विपिन आज़ाद
हिजाब के मामले में माननीय कर्नाटक हाई कोर्ट का जो फ़ैसला आया उससे मुझे महात्मा गांधी के जीवन की एक घटना का स्मरण आता है. अफ़्रीका की अदालत में जब महात्मा गांधी गुजराती पगड़ी लगाकर जिरह करने गए तो जज ने उनसे पगड़ी उतारने को कहा. गुजराती पगड़ी अदालत की वेश में शामिल नहीं थी.
गांधी जी ने पगड़ी उतारने से मना कर दिया. अदालत ने इस पर आपत्ति की तो महात्मा गांधी अदालत छोड़ कर चले गए. उन्होंने पगड़ी के साथ अदालत में जाने के लिए संघर्ष किया. जब सरकार ने पगड़ी ना पहनने की बाध्यता समाप्त कर दी तो गांधीजी पगड़ी पहन कर अदालत पहुंचे.
अदालत में जाकर गांधी जी ने पगड़ी उतार दी. गांधी जी ने कहा आप ज़बरदस्ती कोई ऐसा क़ानून मेरे ऊपर नहीं लाद सकते जो मेरी आस्था के ख़िलाफ़ है. लेकिन स्वेच्छा से मैं आपकी बात मान सकता हूं. क्योंकि आप मुझे पगड़ी उतारने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं इसलिए मैं स्वेच्छा से पगड़ी उतारता हूँ.
हमें आशा करनी चाहिए कि राष्ट्रपिता ने जो राह हम भारतीय लोगों को दिखाई है, उसका सम्मान आम आदमी से लेकर माननीय न्यायाधीश तक सभी लोग करेंगे. वे क़ानून की भाषा की शाब्दिक व्याख्या की जगह उसके मर्म को समझेंगे और राष्ट्र की एकता के लिए हर प्रयास करेंगे.
यही है इस्लामोफोबिया
गुरू ग्रंथ साहिब में नहीं लिखा कि पगड़ी या कड़ा पहनना होगा. बाइबिल में नहीं लिखा कि क्रॉस पहनना होगा. किसी हिंदू धार्मिक किताब में नहीं लिखा कि मंगलसूत्र पहनना होगा, सिंदूर लगाना होगा. सिख धर्म के दस गुरू हुए. पगड़ी, कड़े और कृपाण का चलन दसवें गुरू गोबिंद सिंह ने शुरू किया. सिख को खालसा उन्होंने ही बोला. इसका अर्थ ये हुआ कि सिख धर्म की शुरुआत से पगड़ी, कड़ा और कृपाण उसका हिस्सा नहीं थे. यानि essential religious practice नहीं थे.
इस्लाम में सुन्नी और शिया शुरू से नहीं थे. हिंदू धर्म तो भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से जो किसी भी धार्मिक किताब में नहीं लिखे हैं. तो किस आधार पर अदालत तय करेगी कि क्या essential religious practice है? अगर भारत के स्कूलों में हिजाब बैन होता है लेकिन पगड़ी, मंगलसूत्र, सिंदूर नहीं, तो इसका मतलब यही होगा कि भारत की सरकार और अदालत दोनों मिल कर क़ानून की आड़ में मुसलमानों को टारगेट कर रहे हैं. यही इस्लामोफ़ोबिया है.