प्रशांत भूषणः अगर सच को सच कहना कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट है तो हम हर रोज़ कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट करेंगे

श्याम मीरा सिंह

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प्रवासी मजदूरों के संकट के दौरान कुछेक वकील और पत्रकार ही बचे थे जो प्रवासी मजदूरों के मानवीय अधिकारों के पक्ष में कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। प्रशांत भूषण उन गिने चुने नामों में से एक हैं। लॉकडाउन के बाद उपजे प्रवासी संकट के दौरान कई पिटीशन डाली गईं। ताकि सरकार नहीं तो कम से कम अदालत प्रवासी मजदूरों के मानवीय अधिकारों पर संज्ञान ले। लेकिन माननीय न्यायालय ने उनमें से किसी भी पिटीशन को अपना बहुमूल्य समय नहीं दिया। पैदल चलते मजदूरों पर लाठियां तोड़ी जा रहीं थीं, जिन्होंने मास्क नहीं पहने हुए थे वे पुलिस के कोप का शिकार हो रहे थे। उसी दौरान भारत की उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की एक तस्वीर वायरल हुई, लाखों रुपए की लग्जिरियस बाइक पर मुस्काते जज साब की तस्वीर मौजूदा वक्त के हिसाब से एकदम अश्लील लग रही थी। वह भी बिना मास्क के। ये वही वक्त था जब आम आदमी के पास मास्क न होने पर चालान तो कट ही रहा था, प्रसाद के रूप में लाठियों भी मिल रहीं थीं। इसपर प्रशांत भूषण ने एक ट्वीट लिखा जिसका मोटा-माटी अर्थ ये था कि बाइक भाजपा नेता की है और CJI बिना मास्क के हैं। वह भी उस टाइम जबकि उनपर प्रवासी मजदूरों की समस्या सुनने के लिए वक्त नहीं है।

ये ट्वीट माननीय जज साहब को इतना नागवार गुजरा कि संवैधानिक खिड़की में खड़े होकर अपने आलोचकों से बदला ले रहे हैं। इस एक ट्वीट के लिए भूषण पर कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट लगा दिया गया। जिसपर सुनवाई हुई, और आज अदालत ने प्रशांत भूषण को इस ट्वीट के लिए दोषी भी मान लिया है। मतलब प्रशांत भूषण को इस ट्वीट के लिए सजा मिलना, अब लगभग तय है।

असल में प्रशांत भूषण ये सजा “कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट” के कारण नहीं झेल रहे हैं बल्कि “कंटेम्प्ट ऑफ गवर्नमेंट” के लिए झेल रहे हैं। प्रशांत उन गिने चुने बचे हुए लोगों में से एक हैं, जिन्होंने सरकार की नाकामियों को “सरकार की सफलता” कहना नहीं चुना। बाकी एक्टिविस्टों को पहले ही UAPA और सेडिशन के झूठे केसेज के थ्रू टारगेट किया जा रहा है। विपक्ष को CBI और ED के थ्रू टाइट पहले ही टाइट कर लिया गया है। जो लोग बचे हुए हैं, उन्हें इनडाइरेक्टली न्यायपालिका के थ्रू टाइट किया जा रहा है।

जिस अमेरिका से भारतीय संविधान ने न्यायपालिका का आधुनिक कॉन्सेट लिया है वहां भी कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट को Undemocratic मानकर पीछे छोड़ दिया गया है। जिस ब्रिटेन से भारत के संविधान का अधिकतर हिस्सा लिया गया है उस ब्रिटेन में भी कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट से आगे की चीजें इवॉल्व हो चुकी हैं। लेकिन भारत में ये चीज अब भी बराबर सम्भालकर रखी जा रही है, शायद इसलिए भी कि हमें मैच्योर डेमोक्रेसी की ओर नहीं जाना, बल्कि हमें तो सऊदी बनना है।

लेकिन मन में एक सवाल आ रहा है कि एक भ्रष्ट आदमी को भ्रष्ट कहने से हमारे संविधान का कौन सा आर्टिकल हमें रोकता है? संविधान के जिस आर्टिकल 129 के तहत कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट लगाया जाता है वह भी न्यायालय की कंस्ट्रक्टिव आलोचना की अनुमति देता है। फिर भूषण को किस आधार पर दोषी ठहराया गया है? आप मानिए न मानिए लेकिन हम पर ऐसा वक्त आ चुका है जब धीरे धीरे एक पार्टी और न्यायपालिका के बीच की लकीरें मिट चुकी हैं। सरकार की अवमानना ही, न्यायपालिका की अवमानना है। दुष्यंत कुमार ने सही ही कहा था-

“मत कहो आकाश में कोहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है”

लेकिन जज साहब इस बात को जान लें कि अगर सच को सच कहना कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट है तो हम हर रोज कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट करेंगे। आपको जेल में डालना है, डालिए। हम भी देखते हैं आपकी जेल कितनी बड़ी हैं। इस देश के नागरिकों का न्यायपालिका से विश्वास प्रशांत भूषण के एक ट्वीट से नहीं डिगता है, बल्कि अदालत के ऐसे मनमाने फैसलों से डिगता है।

(लेखक युवा पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)