पलश सुरजन
उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और विधायक आज़म खां हाल ही में 27 महीनों की जेल के बाद जमानत पर रिहा हुए हैं। उन्हें 89 अलग-अलग मामलों में जमानत की प्रक्रिया में एक लंबा अरसा लगा। आज़म खां के साथ राजनैतिक बदले की भावना से कार्रवाई हो रही है या बात कुछ और है, इसका खुलासा तो शायद ही कभी हो। लेकिन ये बात ज़रूर ज़ाहिर हो गई कि हमारे देश में न्यायिक प्रक्रिया कितनी उलझी हुई है और इसकी कमज़ोर कड़ियों का कितना फ़ायदा ताक़तवर लोग उठा सकते हैं।
आज़म खां ने हाल ही में बयान दिया है कि उन्हें पुलिसवालों ने ही अंडरग्राउंड होने की सलाह दी, क्योंकि उन पर बहुत सारे मुकदमे दर्ज हैं और उनका एनकाउंटर हो सकता है। आज़म खां ने अपनी जान को ख़तरा बताया है, तो यह डर अकारण नहीं है, क्योंकि उत्तरप्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद न्याय व्यवस्था में सख़्ती के नाम पर मुठभेड़ों का चलन बढ़ गया है। बिकरू कांड और उसके बाद विकास दुबे की मुठभेड़ में मौत उप्र की कानून व्यवस्था पर बड़ा सवालिया निशान है। और ऐसे निशान उप्र के अलावा भी देश के कई और राज्यों में लगे हुए हैं।
हाल ही में हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों से मुठभेड़ को सिरपुरकर कमीशन की रिपोर्ट ने फर्जी करार दिया है। इस मुठभेड़ में चारों आरोपियों की मौत हो गई थी। गौरतलब है कि वर्ष 2019 में 25 वर्षीया पशु चिकित्सक से बलात्कार के आरोपियों का एनकाउंटर एनएच 44 पर उस वक़्त हुआ था जब पुलिस इन आरोपियों के साथ घटना स्थल पर पहुंच कर वारदात का दृश्य दोहरा रही थी। पुलिस का कहना था कि आरोपियों ने इस दौरान पुलिसकर्मियों से हथियार छीनकर भागने की कोशिश की थी। इसी दौरान पुलिस की जवाबी कार्रवाई में चारों आरोपी मारे गए। इन चारों आरोपियों के मुठभेड़ में मारे जाने पर तेलंगाना के तत्कालीन कानून मंत्री इंद्रकरण रेड्डी ने इसे भगवान का न्याय बताया था। उन्होंने इस मुठभेड़ के लिए राज्य पुलिस की पीठ थपथपाई थी। वहीं इस मौके पर बहुत से लोगों ने पुलिसवालों पर फूल बरसाकर उनका अभिनंदन किया था।
देश में मिसालें दी जाने लगीं कि हैदराबाद की तरह त्वरित न्याय की जरूरत है, तभी बलात्कार जैसे मामले रुकेंगे। हालांकि अब तक ऐसा कोई उदाहरण सामने नहीं आया है, जिससे साबित हो सके कि मुठभेड़ में मारे जाने या फिर फांसी जैसी कड़ी सजा मिलने के डर से महिलाओं के विरुद्ध अपराध या बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में कोई कमी आई हो। ऐसे जघन्य अपराध तभी रुक सकते हैं, जब समाज में लैंगिंक समानता को हर तरह से बढ़ावा दिया जाए। इस दिशा में जब तक बड़े कदम नहीं उठाए जाएंगे, लड़कियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहेगा, तब तक उनके साथ अपराध होने का डर भी बना रहेगा।
बहरहाल, जिस हैदराबाद मुठभेड़ को त्वरित न्याय करार दिया गया था, उसे अब जांच आयोग ने न केवल गलत बताया है, बल्कि उसमें शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या का मामला चलाने की सिफ़ारिश भी की है। आयोग ने कहा है कि पुलिस के दावे विश्वास योग्य नहीं हैं और मौके पर मिले सबूत भी इनकी पुष्टि नहीं करते। अब पुलिसवालों पर किस तरह की कार्रवाई होती है, और क्या उन्हें सजा मिलती है, ये तो बाद में पता चलेगा। लेकिन सवाल ये है कि क्या इससे हमारी न्यायिक व्यवस्था की खामियां दूर हो जाएंगी।
अदालतों में चलने वाली लंबी, जटिल कानूनी प्रक्रियाएं और पुलिस का रौब समाज के गरीब, कमजोर लोगों को पहले ही भयभीत करके रखता है। उस पर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की कोई दिलचस्पी पुलिस और न्यायिक सुधारों में नहीं दिखती। और समाज अक्सर तमाशबीन की भूमिका में ही होता है। उसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी निर्दोष को उसकी जाति, धर्म, या सामाजिक हैसियत के कारण जान गंवानी पड़ती है।फर्जी मुठभेड़ों के कई उदाहरण इसी सदी में देश के सामने आए हैं। गुजरात में सोहराबुद्दीन शेख तुलसीराम प्रजापति, इशरत जहां ऐसे कई लोगों की मुठभेड़ों में मौत हुई और इन पर पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे। कानूनी प्रक्रिया भी चली, लेकिन न्याय पूरा नहीं हुआ।
हैदराबाद में भी जिन चार लोगों ने पुलिस की गोली से जान गंवाई है, वो तो अब किसी तरह वापस नहीं आ सकती। मानवाधिकार कार्यकर्ता कई बार मुठभेड़ों की प्रवृत्ति पर चिंता जतला चुके हैं। वैसे भी अगर न्याय से पहले ही अभियुक्तों को मार दिया जायेगा, तो फिर अदालतों की ज़रूरत क्या रहेगी। आरोपी अगर पुलिस की गिरफ्त से भागने की या उस पर हमले की कोशिश करे, तो पुलिस वालों को इतना प्रशिक्षण तो मिला ही होता है कि वे ऐसी जगह गोली चलाएं, जिससे आरोपी घायल तो हो, लेकिन मरे नहीं। इस तरह जांच भी अंतिम मुकाम तक पहुंच सकेगी। बीच में ही गोली मारकर जान ले लेने से इंसाफ़ हमेशा अधूरा ही रहेगा। और अधूरा इंसाफ कानून व्यवस्था को न कभी मजबूत बनाएगा, न भरोसेमंद।
(लेखक देशबन्धु के संपाद हैं)