मुकेश असीम
कर्नाटक हाईकोर्ट ने हिजाब पर पाबंदी लगाने को सही ठहरा दिया। जजों ने फैसला उस संविधान के आधार पर नहीं सुनाया, देश को जिसके मुताबिक चलता बताया जाता रहा है। जजों ने यह नहीं बताया कि नागरिकों के बुनियादी हक क्या हैं, उनको कितनी आजादी है और सरकार उसमें कितना दखल दे सकती है। जजों ने यह नहीं बताया कि उन अधिकारों के मुताबिक सरकार हिजाब पर पाबंदी लगा सकती है या नहीं। कुल मिलाकर जजों ने जनतंत्र की बुनियाद बताये जाने वाले संविधान को मुअत्तल कर दिया है।
इसके बजाय जजों ने फतवा जारी किया है कि इस्लाम में हिजाब जरूरी नहीं है। धर्म में क्या जरूरी है, क्या नहीं, ये काम तो पुजारियों, मौलवियों, पादरियों का था न? अब तक मौलवी फतवा जारी करते थे कि इस्लाम के मुताबिक क्या सही है, क्या नहीं। जजों ने अब उनकी जगह ले ली है।
जो ‘जनवादी/सेकुलर’ तर्क से हिजाब के विरोध में हैं वो भी इस अदालती फैसले के खतरनाक पहलुओं को समझ कर प्रतिक्रिया दें तो बेहतर है। जज कह रहे हैं कि नागरिकों के अधिकार वही हैं जो ‘धर्म के मुताबिक चलने वाली’ सरकार कहे और माने। आप किसी संविधान/कानून के आधार पर किसी अधिकार का दावा नहीं कर सकते। आप इस फैसले को सही ठहराते हैं तो सोच लें कि कल मनुस्मृति के अनुसार हिंदू धर्म में छुआछूत को आवश्यक मान कोर्ट इसके अनुसार व्यवहार का हुक्म दे सकता है, कह सकता है कि ‘अछूतों’ का किसी भी सार्वजनिक संस्था में जाना प्रतिबंधित है क्योंकि हिंदू धर्म के अनुसार ब्राह्मण अपवित्र हो जायेंगे। धर्म में ऐसा जरूरी है तो यही कानूनन सही है।
कुल मिलाकर अगर आप इस फैसले को सही मानते हैं तो आप हिंदू राष्ट्र के हिमायतियों की कतार में खडे हैं। उधर सबसे पुराने व श्रेष्ठ जनतंत्र बताये जाने वाले ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट ने अमरीका को सौंपे जाने के खिलाफ जूलियन असांजे की अपील को सुनवाई लायक तक नहीं माना। कोर्ट राजसत्ता की संस्था है, न्याय करने वाली नहीं। उसका फैसला शासक वर्ग के हित में होता है, आपकी कल्पना के किसी सुनहरे न्याय के सिद्धांत से नहीं। यही पूंजीवादी व्यवस्था का जनतंत्र है।