असदउद्दीन ओवैसी इस समय मीडिया के सबसे प्रिय नेता बने हुए हैं। उम्मीद है यूपी के चुनाव तक ऐसे ही बने रहेंगे। मीडिया को उनकी और उनको मीडिया की जरूरत है। लेकिन कहने वाले यह भी कहते हैं कि इन दोनों की भाजपा को बहुत जरूरत है। भाजपा के लिए मीडिया तो है ही जरूरी, यूपी में ओवैसी भी जरूरी बन गए हैं।
अभी रविवार को ओवैसी की गाजियाबाद के मसूरी में एक आमसभा हुई। दिल्ली का पूरा इलेक्ट्रोनिक मीडिया वहां जमा था। अखबार वाले भी थे। सब भावविभोर थे। तेज बरसते पानी में ओवेसी की सभा सुनने लोग उमड़े। भीगते हुए सुना। छाता लेकर सुना। खड़े होकर सुना। हर तरह के हैडिंग लगाए गए। किसको खुश करने की कोशिश थी यह? ओवैसी को? उससे क्या फायदा? यह प्रयास था भाजपा को खुश करने का। और मुसलमानों को भी। भाजपा को खुश करना तो मीडिया का काम है। मगर मुसलमानों को? मुसलमान को तो वे सात साल से निशाने पर रखे हुए थे। ऐसी कौन सी तोहमत है जो मीडिया ने मुसलमानों पर नहीं लगाई हो। लींचिंग तक को जस्टिफाई किया। और उसी का परिणाम है कि आज देश में हत्या के एक से एक क्रूर और भयावह तरीके अपनाए जाने लगे। आजकल मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री तो बोलते नहीं हैं। डरे हुए हैं। मगर किसी दिन तो डर खत्म होगा। लिखेंगे कि एक लींचिंग कितनी लींचिंगों की शुरुआत होती है। ह्त्या के कैसे नए रूप आते हैं। हाथ काटना। गाड़ियों से रौंदना। पैट्रोल डालकर जला देना। और इन सबसे बढ़कर शाब्दिक हिंसा। शब्दों की हिंसा सारी हिंसाओं की जननी होती है। टीवी वाले रोज वह हिंसा फैलाते हैं। तो किसी दिन यह सब लिखा जाएगा। तथ्यों के साथ। और कोई अदालत भी होगी जो इसे सुनेगी। खुद ही। जिसे कहते हैं स्वत: संज्ञान लेकर। सख्त तेवर दिखाते हुए। न्याय की तरफ वापस लौटते हुए।
तो खैर उन्हीं मुसलमानों को इस समय इसलिए खुश किया जा रहा है, टीवी द्वारा उनका विश्वास जीतने की कोशिश की जा रही है कि उन्हें सही समय पर बताया जा सके कि उनके सच्चे हमदर्द असदउद्दीन ओवैसी साहब हैं। ओवैसी के प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी पर तीखे से तीखे प्रहारों को दिखाया जा रहा है, छापा जा रहा है। क्या मीडिया में हिम्मत आ गई? अपनी अकल से कर रहा है? हिम्मत का तो खैर सवाल ही नहीं उठता और अकल की बात बेमानी है। मीडिया अपनी अक्ल इन दिनों लगाता ही नहीं है। वह व्हटसएप के जरिए आई एडवाइजरी जिसे वह आदेश मानता है को शिरोधार्य करता है। इस समय उससे ओवेसी को आसमान में चढ़ा देने की उम्मीद की जा रही है। और मीडिया इसे पूरा करने में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए है।
यूपी में मीडिया और ओवैसी मिलकर दो काम करने की कोशिश कर रहे हैं। एक भाजपा की ध्रुवीकरण की कोशिशों को गति देना। दूसरे मुसलमानों के वोटों विभाजित करना। या जिसे आजकल की भाषा में कहते हैं वोट काटना। यूपी में ध्रुवीकरण सबसे ज्यादा किया गया है। शव जिनको लेकर युद्धकाल में गरिमा की अपेक्षा की जाती है। उनके अंतिम स्थान श्मशान, कब्रिस्तान को भी राजनीति का विषय बना दिया। पिता जो भारतीय परंपरा में एक सबसे बड़ा भरोसा होता है और कभी मजाक का विषय नहीं बनता उसे भी अब्बाजान पुकार कर राजनीति में घसीट लाए। ये सब कब तक चलेगा पता नहीं! मगर जब तक चलेगा समाज, देश, संस्कार, सभ्यता मजबूत होगी या खोखली इसे तो इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करने वाले ही बता सकते हैं।
जनता को धर्म की अफीम चटा दी गई है। धर्म खतरे में है। एक का नहीं सबका। रोजी रोटी का सवाल विलुप्त हो गया है। सरकार यही चाहती है। धर्म के नाम पर लड़ते रहो। गरीबी बेरोजगारी की बात अपने आप भूल जाओगे। देश बना था गरीबी से लड़ते हुए। आज आपस में लड़ते हुए तबाह हो जाएगा। एक की सांप्रदायिकता से दूसरे को ईंधन मिलता है। वर्तमान में ओवैसी इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। वे भाजपा के ध्रुवीकरण को हवा दे रहे हैं। उन्हीं शब्दों को दोहरा रहे हैं। अब्बाजान कहकर जो कोशिश योगी ने की थी उसे और परवान चढ़ा रहे हैं।
मुसलमानों की समस्याएं गहरी हैं। कयादत (नेतृत्व) नहीं है। उसने बहुत नेतृत्व किया है। हर क्षेत्र में। राष्ट्रपति, भारत का मुख्य न्यायधीश, वायुसेना प्रमुख, आई बी चीफ, कई राज्यों का मुख्यमंत्री जहां उसकी आबादी बहुत कम है, खेलों में। नवाब पटौदी 21 साल की उम्र में भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान बन गए थे। खुद ओवैसी के शहर हैदराबाद के अजहरउद्दीन को 26 साल की उम्र में कप्तानी सौंप दी गई थी। ओवैसी गलत अजेंडे में मुसलमानों को फंसा रहे हैं। नेहरू ने जो माहौल दिया था उसमें देश में कहीं हिन्दु मुसलमान का सवाल नहीं था। हर क्षेत्र में सभी लोग बराबर से आगे बढ़ रहे थे। आज मुसलमानों में नेहरू और कांग्रेस को लेकर भ्रम फैलाए जा रहे हैं। गलतियां सबसे होती हैं। हुई होंगी। मगर इसका मतलब यह नहीं कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां गलत हैं। मजेदार बात है कि दोनों तरफ के अतिवादी लोग धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ही गालियां देते हैं। शायद अपनी छोटी लकीर को बड़ा करने का यही तरीका है। भारत इतनी विविधताओं का देश है कि यहां किसी एक धर्म, जाति, तौर तरीकों के आधार पर राजनीति हो ही नहीं सकती। अगर हो सकती तो आजादी के बाद सांप्रदायिक ताकतों के लिए माहौल बहुत उपयुक्त था। मगर न जनसंघ और न ही हिन्दु महासभा पनप पाई। इसके बहुत सारे कारणों में एक सबसे बड़ा कारण नेहरू थे। मुसलमानों को यह बात खासतौर पर समझना चाहिए। भाजपा, आरएसएस तो यह जानती है। इसलिए उसके निशाने पर सबसे ज्यादा जवाहर लाल नेहरू होते हैं।
हम फिर कहते हैं कि आप कांग्रेस को जितनी चाहे गालियां दे लो मगर उसके डीएनए में ऐसा कुछ है कि वह किसी एक की पार्टी हो ही नहीं सकती। पूरे भारत की पार्टी है। इतने बुरे हाल में भी आज देश का कोई इलाका ऐसा नहीं है जहां कांग्रेस या कांग्रेसी नहीं हो। यह डीएनए शायद आजादी के आंदोलन से विकसित हुआ है। वह लड़ाई जो सबने मिलकर लड़ी थी। मुसलमान भी उस लड़ाई का हिस्सा थे। और सबसे अग्रिम पंक्ति में। वहां कयादत की जरूरत नहीं थी। शहादत की थी। और उसमें अपने दूसरे भाई बहनों के साथ मुसलमानों ने भी बढ़ चढ़कर कुर्बानियां दीं। उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि उस समय सबने अपने अपने तरीके से अपना सर्वोत्तम योगदान दिया।
तो यूपी में नतीजे कुछ भी हों मगर मुसलमानों को गलत अजेडें में फंसने से बचना चाहिए। उन्हें अलग थलग करने की जो कोशिशें बाहर से हो रही हैं वैसी ही अंदर से भी शुरू हो गई हैं। दुनिया में कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय बाकी लोगों के साथ मिलकर ही आगे बढ़ सकता है।
अभी समय खराब है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि इसे और खराब बना लिया जाए। वक्त बदलेगा। फिर से राजनीति में जिन्दगी के वास्तविक मुद्दे आएंगे। दोनों तरफ से जो भेड़िया आया, भेड़िया आया का झूठ फैलाया जा रहा है वह खत्म होगा। धर्म कोई खतरे में नहीं हैं। हां इसके आधार पर राजनीति करने वालों का भविष्य जरूर खतरे में है। हमेशा होता है। ओवैसी भी नहीं बचेंगे। आज नहीं तो कल उन्हें आडवाणी, उमा भारती, तोगड़िया की गति में जाना होगा। लेकिन उससे पहले वे मुसलमानों का ज्यादा नुकसान न कर जाएं इसे मुसलमानों को खुद समझना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)