हिजाब विवाद: शिक्षित मुस्लिम लड़कियों के संघर्ष रोकने की साजिश

मुसलमानों को यहीं से शिक्षा के लिए खासतौर पर महिला शिक्षा के लिए अभियान चला देना चाहिए। इतिहास में ऐसे मौके कई बार आते हैं जब किसी समुदाय को राजनीतिक रूप से अलग थलग करने की कोशिश की जाती है। उसके नाम पर दूसरे समुदाय में झूठा भय पैदा करके ध्रुवीकरण की कोशिश की जाती है। और प्रताड़ित समुदाय को गलत भावुक मुद्दों में फंसाकर उसे और पीछे धकेलने की कोशिश की जाती है।

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दलितों के साथ इससे भी बुरी हो रही स्थितियों में बाबा साहब आम्बेडकर ने शिक्षा के महत्व को पहचाना। दलितों के लिए उनके संदेशों में पहला आव्हान यह था कि शिक्षित बनो। उन्होंने कहा कि “शिक्षा वह शेरनी का दूध है जो इसे पिएगा वे शेर की तरह दहाड़ेगा।“ उनसे भी पहले सर सैयद अहमद खां ने मुसलमानों के लिए मार्डन एजुकेशन के महत्व को पहचानते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी खड़ी की। जहां लड़कियों के लिए होस्टल बनवाए और शहर शहर घूमकर लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया।

हिजाब को लेकर कर्नाटक में जानबुझकर विवाद पैदा किया गया। तात्कालिक उद्देश्य तो पांच राज्यों के चुनाव विशेषकर यूपी में धार्मिक उन्माद पैदा करना था। मगर वास्तविक उद्देश्य मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा को रोकना है। शिक्षा के लिए तो कहा जाता है कि सरकार को इसे घर घर जाकर देना चाहिए। इसी उद्देश्य से रात्रि पाठशालाएं शुरू हुईं। प्रौढ़ शिक्षा अभियान अलग से चला। मोबाइल स्कूल इनके अलावा चलाए गए। स्कूलों में मिड डे मील की शुरूआत हुई। पिछले सत्तर साल में तमाम योजनाएं बनीं और काफी हद तक कामयाब भी हुईं कि शिक्षा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। यह कोई बताने की बात नहीं है कि एक शिक्षित देश ही प्रगति कर सकता है। नेहरू ने क्या किया पूछना तो बहुत आसान है मगर नेहरू ने जो किया वैसा करना क्या आज किसी के लिए संभव है? है वह दूरदृष्टि, बड़ा विजन कि जब उन्हें सत्ता मिली तो भारत की साक्षरता दर केवल 12 प्रतिशत थी। नेहरू ने शिक्षा आयोग, माध्यमिक शिक्षा आयोग, एनसीईआरटी, यूजीसी बनाए। आज जो साक्षरता की दर 78 प्रतिशत है वह उसी सोच और कोशिशों की देन है।

उच्च शिक्षा में तो भारत ने पूरी दुनिया में अपने झंडे गाड़े। प्रधानमंत्री मोदी को यह कहने में कुछ नहीं लगा कि 2014 से पहले भारतीय होना शर्म की बात थी मगर 2014 से बहुत पहले उच्च शिक्षा के क्षेत्र में  जो क्रान्ति हुई वह करना तो दूर सोचना भी क्या इनके लिए संभव है? वे आईआईटी ( इंडियन इंस्टिट्यूट आफ टेक्नोलाजी) का मुकाबला आईटीआई ( इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट) से करते हैं। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि आईटीआई में दसवीं के बाद ही एक और दो साल के कोर्स होते हैं और आईआईटी के लिए लाखों लड़के और लड़की कड़ी मेहनत करते हैं। इन्हीं आईआईटियन ने विदेशों में जाकर बताया है कि भारत विज्ञान और टेक्नोलाजी में भी किसी से कम नहीं है।

तो भारत में पहला आईआईटी नेहरू ने ही 1951 में खड़गपुर में बनवा दिया था और उसके बाद एक श्रंखला खड़ी कर दी। इसी तरह विदेशों में भारत के आर्थिक विशेषज्ञों की बहुत मांग और प्रतिष्ठा है। तो पहला आईआईएम भी नेहरू ने 1961 में अहमदाबाद में बनाया। और भारत के डाक्टरों के विदेशों में नाम और रुतबे के बारे में शायद कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। हां मगर यह बताना पड़ेगा कि मेडिकल में उच्च शिक्षा के लिए एम्स जैसा अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का कालेज भी नेहरू ने 1956 में बना दिया था। 

क्या क्या बताएं! विश्वविद्धालय केवल 27 थे। आज 800 के करीब हैं। इनमें भी सुदूर इलाकों में रहने वालों और कामकाजी लोगों के लिए दूरस्थ शिक्षा का एक अभिनव प्रयोग इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) के माध्यम से किया गया और उसकी सफलता और फायदों के बारे में आज भारत के बाहर भी चर्चा है। राजीव गांधी के नवोदय स्कूलों ने गांवों में शिक्षा की एक नई क्रान्ति खड़ी कर दी।

लेकिन यह सब बताना आज इसलिए जरूरी है कि वर्तमान सरकार शिक्षा की ही विरोधी है। सबसे पहले इसका हमला शिक्षा पर ही हुआ था। जेएनयू पर। उस जेएनयू पर जहां सबसे ज्यादा दलित, पिछड़े और बेकवर्ड इलाकों के छात्र, छात्राएं पढ़ते थे। अब तो वहां जिस तरह एक के बाद एक प्रतिक्रियावादी वीसी ला रहे हैं उसके बाद वहां के बारे में और देश की उच्च शिक्षा के बारे में राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त के शब्दों में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि “हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी!“

तो खैर वह शिक्षा के और सबकी शिक्षा के खिलाफ हैं। इसे प्राइवेट हाथों में देने की पूरी तैयारी है। सिर्फ पैसों वालों के बच्चे ही उच्च शिक्षा ले पाएंगे। मीडिया में साढ़े सात साल से यह माहौल बनाया जा रहा है कि हमारे टैक्स के पैसों से ये कम फीसों में पढ़ रहे हैं। होस्टल में इतना सस्ता खाना खाते हैं। मिडिल क्लास इस तरह का माहौल बनाने में सबसे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता है। जबकि वह यह भूल जाता है कि कल वह भी अपने बच्चों को इतनी मंहगी शिक्षा नहीं दिला पाएगा। वह यह भी भूल जाता है कि सरकारी स्कूलों और कालेजों में बिना फीस के या कम फीसों में पढ़कर ही वह आज मीडिल क्लास में आया है।

शिक्षा को दलित और पिछड़ों के पास से वापस लेने के कारण सामाजिक हैं। उन्हें उनके पारंपरिक, जातिगत कामों में ही फिर से धकेलना। तो मुसलमानों को रोकने के कारण राजनीतिक हैं। मुसलमान का नाम लेकर कुछ भी करने से उन्हें लगता है कि इससे हिन्दुओं का ध्रुवीकरण होगा। इससे उन्हें राजनीतिक लाभ होगा। मगर इस बार यूपी के चुनावों में पहले दौर की वोटिंग को देखते हुए तो यह लगता नहीं कि भाजपा अपने हिन्दु मुस्लिम अजेंडे में कामयाब हुई है। 10 फरवरी को हुए मतदान में तो किसान, महंगाई, बेरोजगारी, युवा, कोरोना से हुई मौतें और उस दौर की लाचारियां ही मुद्दा रहीं। मगर चूंकि भाजपा के पास कोई और मुद्दा ही नहीं है तो वह दूसरे दौर के आज 14 फरवरी के मतदान के लिए भी इसी पर टिकी हुई है।

भाजपा जमी रहे। मगर मुसलमानों को उसके जाल में फंसने से बचना चाहिए। कभी कभी आपका सबसे बड़ा विरोधी भी आपको एक नया रास्ता दे देता है। वही मौका यह है। मुसलमानों को समझाना चाहिए कि उसकी शिक्षा को किस तरह रोका जा रहा है। जेएनयू के बाद जामिया और एएमयू पर हमले हुए। और अब मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा पर। यह अकारण और अनायास नहीं है। पिछले दिनों सुल्ली डील और बुल्ली एप के जरिए शिक्षित और सामाजिक एकता के लिए लड़ने वाली मुस्लिम लड़कियों पर ही हमले किए गए।

विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही मुस्लिम लड़कियां पिछले दिनों बहुत हिम्मत और बेखौफी के साथ सामने आईं। शाहीन बाग का पूरा आंदोलन उन्होंने चलाया। जामिया यूनिवर्सिटी में लड़कियों पर ही ज्यादा लाठियां चलाई गईं। नागरिकता कानून के खिलाफ आवाज उठाने पर उन्हें गिरफ्तार करके यातनाएं दी गईं। जो पत्रकारिता में हैं उन्होंने सबसे ज्यादा सवाल उठाए। इसलिए हिजाब के नाम पर उन्हें वापस घरों में भेजने की साजिश को समझना होगा।

खुद मुसलमानों को भी यह समझाना होगा कि उनके बीच में भी ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो महिला शिक्षा के विरोधी हैं। यह पहले नहीं था। आज जो मुस्लिम लड़कियां लड़ रही हैं वे एक और दो पीढ़ी पहले पढ़ी हैं। मगर आज मुसलमानों में ही महिला शिक्षा के खिलाफ बहुत माहौल बनाया जा रहा है। ऐसा कभी नहीं था। मुसलमानों को इससे लड़ना होगा। और तालीम को, मार्डन एजुकेशन को ज्यादा से ज्यादा हासिल करना होगा। याद रखें आजम खान का सबसे बड़ा अपराध रामपुर में युनिवर्सिटी बनाना है। उन पर आपराधिक प्रकऱण है कि एक जगह से किताबें लाकर अपनी यूनिवर्सिटी में रखने का। इसे किताबों की चोरी कहा जा रहा है।

शिक्षा और महिला शिक्षा को मुसलमानों को अपने टाप अजेंडे पर रखना होगा। बहुत रोड़े अटकाए जाएंगे। मगर खुद मुसलमानों को यह समझना होगा कि फितूर फैलाए ही इसीलिए जा रहे हैं कि ऊंची शिक्षा के बाद उनकी तरक्की की राह रोकना किसी के बस की बात नहीं रहेगी। मुसलमानों के धार्मिक नेतृत्व के लिए यह बहुत बड़ा परीक्षा काल है। अगर इसमें वे महिला शिक्षा के साथ खड़े नहीं हुए तो मुसलमानों के पिछड़ेपन के सबसे बड़े दोषी वहीं होंगे। भाजपा जो कर रही है वह तो करेगी ही।

हिन्दुओं ने मुस्लिम लड़कियों का बहुत साथ दिया। कानून अपना काम करेगा। मामला कर्नाटक हाईकोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि वह देखेगा। अब सवाल मुस्लिम नेतृत्व का है। चाहे वह धार्मिक हो, या राजनीतिक, या सामाजिक जो बहुत कम है को आगे आकर शिक्षा की मशाल थामना पड़ेगी। किसी भी सूरत में शिक्षा की राह रुकना नहीं चाहिए। खासतौर पर लड़कियों की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)