उनके सिर पर यह खतरा लगातार मंडरा रहा है कि वह कभी भी मारी जा सकती हैं, मगर होदा खामोश ओस्लो से ही दहाड़ती हैं- ‘मैं रहूं न रहूं, यह जंग कमजोर नहीं पड़नी चाहिए, क्योंकि यह एक करोड़, 80 लाख अफगानी औरतों के हक-हुकूक से वाबस्ता है।’ मौजूदा तालिबानी निजाम से औरतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रही 26 साल की इस दिलेर अफगानी पत्रकार को प्रतिष्ठितटाइम पत्रिका ने इस साल की 100 सबसे अजीम हस्तियों में शुमार किया है। होदा वाकई इस इज्जत की हकदार हैं।
मूलत: अफगानिस्तान के परवान सूबे की खामोश का जन्म 1996 में ईरान में हुआ, क्योंकि बढ़ते तालिबानी खून-खराबे के कारण उनके माता-पिता को भागकर इस पड़ोसी मुल्क में पनाह लेनी पड़ी थी। जाहिर है, उस वक्त जान तो बच गई थी, मगर पीछे छूट गया कुनबा बार-बार गांव की ओर खींचता था। इस मोह ने ईरान में जमने ही नहीं दिया। नतीजतन, साल 2001 में तालिबानी हुकूमत के अंत के चंद महीनों बाद ही खामोश का परिवार अपने पुश्तैनी गांव लौट आया। माहौल कुछ बदला हुआ जरूर था, मगर इतना भी नहीं कि सामाजिक रवायतों की जकड़न बहुत ढीली पड़ गई हो। फिर बौखलाया हुआ तालिबान रह-रहकर यहां-वहां विस्फोट कर दे रहा था।
खामोश की मां इस सूरतेहाल में भी बेटी को तालीम दिलाना चाहती थीं, पर नाते-रिश्तेदारों को यह गवारा न था कि खानदान की लड़कियां यूं बाहर निकलें। होदा की मां को मनाने के लिए उन्होंने कभी खानदानी रवायतों की दुहाई दी, तो कभी तालिबान से दुश्मनी मोल लेने का डर दिखाया, मगर एक मां ने इन सबका मुकाबला किया और बेटी को स्कूल पढ़ने भेजा। बेटी ने भी मां को मायूस नहीं किया और हाईस्कूल की पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद काबुल यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की डिग्री लेकर एक रेडियो स्टेशन से जुड़ गई।
साल 2015 की बात है। खामोश को रेडियो पर एक ऐसा कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौका मिला, जिसमें वह औरतों के साथ होने वाली ज्यादतियों के मसले उठातीं। इस दौरान कई बार किसी ऐसे वाकये से गुजरना पड़ता कि खामोश घंटों तक मानसिक तकलीफ में रहतीं। कार्यक्रम करते हुए उन्हें यह शिद्दत से एहसास हुआ कि अफगानी बच्चियों और औरतों को जब तक शिक्षा हासिल नहीं होगी, वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का साहस कभी नहीं बटोर पाएंगी। लिहाजा उन्होंने सबसे पहले अपने गांव की औरतों को ही साक्षर बनाने का काम शुरू किया।
यह वह दौर था, जब दुनिया भर के देश अफगानी बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए इमदाद भेज रहे थे। उनके लिए स्कूल, खेल के मैदान बनाए जा रहे थे। इनका असर भी पड़ रहा था। लोग कुछ साहस बटोरने लगे थे, स्कूलों में बेटियों की आमद बढ़ गई थी, छोटी संख्या में ही सही, पर औरतें सार्वजनिक सेवाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी थीं। इन सबके बीच अपने अब तक के अनुभव से खामोश जान चुकी थीं कि तमाम पिछड़े देशों की तरह अफगानिस्तान में भी एक वर्जना लड़कियों की तालीम की राह में बड़ी बाधा है। दरअसल, बंद समाजों में मासिक धर्म के दौरान किशोरियों को अमानवीय स्थिति झेलने को बाध्य होना पड़ता है।
खामोश यह बात अच्छी तरह जानती थीं कि उनके मुल्क में महिलाओं और बच्चियों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं भी हासिल नहीं हैं, ऐसे में जन-जागरूकता अभियान बहुत कारगर साबित हो सकता है। साल 2021 में उन्होंने अपनी कुछ पुरानी सहेलियों और सहपाठियों के साथ 25 स्कूलों को मासिक धर्म संबंधी जागरूकता फैलाने के लिए चुना। हर हफ्ते वह अपनी टीम के साथ किसी एक स्कूल में पहुंचतीं और वहां बच्चियों को समझातीं कि उन्हें इस बात के लिए शर्मिंदा होने की कतई जरूरत नहीं है। यह एक नैसर्गिक जैविक प्रक्रिया है, जो आपकी सेहत से जुड़ी है। इसलिए इस दौरान उन्हें साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखना चाहिए और किसी भी तकलीफ की सूरत में बड़ी बहन या मां से बेहिचक बात करनी चाहिए।
खामोश का अभियान स्कूलों में लोकप्रिय होने लगा था, लेकिन बदकिस्मती से उनके मुल्क के राजनीतिक हालात में बवंडर पैदा हो गया। एक बार फिर तालिबान काबुल पर काबिज हो गया और अफगानिस्तान उसी मोड़ पर जा पहुंचा, जहां वह दो दशक पहले खड़ा था। लड़कियों के लिए स्कूल के दरवाजे बंद हो गए, दीगर इदारों से औरतों को हटने के लिए कहा जाने लगा और उन पर जबरिया परदा लाद दिया गया।
चारों तरफ संदेह, अफरा-तफरी और खौफ का आलम था। ऐसा लगा, अफगानी औरतें उसी अंधेरी सुरंग में पहुंचा दी गई हैं। लेकिन खामोश की नुमाइंदगी में दर्जनों जांबाज महिलाओं ने अपनी खामोशी तोड़ी और तालिबानी संगीनों से बेखौफ होकर वे काबुल की सड़कों पर अपना हक मांगने उतर पड़ीं। खामोश ने इस तरह के कई प्रदर्शनों में भाग लिया। ऐसे आखिरी प्रदर्शन के बाद जब वह घर लौटीं, तब उन्हें अपना पूरा घर तहस-नहस मिला। यह भी मालूम चला कि उनकी टीम की लड़कियों के बारे में जानकारियां जुटाई जा रही हैं। तब से वह ओस्लो में रहते हुए मीडिया, सोशल मीडिया व दूसरे बडे़ मंचों के जरिये अफगानी औरतों की लड़ाई लड़ रही हैं। पिछले साल बीबीसी ने उन्हें 100 प्रेरणादायी औरतों में गिना था।
होदा खामोश इस बात की नजीर हैं कि पिछले दो दशक में अफगानिस्तानी औरतों ने क्या कुछ हासिल किया है, जिसे वे किसी कीमत पर गंवाना नहीं चाहतीं। दुनिया भर के राजनेता सत्ता के लिए जब ओछी लड़ाइयां लड़ते हैं, तब खामोश जैसों के आगे वे सचमुच कितने बौने दिखते हैं! सोचिए, दुनिया जिस 2021 को अफगानिस्तान के लिए एक काला वर्ष बताती रही, खामोश ने उसे उम्मीद का साल कहा, क्योंकि अफगान औरतों ने उस साल बंदूकों से बगावत करना सीख लिया।
प्रस्तुति: चंद्रकांत सिंह, सभार हिंदुस्तान