मोदी समेत कई अफसरों को क्लीन चिट देने वाली जकिया जाफरी की याचिका पर सुनवाई शुरू , क्या मिल पाएगा इंसाफ?

पूर्व सांसद एहसान जाफरी की गुजरात दंगे के दौरना गुलबर्ग सोसायटी में ह्त्या के मामले में  विशेष जांच दल की लचर जांच और  कई नामचीन लोगों को क्लीन चिट देने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में तीन दिन से चल रही बहस में सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल यह दिखाने के लिए कि एसआईटी ने कायदे से जाँच  ही नहीं की, सुप्रीम कोर्ट को बताया कि एसआईटी ने नरोदा से भाजपा की पूर्व विधायक माया कोडनानी को बरी करने के गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती नहीं दी है, जबकि उन्हें निचली अदालत ने 2002 के नरोदा पाटिया नरसंहार में ‘किंगपिन’ के रूप में पहचाना था। जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एसआईटी ने गुजरात में दंगों के मामलों की जांच अपने हाथ में ली थी, उस समय कोडनानी को मामले में एक प्रमुख आरोपी के रूप में नामित किया गया था। एसआईटी के अनुसार 28 फरवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के एक दिन बाद जब विश्व हिंदू परिषद (विहिप) द्वारा बुलाए गए बंद को लागू कराने के लिए भीड़ जमा हुई थी, उस समय कोडनानी ने, विहिप के गुजरात सचिव जयदीप पटेल के साथ भीड़ को भड़काने के इरादे से हेट स्पीच दी थी। घटना के 11 चश्मदीद थे। मुकदमे में विशेष अदालत ने पाया कि हिंसा की भयावहता काफी हद तक कोडनानी के कारण थी। अदालत ने उन्हें 28 साल की कैद की सजा सुनाते हुए कहा कि उन्होंने बंद के उद्देश्य से जमा हुई भीड़ को भड़काने में अहम भूमिका निभाई थी।

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उन्हें सह-षड्यंत्रकारियों को अपराध के लिए उकसाने और साजिश को अंजाम देने के लिए गैरकानूनी भीड़ को जमा करने का मुलजिम ठहराया गया था। 2012 में विशेष अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया था, जिसके बाद 32 दोषियों ने गुजरात हाईकोर्ट में अपील की थी, जिनमें कोडनानी भी एक थी। उनकी अपील पर लगभग छह बताये गए थे। 2014 में गुजरात हाईकोर्ट ने बीमारी के आधार पर उन्हें जमानत दे दी और उनकी सजा को निलंबित कर दिया गया। बाद में 2018 में यह देखते हुए कि 11 गवाहों के बयानों में विसंगतियां उनके अपराध को निर्णायक रूप से स्थापित करने में विफल रहीं, हाईकोर्ट ने कोडनानी को बरी कर दिया। कोर्ट ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि एसआईटी के सामने आने के बाद ही उसका नाम दंगों से जुड़ा।

गुजरात दंगों के मामले में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य उच्च पदाधिकारियों को विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा दी गई क्लीन चिट के खिलाफ जकिया जाफरी की याचिका पर बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि जो लोग भी एसैती से जुड़े थे उन्हें बड़े पदों दिए गए | सिब्बल ने न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ के समक्ष कहा, “सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन को अगस्त 2017 में साइप्रस का उच्चायुक्त नियुक्त किया गया।“

सिब्बल ने यह भी उल्लेख किया कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पीसी पांडे, जो शुरू में मामले के आरोपी थे, बाद में गुजरात के डीजीपी बने।यह याद दिलाते हुए कि एसआईटी का गठन उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा स्थानीय पुलिस में विश्वास की कमी व्यक्त करने के बाद किया गया था, सिब्बल ने कहा कि एसआईटी के निष्कर्ष तथ्यों के विपरीत थे। उन्होंने कहा कि 27 फरवरी को ही हिंसा शुरू हो गई थी, लेकिन एसआईटी का निष्कर्ष यह था कि कोई हिंसा या आगजनी नहीं हुई थी।

सिब्बल ने कहा कि एसआईटी ने इस बात की जांच नहीं की कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त ने यह क्यों कहा कि अंतिम संस्कार शांतिपूर्ण हुआ था, जबकि इसके विपरीत तथ्य थे। सिब्बल ने कहा, “आयुक्त क्या कर रहा था और क्यों कर रहा था। आयुक्त क्या कर रहा था यह हम जानते हैं, लेकिन हम यह नहीं जानते कि क्यों कर रहा था। इसकी जांच होनी थी। वह दिन भर अपने कार्यालय में बैठा था, वह कुछ नहीं कर रहा था। वे पूरे समय कार्यालय में थे, बाहर नहीं गए और आरोपी के साथ तीन बार बातचीत की। यह निंदनीय है। एसआईटी ने इसकी कोई जांच नहीं की है। एक आरोपी के रूप में वह (पांडे) गुजरात के डीजीपी बने। आरोपी से डीजीपी तक का सफर थोड़ा विचलित करने वाला है। उसने कहा कि वह कुछ नहीं जानता।”

विहिप के लोग लोक अभियोजकों के पास ले जा रहे थे और लोक अभियोजक इस तरह की बातचीत को स्वीकार कर रहे थे, लेकिन एसआईटी ने उन पहलुओं की जांच नहीं की। सिब्बल ने जोर देकर कहा, “एसआईटी ने अपना काम नहीं किया। यह एक जांच नहीं बल्कि यह आरोपियों को बचने के लिए प्रक्रिया थी । कपिल सिब्बल ने कहा – “मुझे व्यक्तियों से कोई सरोकार नहीं है, मैं प्रक्रिया से चिंतित हूं। यह सुरक्षा का कार्य है, जांच के लिए प्रतिबद्धता नहीं है।”

जाकिया जाफरी की तरफ से श्री सिब्बल ने यह भी बताया कि 2002 के दंगों के समय, विहिप से संबद्ध अधिवक्ताओं को लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने 17.05.2010 की एसआईटी रिपोर्ट को पढ़कर सुनाया, “ऐसा प्रतीत होता है कि लोक अभियोजकों की नियुक्ति के लिए अधिवक्ताओं की राजनीतिक संबद्धता सरकार के लिए मायने रखती थी।”

सिब्बल ने संकेत दिया कि इन नियुक्तियों ने अंततः विहिप और अन्य संबद्ध दलों के सदस्यों को जमानत पाने में मदद की, क्योंकि लोक अभियोजक ने जानबूझकर जमानत आवेदनों का विरोध नहीं किया। हालांकि एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में टिप्पणियां की थीं, लेकिन दंगा मामलों के संबंध में लोक अभियोजकों की नियुक्तियों की कोई जांच नहीं हुई। उन्होंने तर्क दिया कि एसआईटी ने जांच में “जानबूझकर कमियां” छोड़ी और दोषियों को पकड़ने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। सिब्बल ने तर्क दिया कि एसआईटी ने किसी भी आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया, उनके बयान दर्ज नहीं किए, उनके फोन जब्त नहीं किए, या घटना स्थाल का दौरा नहीं किया।

उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि एसआईटी ने तहलका पत्रिका द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन के टेपों को नजरअंदाज कर दिया, जिसमें कई लोगों ने हथियारों और बमों को जुटाने और हिंसा में अपनी भागीदारी के बारे में खुले बयान दिए थे। हालांकि नरोदा पाटिया मामले में दोषसिद्धि के लिए उन्हीं टेपों का इस्तेमाल किया गया था और हालांकि गुजरात हाईकोर्ट ने टेप की प्रामाणिकता का समर्थन किया था, लेकिन एसआईटी ने जकिया जाफरी की शिकायत में उनकी अनदेखी की। सिब्बल ने प्रस्तुत किया कि एसआईटी ने स्टिंग टेप में व्यक्तियों के फोन भी जब्त नहीं किए और उनके कॉल डेटा रिकॉर्ड एकत्र नहीं किए। सिब्बल ने इस बात पर प्रकाश डाला कि एसआईटी ने गुजरात के तत्कालीन एडीजीपी आरबी श्रीकुमार आईपीएस की गवाही को इस आधार पर खारिज कर दिया कि वह पदोन्नति से इनकार करने के कारण बयान दे रहे थे।

सिब्बल ने तहलका की रिपोर्ट के अंशों को भी पढ़ा और कहा कि उन्होंने 27 फरवरी 2002 से पहले बजरंग दल, विहिप और संघ परिवार के सदस्यों द्वारा हथियार जमा करने, डीजल और पाइप बम बनाने और अन्य राज्यों से गोला-बारूद आयात करने की साजिश को दिखाया था। उन्होंने बताया कि उन टेपों ने अहमदाबाद में एक विहिप कार्यकर्ता द्वारा संचालित खदान से डायनामाइट बमों की तस्करी की साजिश का सुझाव दिया था। सिब्बल ने कहा, इन पहलुओं की एसआईटी ने जांच नहीं की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)