अवाम के लिये ‘हीरो’ लेकिन सरकार की नज़र में ‘खलनायक’ हैं ये लोग, जानिए क्यों बंद हैं जेल में?

विक्रम सिंह चौहान

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इस सरकार की प्राथमिकता कभी देश के नागरिक नहीं रहे हैं. यह सरकार कोरोना महामारी में भी अपने वैचारिक विरोधियों से दुश्मनी निभा रही है. लोग जेल में मर रहे हैं , कोरोना वहां भी पहुंच गया है. पर ये सरकार उन्हीं जेलों को अपने वैचारिक विरोधियों से भर रहे हैं. दूसरी ओर हत्यारों को बेल व पेरोल दिया जा रहा है. कश्मीर के पत्रकार आसिफ सुल्तान को यूएपीए कानून लगा दो साल से जेल में रखा गया है. उन्हें सेना ने मुखबिरी करने कहा था, इंकार कर दिया. अब चरमपंथियों को साथ देने के घिसे -पीटे आरोप में जेल में हैं. कोरोना पर छोड़ने की अपील भी स्वीकार नहीं की गईं.

इधर महाराष्ट्र में दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जी एन सांईबाबा पर कथित तौर पर नक्सलियों के साथ एक बैठक करने का आरोपी हैं. अपने 5 साथियों सहित ढाई साल से जेल में हैं. 90 फीसदी विकलांग हैं प्रोफेसर साहब. इन्हें अंडा सेल में भी रखा गया. अब तक जेल में हैं. पत्नी बसंता सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक दरवाजा खटखटा चुकी हैं , पर पेरोल तक नहीं दिया गया. कोरोना महामारी में भी जेल में हैं. इन्हें अन्य गंभीर बीमारियां भी हैं.

डॉ कफील खान का नाम सभी जानते होंगे. गोरखपुर हॉस्पिटल मामले में इन्हें बलि का बकरा बनाया गया. इसके बाद इनकी सेवाएं खत्म की गईं. इन्होंने मानवता के नाते बिहार में चमकी बुखार, केरल में निपाह वायरस व बाढ़ के समय लोगों का प्रभावित क्षेत्रों में जाकर निःशुल्क इलाज किया. योगी सरकार हमेशा इस ताक में रही कि इन्हें पकड़ा जा सके. सीएए आंदोलन के दौरान ये मौका मिला और इन पर रासुका लगा मथुरा के जेल में बंद कर दिया गया है. इन्होंने पीएम को खत लिखकर कोरोना से डॉक्टर होने के नाते देश की सेवा के लिए छोड़ने की अपील की, पर अस्वीकार कर दिया गया. अब उनकी पत्नी शबिस्ता ने डॉक्टरों के फोरम को भावुक पत्र लिखकर पति की रिहाई के लिए विनती की है, पर ये सरकार इसे भी अनसुना कर रही है. सोचिये एक डॉक्टर को कैसा लग रहा होगा, जब महामारी में वे लोगों की सेवा नहीं कर पा रहे हैं.

एक बड़ा चेहरा जिसे हम सब जानते हैं, वे हैं आईपीएस संजीव भट्ट. वे 5 सितंबर 2018 से जेल में हैं. 22 साल पुराने कथित ड्रग प्लाटिंग केस में उन्हें गिरफ्तार किया गया. बाद में जून 2019 में उन्हें 30 साल पुराने हिरासत में कथित मौत मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गईं. उनकी पत्नी श्वेता भट्ट पति की रिहाई के लिए हरसंभव कोशिश की और अभी तक कर रही हैं. मोदी के सबसे बड़े विरोधियों में से एक संजीव भट्ट साहब हैं. उन्होंने गुजरात दंगों पर मोदी की सच्चाई पूरी दुनिया को बताई थीं कि दंगों में अल्पसंख्यक जब मारे जा रहे थे, तब मोदी ने पुलिस के हाथ बांध दिए थे. हिंदुओं को गुस्सा निकालने का अवसर देने कहा था. अब सत्ता में आने के बाद मोदी उनसे बदला ले रहे हैं. न्यायपालिका ने हाथ खड़े कर दिए हैं. महामारी के समय भी संजीव भट्ट जेल में हैं, जबकि जेल के कई कैदियों को पेरोल दिया गया है.

एक और बड़ा चेहरा जिसे हम सब जानते हैं वे हैं सुधा भारद्वाज जी. आदिवासी भाइयों के लिए अपना जीवन समर्पित करने वालीं असाधारण महिला. भीमा कोरेगांव केस में सिर्फ एक टाइप पत्र के आधार पर उन्हें यूएपीए कानून के तहत डेढ़ साल से जेल में बंद रखा गया है. उनके साथ तीन अन्य बुद्धिजीवी साथी जेल में हैं. इसी मामले में पिछले दिनों प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े की भी गिरफ्तारी एनआईए के कहने पर हुई है. महाराष्ट्र में शिवसेना ने सेक्युलर दल कांग्रेस व एनसीपी के साथ सरकार बनाई है. जब सरकार बनीं तो बहुत चर्चा थी कि इन्हें रिहा किया जाएगा. पर वह चर्चा तक ही सीमित रही. कोरोना काल के बीच में प्रोफेसर आनंद की गिरफ्तारी हुईं तो समझ लीजिए सरकार की प्राथमिकता क्या है, कोरोना या उनके वैचारिक विरोधी.

लोगों का ध्यान पर अभी कोरोना पर है, जबकि सरकार का ध्यान यूएपीए पर है. इसी कानून का इस्तेमाल पिछले दिनों कश्मीर के तीन पत्रकारों फोटोग्राफर जर्नलिस्ट मशरत जाहरा, द हिंदू’ अखबार के श्रीनगर संवाददाता पीरजादा आशिक व पत्रकार गौहर गिलानी के खिलाफ हुआ. दिल्ली दंगो से तार जोड़ते हुए कोरोना काल मे ही जामिया के छात्र सफूरा व मीरान की गिरफ्तारी हुई है, इन पर भी यूएपीए लगाया गया है. कुछ और लोग जो इस कानून की जद में कभी भी आ सकते हैं, उनमें अधिकतर कश्मीर से हैं, वे हैं आउटलुक पत्रिका के संवाददाता नसीर गनाइ, पत्रकार शेख़ सलीम और तारिक़ मीर , कामरान यूसुफ़ ( फ़्रीलांस पत्रकार) ऐसे ही हर राज्य के वैचारिक विरोधियों का एक डेटा मोदी सरकार ने तैयार किया है. कुछ गिरफ्तारियां सार्वजनिक भी नहीं की गई है. अपने वैचारिक विरोधियों को निपटाने में सरकार को कोरोना महामारी एक अवसर की तरह लग रहा है जब लोग अपनी जिंदगी बचाने में लगे हुए हैं,डरे हुए हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)