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गणतंत्र दिवस के आयोजन का इतिहास, अहमियत और इसकी प्रासंगिकता

डॉ. फर्रूख़ ख़ान

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26 जनवरी, 1950 को भारत ने स्वयं को गणतंत्र घोषित कर दिया। यह वो दिन था जबकि भारत ने ब्रिटिश संसद से पारित भारत सरकार अधिनियम 1935 की जगह नए संविधान को अपनाया। अब भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा नहीं था। तय हुआ कि इस दिन इस तरह मनाया जाए कि वैश्विक बिरादरी को एक संदेश जाए। दुनिया को पता चलना चाहिए था कि भारत अब एक स्वयंभू राष्ट्र है जिसके लोगों ने दासता की बेड़ियां तोड़ दी हैं और अब स्वयं अपने ऊपर शासन करते हैं।

गणतंत्र दिवस परेड का विचार

अब सवाल था कि गणतंत्र दिवस कैसे मनाया जाए और इसमें किस तरह के कार्यक्रम शामिल हों। यह तय करने के लिए समितियां बनीं और तमाम तरह की राय रखी गईं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि इस मौक़े पर ध्वाजारोहण के साथ-साथ भारत की सैन्य शक्ति का भी प्रदर्शन हो। इसके पीछे शायद आज़ादी के तुरंत बाद जन्मे पाकिस्तान से युद्ध और भारत में देशी राज्यों के विलय के दौरान हुए संघर्ष एक वजह रहे होंगे। कई रियासतों को शुरुआती न नुकर के बाद भारतीय संघ में शामिल किया गया था और उनमें से कई जगह अभी भी असंतोष था। हालाँकि भारत सैन्य परेड का आयोजन करने वाला दुनिया का पहला देश नहीं था। दुनिया के कई देश अपने यहाँ इस तरह का आयोजन कर रहे थे और शायद प्रेरणा यहाँ से भी मिली हो।

पहली परेड

26 जनवरी, 1950 को बड़ी शान के साथ आज़ाद भारत की पहली परेड का आयोजन किया गया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णों को इस अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि बुलाया गया। इस फैसले पर भी नेहरू की छाप साफ नज़र आती है। सुकर्णो और नेहरु का इतिहास उपनिवेशवाद के ख़िलाफ संघर्ष का था और दोनों अच्छे मित्र थे। दोनों ही अपने-अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए तक़रीबन एक ही समय जेल में भी रहे थे।

बहरहाल, आज़ाद भारत की पहली गणतंत्र दिवस परेड राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के इर्विन एंपीथियेटर यानि आज के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम से शुरु हुई। देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने इस मौक़े पर ध्वजारोहण किया। राष्ट्रपति ने भारत के गणतंत्र होने का ऐलान किया तो उन्हें 31 तोपों की सलामी दी गई।

आख़िरकार परेड शुरु हुई। सेना के बैंड की धुनो पर मार्च करती सैन्य टुकड़ियों ने राष्ट्रपति को सलामी दी। परेड इर्विन एंपीथियेटर से निकल कर लाल क़िले की तरफ बढ़ी तो उसकी एक झलक पाने के लिए सड़क के दोनों ओर लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। परेड के ऊपर से हारवर्ड, डकोटा, बी-24 लिबरेटर, हॉकर टेंपेस्ट, स्पिट फायर और जेट विमानों ने उड़ान भरी। देश वासियों के लिए यह पल विस्मित करने वाला था।

26 जनवरी ही क्यों?

गणतंत्र दिवस के लिए 26 जनवरी का दिन ही क्यों चुना गया? इसके पीछे भी एक शानदार इतिहास है। पहली परेड से क़रीब 20 साल पहले यानी 26 जनवरी, 1929 को कांग्रेस के लाहौर सम्मेलन में पूर्ण स्वराज का संकल्प पारित किया गया। इससे पहले भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहते हुए आंशिक आज़ादी पा लेने की मांग से भी संतुष्ट नज़र आते थे। पूर्ण स्वराज की माँग एक बड़ी, ऐतिहासिक घटना थी। इसके बाद कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में रावी के तट पर तिरंगा फहराया। इस मौक़े पर संकल्प लिया गया कि सभी भारतीय आगामी 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे।

26 जनवरी, 1930 को देश भर में लोग ब्रिटिश शासन की पाबंदियों को तोड़कर सड़कों पर निकल आए। लोगों पर आज़ादी का जुनून सवार था। हर तरफ हाथों में तिरंगा लिए लोग नज़र आ रहे थे। इसके बाद आज़ादी दूर नहीं थी। आख़िरकार 15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद हुआ। 26 नवंबर. 1949 को भारत ने अपनी संविधान अंगीकार किया लेकिन इसे लागू करने की तारीख़ टाल दी गई। तय हुआ कि ‘पूर्ण स्वराज दिवस की 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होगा और हर वर्ष इस दिन को गणतंत्र दिवस के रुप में मनाया जाएगा। मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में पहली बार पूर्ण स्वराज का नारा दिया था। 1950 में पूर्ण स्वराज के ऐलान की वर्षगांठ आज़ाद भारत का ऐतिहासिक दिन बन गई।

गणतंत्र दिवस परेड की अहमियत

यह दिन महज़ गणतंत्र के ऐलान या संविधान के लागू होने का दिन नहीं है। गणतंत्र दिवस देश के लिए जान क़ुर्बान कर देने और देशवासियों की रक्षा में जान गंवा देने वालों का भी दिन है। हर वर्ष 26 जनवरी को सैन्य पुरस्कार दिए जाते हैं। इसके अलावा विपरीत हालात में बहादुरी दिखाने वाले नागरिकों और बच्चों को भी इस मौक़े पर सम्मानित किया जाता है। परेड शुरु होने से पहले प्रधानमंत्री इंडिया गेट जाकर अमर जवान ज्योति पर शहीद सैनिकों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। परेड शुरु होती है तो उसमें वीरता पुरस्कार विजेता सबसे आगे चलते हैं। उनके पीछे सैन्य साज़ो सामान का प्रदर्शन किया जाता है। इस सबकी अपनी अलग ही अहमियत है।

हमारे समय में परेड की प्रासंगिकता

सबसे अहम सवाल है कि क्या गणतंत्र दिवस परेड की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है? जब हम ज़्यादातर सैन्य सामान और हथियार दूसरे देशों से आयात करते हैं तो इनके प्रदर्शन की आख़िर क्या तुक है? हम इस मौक़े पर आए मेहमानों को जो दिखा रहे होते हैं अकसर उसमें से ज़्यादातर सामान उन्हीं के देश से आयात किया गया होता है। रुस और अमेरिका के राष्ट्राध्यक्षों को भला हम इस सबसे कैसे प्रभावित कर सकते हैं? हम इस दिन किस बात का जश्न मना रहे होते हैं जबकि हम स्वयं क़ानून और संवैधानिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाते फिरते हैं? किस बात पर जश्न मनाया जाए जब संविधान से मिली आज़ादी की पहुंच सीमित की जा रही है। जब न बराबरी है, न मानवीय जीवन की अहमियत है, बोलने की आज़ादी पर पहरे हैं और सामान्य नागरिक अधिकार कुचले जा रहे हैं तो क्योंकर जश्न मनाया जाए?

फिर भी जश्न तो बनता है

यह सच है कि सरकारों ने गणतंत्र में नागरिकों की आज़ादी पर विदेशी शासकों से ज़्यादा पाबंदियाँ लगा दी हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस ऐतिहासिक दिन का विरोध किया जाए। हम विदेशों से आयातित हथियारों के प्रदर्शन पर रोक लगाने की माँग कर सकते हैं। हमें साम्प्रदायिक लोगों और इस तरह के विचार रखने वाले लोगों का विरोध करना चाहिए। हमें लोगों को इस दिन याद दिलाना चाहिए कि हमें आज़ादी किस तरह के संघर्ष के बाद मिली और आज़ादी के बाद के भारत के लिए हमने कौन से लक्ष्य निर्धारित किए थे। लोगों को बताना चाहिए कि गणतंत्र बनाते वक़्त हमारे नीति निर्माताओं की सोच क्या थी और क्यों भारत को समानता पर आधारित गणतंत्र बनाने का फैसला लिया गया। हमें लोगों को याद दिलाना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने यह दिन देखने के लिए किस तरह के संघर्ष किए। किस तरह आज़ादी के संघर्ष के दौरान उपनिवेशवाद, सांस्कृतिक घेरेबंदी और शोषण का विरोध किया गया।

यह सच है कि आयोजन न हों तो हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं। हम आयोजन हमारे ज़हनों में आज़ादी के संघर्ष और आज़ाद भारत के मूल्यों को ज़िंदा रखने के लिए है। ये अहम इसलिए भी है कि अगर इस दिन कोई आयोजन न हो तो ये भुलाना बेहद आसान है कि संविधान ने हमें क्या अधिकार दिए हैं। इस बहाने हम अधिकारों और कर्तव्यों पर हर साल बात कर लेते हैं। इसलिए गणतंत्र का जश्न मनाइए और इस संकल्प के साथ मनाइए कि हम संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों की रक्षा के लिए लगातार संघर्ष करते रहेंगे।

(लेखक दिल्ली स्थित दीवान एडवोकेट्स नाम की लीगल फर्म में मैनेजिंग पार्टनर हैं और सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं। इसके अलावा वह संवैधानिक और राजनीतिक मामलों पर विभिन्न टीवी चैनलों और अख़बारों में अपना पक्ष रखते रहे हैं।)