संगीत उपकरणों की दुकान थी. बचपन से ही संगीत के प्रति अमरुद्दीन की गहरी दिलचस्पी देख पिता ने उन्हें देश के शीर्षस्थ संगीतकारों में गिने जाने वाले ग़ज़ल गायक उस्ताद रहीम बख्श के पास भेजा. उस्ताद ने अमरुद्दीन को दिलरुबा बजाना सिखाया. पहाड़ी ऊंचाइयों पर उगने वाले शहतूत के कठोर तने से बनाए जाने वाले इस उपकरण की जड़ें सिख धर्म में हैं. बताया जाता है तीन सौ बरस पहले गुरु गोविन्द सिंह ने इसे मयूरी वीणा के आधार पर रचा था. इसका आकार ऐसा बनाया गया कि गुरु की फ़ौज के घुड़सवारों को इसे लाने-ले जाने में असुविधा न हो.

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

अमरुद्दीन ने बहुत जल्दी दिलरुबा बजाने में प्रवीणता हासिल कर ली और सरकारी रेडियो स्टेशन ने उन्हें कलाकार के तौर पर रख लिया. 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत कब्ज़े के कारण बहुत से पारम्परिक संगीतकारों का करियर तबाह हो गया था लेकिन अमरुद्दीन की कला इस दौर में और ज़्यादा निखरी. अगले दस-पंद्रह वर्षों में वे दिलरुबा के सबसे बड़े खलीफ़ा बन गए और बाकायदा उस्ताद कहलाये जाने लगे.

1989 में देश पर मुजाहिदीन के कब्ज़े के साथ ही संगीत पर तमाम तरह की पाबंदियां लग गईं. महिलाओं के लिए संगीत प्रतिबंधित कर दिया गया और बहुत सारे संगीतकारों को देश छोड़ कर जाना पड़ा. मजबूरी में उस्ताद अमरुद्दीन को अपनी खानदानी दुकान में रखे सैकड़ों रबाबों, पंदूरों, दिलरुबाओं और तबलों को या नष्ट करना पड़ा. अच्छे दिनों के लौटने की उम्मीद में अपने कुछ पसन्दीदा उपकरणों को उन्होंने ज़मीन में गाड़ दिया.

उस्ताद अमरुद्दीन छियासठ साल के हो चुके थे. ऐसे मुश्किल समय में उन्होंने मज़ार-ए-शरीफ़ छोड़कर उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में जा बसने का फ़ैसला लिया. उन्हें लगा उतनी दूर मुजाहिदीन या तालिबान की निगाह उन पर नहीं पड़ेगी और वे अपनी संगीत साधना जारी रख सकेंगे. मगर ऐसा नहीं हुआ. गिरफ़्तारी से बचने के लिए उनके पास देश छोड़ने अलावा कोई विकल्प नहीं था.

उस्ताद अपने पिता को संसार का सबसे बड़ा दिलरुबा-वादक मानते थे इसलिए देशनिकाले के सफ़र में वे अपने साथ जो इकलौता वाद्य लेकर चले वह उनके पिता का दिलरुबा था. जगह-जगह पड़ने वाली चौकियों के पहरेदारों की निगाहों से बचाने के लिए उन्होंने उसके तार-वगैरह उखाड़ दिए थे. दो-चार दिन तक का सफ़र ठीक रहा. शहतूत की पुरानी पड़ चुकी लकड़ी के उस टुकड़े पर किसी को शक न हुआ. हेरात पहुँच कर एक युवा पहरेदार ने उसे पहचान लिया और उसे उन्हीं की कार पर दे मारा. उसकी नज़र बचाकर उस्ताद ने चकनाचूर हो चुके दिलरुबा की लकड़ी का एक टुकड़ा जेब में छिपा कर रख लिया.

जैसे-तैसे पेशावर पहुंचे जहां अफ़ग़ानिस्तान से आए हज़ारों शरणार्थी पहले से रह रहे थे. कई महीनों बाद पेशावर में उन्हें विलायत खां नाम का एक युवा अफ़ग़ान मिला जिसका ख़ानदान सैकड़ों बरसों से रुबाब बनाता आ रहा था. रुबाब का आविष्कार सातवीं शताब्दी में अफ़ग़ानिस्तान में हुआ था. पंद्रहवीं शताब्दी में गुरु नानक के साथी भाई मरदाना ने इसे सिख धर्म का हिस्सा बनाया और गुरबानी गाने वाले लोग रुबाबी कहलाए. ‘जंजीर’ फिल्म में शेर खान बने प्राण यारी वाले गाने में इसी को बजाते दिखाए गए हैं. खैर. विलायत खां ने उस्ताद के लिए काबुल के खराबात से ख़ास शहतूत की लकड़ी स्मगल करवाई और दिलरुबा बना कर दिया.

खराबात पुराने काबुल का वह मोहल्ला था जहाँ हिन्दू और सिखों के अलावा तमाम अफ़ग़ान संगीतकार रहते आये थे. एक समय ऐसा था जब खराबात के हर घर से दिन भर रियाज करते संगीतकारों के गाने-बजाने की आवाजें हवा में तैरा करती थीं. अमरुद्दीन के उस्ताद रहीम बख्श के अलावा यह इलाका उस्ताद मोहम्मद हुसैन सराहंग का भी था जिन्होंने पटियाला घराने की गायकी को अफ़ग़ानिस्तान की प्रतिनिधि संगीत परम्परा का हिस्सा बनाया था. सराहंग तो सोलह साल तक पटियाले में  ‘द लाइट ऑफ़ पंजाब’  के नाम से जाने जाने वाले उस्ताद आशिक़ अली खां के शागिर्द रहे थे. 1990  के दशक में मुजाहिदीन और तालिबान के बीच होने वाली बमबारी में खराबात पूरी तरह खंडहर बन गया था.

उस्ताद अमरुद्दीन ने पेशावर में दिलरुबा बजाना शुरू किया उसे बजाने वाले वे इकलौते विशेषज्ञ बचे थे. 2001 में जब तालिबान की पराजय हुई और हालात सुधरे वे अफ़ग़ानिस्तान लौट आए और अपने खंडहर हो चुके घर में नई पीढ़ी को दिलरुबा सिखाने लगे. कभी-कभी घर के दालान में वे राहगीरों के लिए बाकायदा कंसर्ट भी दे दिया करते थे.

तालिबान के प्रस्थान के समय काबुल रेडियो के स्टूडियो में कुल तीन साज़ बचे थे – एक रबाब, एक सारिन्दा और तबले की एक जोड़ी. काबुल वापस लौटे सवा सौ संगीतकारों में से सिर्फ एक को सारिन्दा बजाना आता था. उनका नाम था मशीनाई. मशीनाई नाम के पीछे की कहानी कम दिलचस्प नहीं.

अब्दुल रशीद के पिता भी सारिन्दा बजाते थे. पिता को बजाता देख-देख कर बालक अब्दुल रशीद ने खुद ही ऐसी महारत हासिल की कि उनकी बजाई किसी भी धुन की हू-ब-हू नक़ल कर लेते थे – जैसे उनके भीतर कोई मशीन लगी हो. लोगों ने उन्हें संगीत की मशीन कहना शुरू कर दिया. मशीन माने मशीनाई.

मशीनाई ने तालिबान शासन के दौरान काबुल नहीं छोड़ा. मुजाहिदीन की आपसी लड़ाई में उनका बेटा मारा गया और घर बर्बाद हो गया. तालिबान ने उनके सारे सारिन्दे और बाकी वाद्य यंत्र भी तोड़ डाले. अगले पांच सालों तक परिवार का पेट पालने के लिए मशीनाई को काबुल बाज़ार में कसाई का धंधा करना पड़ा. तालिबान गए तो काबुल रेडियो पर इकलौते बचे सारिन्दे को बजाने के काम मशीनाई ने ही करना था क्योंकि उसे बजा सकने वाले वे अकेले बचे थे.

इतिहास गवाह है युद्ध और नफ़रत ने सबसे पहले सुर और शब्द को अपना निशाना बनाया है. इतिहास गवाह है सुर और शब्द किसी भी सत्ता के मारे नहीं मरते – चाहे इक़बाल बानो का गाया फैज़ हो, चाहे उस्ताद अमरुद्दीन और मशीनाई की बजाई सरगम. दुनिया की बदसूरती से डर लगता हो तो एक दिलरुबा हमेशा अपने भीतर रखिये.