अमेरिका के निशाने पर भारत ही क्‍यों?

अमित शुक्ला

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यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देश रूस को अलग-थलग करने पर अमादा हैं। वो तरह-तरह की पाबंदियों से रूस के पैरों में बेड़‍ियां डाल देना चाहते हैं। संयुक्‍त राष्‍ट्र में उसके खिलाफ कई प्रस्‍ताव लाए जा चुके हैं। ज्‍यादातर देशों ने इन प्रस्‍ताव के समर्थन में वोट किया है। वहीं, ऐसे देश भी हैं जो न्‍यूट्रल हैं। इनमें भारत भी शामिल है। ये देश संयुक्‍त राष्‍ट्र में रूस के खिलाफ लाए गए प्रस्‍तावों पर वोट डालने से बचते रहे हैं। यह अलग बात है कि भारत को यह रुख बनाए रखने के लिए अमेरिका की जितनी धमकियों और दबाव को सहना पड़ा है उतना दूसरे देशों के साथ नहीं हुआ। दक्षिण अफ्रीका, इजरायल, संयुक्‍त अरब अमीरात, तुर्की, चीन… ऐसे देशों की लंबी फेहरिस्‍त है जो किसी एक की पक्षदारी करने से बचे हैं। आखिर भारत पर ही अमेरिका का खूंटा पकड़ने का इतना दबाव क्‍यों है? आइए, यहां इस बात को समझते हैं।

सोवियत का हंगरी (1956), चेकोस्‍लोवाकिया (1968) या अफगानिस्‍तान (1979) में हस्‍तक्षेप हो या 2003 में अमेरिका का इराक पर हमला, भारत हमेशा ही करीब-करीब इस लाइन पर चला है। यह लाइन देश के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय से खिंची हुई है। भारत में भले सरकारें अदलती-बदलती रही हों। लेकिन, विदेश नीति में उसका रुख कमोबेश नहीं बदला। वह हमेशा शांति का पक्षधर रहा। हालांकि, दूसरों को अपनी तरह चलने का कभी जोर नहीं डाला। न ही वह खेमेबाजी में फंसा।

यूक्रेन पर हमले के बाद रूस की आलोचना कर उस पर प्रतिबंधों की पैरोकारी करने में अमेरिका के सुर में सुर न मिलाने वाले देशों में सिर्फ भारत ही नहीं है। कई प्रमुख अर्थव्‍यवस्‍थाओं और यहां तक अमेरिका के ही तमाम सहयोगी देशों ने भी अपना रुख अलग रखा है। हालांकि, अमेरिका ने अपने पाले में खड़ा दिखने के लिए उन पर भारत जितना दबाव नहीं बनाया।

दुनिया की प्रमुख अर्थव्‍यवस्‍थाओं में दक्षिण अफ्रीका ने भी रूस की निंदा करने वाले प्रस्‍ताव पर वोटिंग नहीं की। खाड़ी में अमेरिका का करीबी सहयोगी संयुक्‍त अरब अमीरात भी सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ वोट देने से दूर रहा। पश्चिम एशिया में अमेरिका के सहयोगी इजरायल ने हमले के लिए रूस की निंदा की। लेकिन, प्रतिबंधों की पैरोकारी से बचा। नाटो का हिस्‍सा तुर्की भी यही करते पाया गया। फिर सारी आलोचना भारत की ही क्‍यों? अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडन हों या अमेरिका के डिप्‍टी नेशनल सिक्‍योरिटी एडवाइजर दलीप सिंह दोनों ने ही भारत को चेतावनी दी।

भारत को ही टारगेट करने का क्या कारण है?

यह सोची समझी रणनीति का हिस्‍सा है। अमेरिका के ऐसा करने के पीछे मुख्‍य रूप से तीन कारण हो सकते हैं। इनमें राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक कारण शामिल हैं। राजनीतिक नजरिये से देखें तो यहां नैरेटिव की लड़ाई भी चल रही है। पश्चिम व्‍लादिमीर पुतिन को विलेन की तरह पेश करने की कोशिश करना चाहता है। वह इस हमले को तानाशाह की सनक के तौर पर दिखाने के प्रयासों में जुटा है। वह दुनिया को मैसेज देना चाहता है कि यह लड़ाई लोकतंत्र बनाम तानाशाही के बीच है। ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत ही बाहर रहे तो अमेरिका का नैरेटिव कमजोर दिखने लगता है।

अब आर्थिक पहलू को समझते हैं। रूस पर प्रतिबंध मुख्‍य रूप से पश्चिमी देशों ने लगाए हैं। सिर्फ तीन एशियाई देशों ने इन प्रतिबंधों का समर्थन किया है। इनमें जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर शामिल हैं। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था चीन रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों से नहीं बंधेगा। दूसरे शब्‍दों में वह अमेरिकी हुक्‍म की तामील नहीं करने वाला है। भारत भी अगर रूस के साथ कारोबार करना जारी रखता है तो रूसी अर्थव्‍यवस्‍था पर प्रतिबंधों की धार का असर न के बराबर रहेगा।

तीसरा पक्ष रणनीतिक है। शीत युद्ध के बाद यह सबसे नाजुक समय है। कोरोना की महामारी के बाद से दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के पहिए पहले ही धीरे घूम रहे हैं। वहीं, भारत ने पिछले कुछ दशकों में अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ अपने रणनीतिक संबंधों को मजबूत किया है। रूस के साथ भी भारत के संबंध अच्‍छे रहे हैं। हाल में कभी भी ऐसा मौका नहीं आया जब इन रिश्‍तों को तराजू पर तौला जा सके।

हालांकि, यूक्रेन पर हमले के बाद रूस और पश्चिमी देशों में दरार पड़ गई है। भारत जैसे देशों पर किसी एक को चुनने की तलवार लटक गई है। वो कठिन स्थितियों में खड़े हो गए हैं। भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन को काउंटर करने के लिए अमेरिका भारत को बड़े विकल्‍प के तौर पर देखता है। हालांकि, अमेरिका यह भी अपेक्षा करता है कि भारत अपनी रणनीतिक स्‍वायत्‍तता को छोड़ पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हो जाए। यह अब तक नहीं हुआ है।

क्‍या सोचता है भारत?

रूस हो या अमेरिका, भारत किसी भी सुपरपावर की कठपुतली नहीं बनना चाहता है। अलबत्‍ता वह खुद ही एक तरह की पावर बनने की राह पर है। वह अपनी नीतियों पर चलता रहा है। इसमें सबसे ऊपर राष्‍ट्रीय हितों को रखा गया है। भारत सोचता है कि न्‍यूट्रल स्‍टैंड रखना ही मौजूदा माहौल में सबसे अच्‍छा है। इसके चलते वह दोनों पक्षों से बातचीत के चैनल खुले रख सकता है। न्‍यूट्रल रहने का यह कतई मतलब नहीं है कि वह किसी भी तरह से युद्ध की पैरोकारी करता है। भारत का अहम रणनीतिक साझेदार अमेरिका फिलहाल इसी पहलू को शायद समझ नहीं पा रहा है। अमेरिका के बयानों से तो यही दिखता है।

सभार नवभारत टाइम्स