शकील हसन शम्सी
दो साल बाद अल्लाह के करम से वो दिन आ रहा है कि हम एक दूसरे को गले लगा सकेंगे,वर्ना गले मिलना तो दरकिनार हाथ मिलाना भी मुश्किल था। इस बार कोरोना का ज़ोर तो कम है मगर सांप्रदियकता की वबा का साया कहीं कहीं पर नज़र आ रहा है। देश के कुछ हिस्सों में फैलाई गई कटुता के कारण जो अप्रिय घटनाएं हुईं और जिस तरह बग़ैर किसी एफ़ आई आर , बग़ैर किसी चार्ज शीट, बग़ैर किसी अदालती कार्रवाई और बग़ैर सफ़ाई का मौक़ा दिए कुछ जगहों पर बुलडोज़र चला दिए गए और जिस तरह हिजाब, हलाल गोश्त और मस्जिदों के लाऊड स्पीकर वं को लेकर एक मुहिम चलाई गई उस से मुस्लमानों में काफ़ी बेचैनी है। इसी वजह से कुछ संगठन और कुछ उलेमा कह रहे हैं कि इस साल ईद नहीं मनाना चाहिए ।कुछ का ये भी कहना है कि काली पट्टियाँ बांध कर नमाज़ पढ़ी जाये, मगर मेरी राय इस के बिलकुल विपरीत है। मैं तो ये चाहता हूँ कि मुस्लमान जोश-ओ-ख़रोश से ईद मनाएं, ईद के जश्न में अपने हिंदू दोस्तों को आमंत्रित करें , हिंदू पड़ोसीयों को सिवईं भेजें , ईद के दिन शर्बत और पानी की सबीलें लगाऐं और सभी धर्मों के लोगों को रोक रोक कर शर्बत और ठंडा पानी पिलाऐं ।
मेरे ये सब कहने का कारण ये है कि हर आदमी इस बात को महसूस कर सकता है कि चरम पंथी तत्वों की हज़ार कोशिशों के बावजूद आम हिन्दुओं के दिलों में मुस्लमानों के लिए वैसी नफ़रत अभी तक पैदा नहीं हुई है, जैसी नफ़रत विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा और बजरंग दल जैसे संगठनों के लोगों के दिलों में है। मेरी बात का एक सुबूत यह है कि जहां-जहां भी नफ़रत फैलाई गई या फ़साद करवाया गया वहां एक छोटे से दल ने या हज़ार दो हज़ार लोगों की भीड़ ने भड़काने वाली हरकतें कीं । कहीं भी आपको लाखों का हुजूम नज़र नहीं आया होगा।? खरगोन में जो शोभायात्रा निकाली गई इस में कितने लोग थे? करौली में जो जलूस निकाला गया इस में शरीक लोगों की तादाद किया कई हज़ार थी? जहांगीर पूरी में फ़साद भड़काने वाले लोग मुश्किल से पाँच छः सौ थे। हनूमान चालीसा पढ़ने की ज़िद करने वाले क्या हज़ारों लोग थे? मैंने तो जहां-जहां भी देखा दस या बारह लोग टीवी के कैमरों के सामने थे वो भी ऐसा लगता था कि न्यूज़ चैनलों ने उनको जमा करके ये काम करवाया है।
हमको ये बात समझना होगी कि एक विशेष ,मानसिकता रखने वाले कुछ लोग ऐसा माहौल पैदा करने की कोशिश कर रहे कि 2024 तक पूरा देश सांप्रदायिक ख़ानों में बट जाए ताकि एक विशेष राजनीतिक पार्टी को फ़ायदा पहुंचे और विभाजन का ये काम सिर्फ नफ़रत फैला कर ही मुम्किन है। मेरे ख़्याल में नफ़रत फैलने वाले लोगों से टकराव से बचने की हर मुम्किन कोशिश करना चाहिए क्योंकि एक छोटे से झगड़े को एक बड़ा दंगा बना कर पेश करने का काम करने के लिए न्यूज़ चैनल्ज़ मौजूद हैं। यही चैनल दस बीस लोगों के विरोध प्रदर्शन को भी इंटरनेशनल न्यूज़ बना कर पेश करते हैं।
नफ़रत फैलाने वालों को पराजित करने का बस यही तरीक़ा है कि हम आम हिंदूओं के साथ मुहब्बत और ख़ुलूस के साथ पेश आएं । हम देख सकते हैं कि इस वक़्त नफ़रत फैलाने वाले लोग उन हिन्दुओं की किस तरह भर्तसना कर रहे हैं जो मुल्क के धर्म निरपेक्ष स्वरूप को बचाये रखने की कोशिश कर रहे हैं, वह भी निशाने पर हैं जो हिंदूओं और मुस्लमानोंमैं इत्तिहाद पैदा करने की बात करते हैं। ज़ाहिर है कि इस मुल्क में वो हिंदू ज़्यादा हैं जो सब के साथ मिल-जुल कर रहना चाहते हैं।
एक और बात बहुत अहम है, वह ये कि हमारे बीच बैठे उन लोगों की ज़बानों पर ताले लगाए जाएं जो हिंदूओं के जज़बात को ठेस पहुंचाते हैं । जो लोग इलैक्शन जीतने के लिए मुस्लमानों के साथ हमदर्दी का इज़हार करते हैं उनसे दूरी बनाना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इन ही लोगों की (सयासी ग़िलाफ़ में ढकी) हमदर्दी का फ़ायदा सांप्रदायिक ताक़तों को पहुंचता है। हम सबको ऐसे तमाम सयासी लीडरों को एक पैग़ाम भेजना होगा कि अगर मुस्लमानों के साथ हमदर्दी का इज़हार करना है तो सियासत छोड़ें इलैक्शन लड़ने का इरादा तर्क करें तब ज़बान खोलें।
आख़िर कहता चलूँ कि यह मेरी निजी राय (क़ौम के किसी लीडर की नहीं ) की ईद खुशगवार माहौल में मनाएं। ग़म और ग़ुस्से का इज़हार करने से कहीं कहीं माहौल ख़राब भी हो सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव इंक़लाब उर्दू के पूर्व संपादक हैं)