फैज़ अहमद फैज एक पाकिस्तानी शायर थे। फ़ैज अहमद फ़ैज ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊंचाई दी। साहिर, क़ैफ़ी, फ़िराक़ आदि उनके समय के ही शायर थे। फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के ऐसे दूसरे शायर थे, जिनका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुआ था। यह अलग बात है कि नोबेल नहीं मिल पाया, लेकिन उन्हें 1962 में लेनिन शांति पुरस्कार दिया गया।
फैज़ अहमद फैज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 में पंजाब के सियालकोट जिले (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता का नाम चौधरी सुलतान मुहम्मद खां और माता का नाम सुल्तान फातिमा था। फैज़ अहमद फैज़ के पिता एक बैरिस्टर थे और उनका परिवार एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई। उनके पिता की उर्दू भाषा में गहरी रुचि थी और मुहम्मद इकबाल सहित कई नामचीन साहित्यकार उनकी मित्र मंडली में शामिल थे। छोटी उम्र में ही फैज ने कुरान शरीफ कंठस्थ करना शुरू किया।
1921 में उनका दाखिला स्कॉट मिशन हाई स्कूल में कराया गया, जहां उन्होंने सैय्यद मीर हसन से शिक्षा हासिल की। 1927 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की, फिर सियालकोट के मरे कॉलेज में दाखिला लिया और वहां से 1929 में फर्स्ट डिवीजन में इंटरमीडिएट पास किया। 1931 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से बीए और फिर अरबी में बीए ऑनर्स किया। उन्होंने 1933 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी में एमए किया और 1934 में ऑरिएंटल कॉलेज लाहौर से अरबी में एमए में फर्स्ट डिवीजन हासिल की।
1935 में वह अमृतसर के मोहम्मडन एंग्लो ऑरिएंटल क़ॉलेज में अंग्रेजी विषय के प्राध्यापक नियुक्त हुए। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए। “प्रगतिवादी लेखक संघ” से 1937 में जुड़े और उसके पंजाब शाखा की स्थापना सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर की जो उस समय के मार्क्सवादी नेता थे। 1937 से 1949 तक उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया।
वे कुछ समय फ़ौज में भी नौकरी की। बाद में फौज की नौकरी से इस्तीफा देकर पाकिस्तान टाईम्स के संपादक बन गए। 1947 में देश का विभाजन हुआ तो उन्होंने सीमा के दोनों ओर हुए दंगों और खून-खराबे के बारे में जो सम्पादकीय लिखे, वे आज भी पढ़ने के लायक हैं। फैज ने कम समय में ही पत्रकारिता में अच्छा नाम कमाया. उन्होंने जो निर्भीक होकर पत्रकारिता की, लेकिन वह पाकिस्तानी हुकूमत को नागवार गुजरने लगी।
1951 में सज्जाद जहीर और फैज अहमद फैज को दो फौजी अफसरो के साथ रावलपिंडी साजिश केस में गिरफ्तर कर लिया गया। उन पर लियाकत अली खां की हुकूमत का तख्ता पलटने की कोशिश करने का आरोप लगाया गया। इस केस में फैज अहमद फैज करीब 4 साल जेल में बंद रहे। लगभग 3 महीने उन्होंने सरगोधा और लायलपुर की जेलों में कैदे-तनहाई में गुजारने पड़े। इस दौरान बाहरी दुनिया से उनका संबंध कट गया था। मित्रों और बीवी-बच्चों से मिलने की इजाजत नहीं थी, यहां तक कि वह अपने कलम का भी इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। जेल में रहते हुए उन्होंने जो कुछ लिखा वह दस्ते-सबा और जिंदां नामा में प्रकाशित हुआ।
1955 में जेल से बाहर आने पर फैज ने फिर पाकिस्तान टाइम्स में काम शुरू किया। 1956 में फैज प्रगतिशील लेखक संघ के एक सम्मेलन में भाग लेने भारत आए। इसके बाद 1958 में फैज अफ्रीकी-एशियाई लेखकों के सम्मेलन में भाग लेने ताशकंद गए। इसी दौरान, जनरल अयूब खां ने तख्तापलट कर दिया। फैज को गिरफ्तार से बचने के लिए पाकिस्तान नहीं लौटने की सलाह दी गई, लेकिन वे पाकिस्तान लौटे। वापस आते ही कुछ दिनों में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। फैज छह महीने तक जेल में रहे. यहां उन्होंने एक और मशहूर नज्म लिखी जो पूरी दुनिया में पसंद की गई – निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां, चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले।
जेल से छूटने के बाद फैज कराची आ गए। कराची का मौसम उन्हें रास नहीं आया और वे पत्नी एलिस के साथ वापस लाहौर लौट आए। 1962 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया। 1971 में पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश बना। इसके बाद पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में बनी नागरिक सरकार ने फैज को सांस्कृतिक सलाहकार की जिम्मेदारी दी। 1972 में वे राष्ट्रीय कला परिषद पाकिस्तान के अध्यक्ष बने।
गरीबों, वंचितों और हाशिए पर पड़े लोगों के पक्ष में और शासकों के उत्पीड़न के खिलाफ दुनिया भर में अनुग्रह का शब्द पसंद किया जाता है। CAA विरोधी आंदोलन के दौरान पूरे देश में गूंजने वाली उनकी कविता को याद होगी, जिसमें उन्होंने अत्याचारी शासकों को चुनौती दी थी और कहा था कि “सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जायेगे।” कोई भी फासीवादी सरकार इस कविता के क्रांतिकारी आंदोलन को बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसलिए जब इस कविता ने पूरे देश में CAA के खिलाफ सूर फूंकी, तो IIT कानपुर के प्रबंधन को प्रदर्शनकारियों का प्रदर्शन पसंद नहीं आया और उन्होंने इसके पढ़ने और गाने पर रोक लगा दी। ऐसा लगता है कि उन्होंने सरकार के इशारे पर यह क़दम उठाया है। शक पैदा इसलिए होता है कि फैज अहमद फैज की कविताओं को अब सरकारी CBSE ने 11वीं और 12वीं के सिलेबस से हटा दिया है, हालांकि, CBSE ने केवल फैज की कविताओं को पाठ्यक्रम से हटाया है बल्कि इस्लामी शासन और मुगल न्याय प्रणाली के पाठकों को भी दिया है। शायद उन्हें लगता है कि इस तरह वे इतिहास के पन्नों से इस्लामी सरकार को मिटा देंगे। अगर वे ऐसा सोचते हैं तो यह बहुत ही त्रुटिपूर्ण और अवास्तविक है क्योंकि इतिहास किसी एक क्षेत्र में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लिखा जाता है। अगर इस तरह से इतिहास मिटा दिए जाते, तो प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों का कोई इतिहास दुनिया में नहीं रहता।