बातों से कुछ नहीं हो सकता। मगर यह सरकार समझती है कि बातों से जग जीता जा सकता है! दूसरी चीज भारत का संस्थानिक ढांचा इतना योग्य और मजबूत है कि वह बड़ी से समस्या का हल ढूंढ सकता है और देश की एकता और अखंडता को बनाए रख सकता है। लेकिन यह सरकार उनकी विशेषज्ञता का भी फायदा नहीं उठा रही है।
बात कश्मीर की हो रही है। वहां हालत इतनी बिगड़ गई है मगर सरकार की तरफ से कोई पहल, कोई सुधार की कोशिश नहीं दिख रही है। केवल बातें हैं। कश्मीर को भी वे बातों से हल कर सकते हैं। ऐसा उनका विश्वास है। महंगाई, बेरोजगारी, गिरती अर्थव्यवस्था जैसी देश की बड़ी समस्याओं को जब वे हिन्दू, मुस्लिम की बातों से दबा सकते हैं तो कश्मीर में लगातार बढ़ रही हत्याओं और पलायन की खबरों को क्यों नहीं? हेडलाइन मैनेजमेंट हर समस्या का हल है। लोग उसी पर विश्वास करेंगे, जो टीवी दिखा रहा है, अख़बार छाप रहे हैं, सुबह से व्ह्टसएप ग्रुपों पर जो मैसेज आ रहे हैं।
कश्मीर में हालत बिगड़ रही है। मगर टीवी हिन्दू मुसलमान की बहसों को दिखाए जा रहा है। कश्मीर में भी उसने हिन्दू मुसलमान एंगल निकाल लिया है। कश्मीर बर्बाद हो जाए। वहां से कश्मीरी पंडितों और अन्य कर्मचारियों, छोटा धंधा करने गए लोगों को पलायन करना पड़े। उनकी हत्या हो। मगर इससे किसी को क्या? हिन्दू मुसलमान होते रहना चाहिए। देश में इससे वोट मिलते हैं। इसलिए वहां कुछ करने की जरूरत नहीं। केवल बातों का बाजार गर्म रहना चाहिए।
राजनीति इस स्तर पर आ गई है कि कश्मीरी पंडितों या वहां काम करने वाले अन्य हिन्दुओं की ह्त्याओं से यहां शेष भारत में ध्रुवीकरण कितना तेज होता है यह देखा जा रहा है। पंडित इस बात को समझ रहे हैं। इसलिए गृह मंत्री अमित शाह की हाई लेवल मीटिंग में यह कहने के बावजूद कि पंडितों का जम्मू ट्रांसपर नहीं होगा वे घाटी छोड़कर कश्मीर आ रहे हैं। 1989- 1990 में भी यही हुआ। वीपी सिंह की सरकार में। जिसे भाजपा का समर्थन था। पंडितों को रोकने की कोशिश नहीं हुई। बल्कि उस समय के राज्यपाल जगमोहन ने उन्हें वहां से निकलने के लिए ट्रक और बसें उपलब्ध करवाईं। उद्देश्य एक ही था कि शेष भारत में कश्मीर के नाम पर धार्मिक भावनाएं भड़कना। न कश्मीर की चिंता थी, न कश्मीरी पंडितों की। बस एक ही चिंता थी कि इसके जरिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कितना किया जा सकता है।
कश्मीर के अफसर, वहां तैनात सैन्य अधिकारी इस बात को जानते हैं कि कश्मीर की समस्या हिन्दू मुसलमान नहीं है। समस्या है पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद। और अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों द्वारा उसका फायदा उठाने की आकांक्षा। इसे समझाने के लिए आज का एक उदाहरण सही होगा कि जैसे अमेरिका और नाटो यूक्रेन के जरिए रुस को दबाव में रखने की कोशिश कर रहा है। वैसे ही अमेरिका और उसके मित्र देश कश्मीर के जरिए भारत और चीन दोनों को दबाव में रखने की कोशिशों को लगातार बनाए रखते हैं। पाकिस्तान को हथियार, आर्थिक सहायता और अभी इमरान सरकार बदलने के पीछे यही कारण हैं।
लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि मोदी सरकार अपने राजनीतिक अजेंडे की वजह से राष्ट्रीय हितों को भी नहीं देख रही। जो ऊपर शुरु में लिखा कि भारत के संवैधानिक ढांचा बनाया ही ऐसा गया था कि यहां एक दूसरे पर नियंत्रण न हो। समन्वय हो। और सेना, कार्यपालिका अपनी भूमिका को समझते हुए सरकार को सही सलाह दे सके। मगर इस सरकार के राजनीतिक अजेंडे ने वह सारी व्यवस्थाएं फेल कर दीं।
1992 – 93 की बात होगी। नरसिंहा राव सरकार ने एक नई मिनिस्ट्री आंतरिक सुरक्षा की बनाकर राजेश पायलट को इसका च्रार्ज दे दिया। पायलट ने उत्तरी कश्मीर का दौरा करके, जहां से सबसे ज्यादा घुसपैठ होती है वहां हवाई बमबारी का सुझाव दे दिया। तत्काल राज्यपाल गैरी सक्सेना ने और वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री से कहा कि इससे कश्मीर में हालत सुधारने में मदद मिलने के बदले हालत और बिगड़ जाएंगे। इस तरह की हवा हवाई बातों को रोका जाए।
उनकी बात सुनी तो गई ही। लेकिन उससे भी खास बता यह है कि राजनीतिक माहौल इतना भयहीन था कि किसी भी अफसर को सच कहने में प्राब्लम नहीं हुई। आज कोई नहीं कह सकता कि कश्मीर को संभालने के लिए यह यह किया जाना चाहिए और यह यह नहीं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर फिर कश्मीर खबर बनने लगा। मगर विदेश मंत्री एस जयशंकर और विदेश मंत्रालय के अफसर कुछ नहीं कह, बता सकते। विदेशों में कश्मीर का खबर बनना भारतीय हितों के अनुकूल नहीं होता। यह हमेशा पाकिस्तान चाहता है।
कश्मीर में चुनाव नहीं करवाने से पाकिस्तान को फिर वही कहने का मौका मिलता है कि कश्मीर में सेना का शासन है। वहां आयरन कर्टेन ( लोहे का पर्दा) डाल रखा है। इसीलिए आंतकवाद के लंबे दौर के बाद 1996 में पहला विधानसभा चुनाव करवाने के बाद वहां की राज्य सरकार को लोकप्रिय सरकार कहा गया। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पापुलर गवर्मेंट। पाकिस्तान के इस प्रचार की हवा निकल गई कि वहां लोगों की मर्जी के बिना शासन है।
इसलिए जैसे कश्मीर की समस्या हिन्दू मुसलमान नहीं है। वैसे ही धारा 370 नहीं थी। मगर उसे हटाकर इतना प्रचार किया गया कि जैसे अब सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। कैंसर के मरीज के सिर के बाल काट दिए। बाबा रामदेव की दवा दे दी। कहा ठीक हो जाएगा। मगर तीन साल हो गए स्थिति और बिगड़ गई। एक साल से ज्यादा सारे नेताओं को बंद रखा गया। राज्य के दो टुकड़े कर दिए। दर्जा घटा दिया। मगर क्या हुआ? कश्मीरियों में विश्वास पैदा नहीं कर पाए। कश्मीरी पंडितों में भी नहीं। एक फिल्म बना दी। पूरी सरकार इसका प्रचार करने लगी। प्रधानमंत्री तक! क्या हुआ? पलायन टू हो गया।
सिर्फ हिन्दू मुसलमान! लेकिन यह मंत्र वहां काम नहीं करता। कैसे इसका एक और उदाहरण देखिए। कश्मीर से पलायन करके आ रहे पंडितों का जम्मू के हिन्दू डोगरे विरोध कर रहे हैं। ऐसा ही 1990- 91 में भी किया था। पंडितों के खिलाफ प्रदर्शन किए गए। जम्मू बंद किया गया। क्यों?
क्योंकि दुनिया में सिर्फ हिन्दू मुसलमान ही समस्या नहीं है। और भी गम हैं जमाने में – – – मजहब के सिवा! तो 32 साल पहले जो कारण थे वही आज हैं। डोगरों का कहना था कि इनके आने से हमारे क्षेत्र की डेमोग्राफी बदल रही है। ज्यादातर पंडित सरकारी कर्मचारी हैं। इनके आने से दफ्तर में सीनियरटी, जूनियरटी का नया चक्कर पड़ रहा है महंगाई बढ़ रही है। भाषा, खानपान, संस्कृति को लेकर संकट है।
क्या बताएं! बात हास्यास्पद हो जाती है। खबरें छपीं कि कि मूली मंहगी हो गई। कश्मीरी मूली ज्यादा खाते हैं। उसके कई आइटम बनाते हैं। मूली की चटनी, रायता, साग। जो हमारे यहां शेष भारत में नहीं जाने जाते। बहुत टेस्टी होते है। इसे इस तरह समझिए कि होली पर बिहारी बहुत मीट खाते हैं। करीब करीब अनिवार्य तौर पर। इसी बार देख लीजिए। मीट के दाम डेढ़ से दो गुने हो गए थे।
अब यहीं पर एक बात और बताते हैं। कश्मीरी मुस्लिम और कश्मीरी पंडितों के बीच हर चीज समान है। भाषा, खान पान, रहन सहन, संस्कृति किसी में कोई फर्क नहीं है। और पाकिस्तान के माहौल गंदा करने से पहले तक धर्म भी दोनों के बीच कोई मुद्दा नहीं था। वहां के अखबरों में ईद पर पंडित पत्रकार, लेखक का आर्टिकल होता था और महाशिवरात्रि जो पंडितों का सबसे बड़ा त्यौहार है उस पर कश्मीरी मुस्लिम का। 1989 -90 में अपने मकान तो छोड़िए, जिन सरकारी मकानों की चाबी भी अपने मुस्लिम दोस्तों को दे आए थे। उन्होंने वैसा का वैसा ही मकान बनाए रखा। और जब कश्मीरी मुस्लिम सर्दियों में जम्मू आए तो उनके मेजबान कश्मीरी पंडित ही थे।
सच यह है कि धर्म ही सब कुछ नहीं होता। अगर होता तो पाकिस्तान के दो टुकड़े नहीं हुए होते। और न ही इतनी जातियां होतीं। न उनकी गिनती की जरूरत पड़ती।
धर्म राजनीति का, शासन का आधार नहीं हो सकता। यह हमने पाकिस्तान में देखा। अब उसे अपने यहां दोहरा कर हम क्या हासिल करना चाहते हैं, पता नहीं!