भारत पर दिल्ली सल्तनत की हुकूमत थी, मंगोल लगातार भारत को लूटने का प्रयास कर रहे थे। उस समय जब चारों ओर असहिष्णुता बढ़ रही थी,इस दौरान एक संत ने दिल्ली में अपना डेरा जमाया और फिर यहीं का होकर रह गया। उसकी महफिल में हिंदू-मुस्लिमों सभी के लिए जगह थी। कोई धर्म-जाति के आधार पर जुदा न था और उसके विचारों ने समां में उदारता और सद्भाव का प्रवाह किया। यहां बात हो रही है चिश्ती सिलसिले के चौथे पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया की।
जी हां।।! वही निजामुद्दीन औलिया, जिन्होंने जलती हुई दुनिया में जैसे पानी डाला, सुकून-शांति की बात की और प्रेम का प्रसार किया। उन्होंने तमाम लोगों को बिना भेदभाव के अपनाया और गले लगाया! तो चलिए निजामुद्दीन औलिया और उनके सूफीवाद को जानने की कोशिश करते हैं>
बदायूं में जन्म और…
सूफी संप्रदाय या सिलसिला में सबसे मशहूर हज़रत निजामुद्दीन अपने शागिर्दों में तमाम प्रसिद्धी के कारण हज़रत शेख ख्वाजा सैयद मोहम्मद निजामुद्दीन औलिया बन गए। हजरत निजामुद्दीन का जन्म इस्लामी कैलेंडर के दूसरे ‘सफर’ महीने के आखिरी बुधवार को, 19 अक्टूबर 1238 ई। को यूपी के बदायूं में हुआ। इनका जन्मदिन ‘सालाना गुसल’ के रूप में हर साल मनाया जाता है।
बड़े हुए तो निज़ामुद्दीन हजरत फरीदुद्दीन गंजशकर के सरपरस्त हुए, तमाम शिक्षाएं और खूबियां अपने उस्ताद के जरिए ही उन्हें मिलीं। इन्होंने गुरु से मिली शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारा और सूफीवाद के माध्यम से उन्हें फैलाने का काम किया। वैसे सूफीवाद की जमीन इश्क से जुड़ी है। सूफी अनुयायियों को औलिया कहा जाता है, इसलिए समय के साथ हजरत निजामुद्दीन के नाम के साथ भी औलिया पदवी जुड़ गई। आगे चलकर हजरत निजामुद्दीन औलिया चिश्तिया सिलसिला के अग्रणी पीर बने। उदारता के कारण हजरत निजामुद्दीन औलिया के शागिर्द इन्हें ‘महबूब-ए-इलाही‘ यानी अल्लाह से मोहब्बत करने वाला नाम से भी बुलाते थे।
अहिंसा-प्यार का पैगाम
1258 ई। में जब मंगोलों ने मध्य और पश्चिमी एशिया की सांस्कृतिक जगहों को नष्ट किया, तब दिल्ली महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र बना। उस समय 20 साल की उम्र में हजरत निजामुद्दीन औलिया ने दिल्ली का सफर तय किेया और सूफीवाद को अपना लिया। हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने दिल्ली सल्तनत में तीन दौर देखे, जिसमें से एक दौर गुलाम वंश का था, दूसरा खिलजी और तीसरा तुग़लक वंश का। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये थी कि तमाम जंगों के बीच तमाम हिंसाओं के बावजूद बाबा निज़ामुद्दीन ने कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया। उन्होंने हमेशा हिंसा के खिलाफ उपदेश दिए और हिंसक लड़ाई व संप्रदायवाद का विरोध भी किया।
‘दिल्ली अभी दूर है’
दिल्ली अभी दूर है ये कहावत भी निज़ामुद्दीन औलिया से जुड़ी है। बात 1320 ई। के आसपास की है, तब दिल्ली सल्तनत का सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक था और निजामुद्दीन औलिया की अत्यधिक लोकप्रियता के कारण उसने उन्हें दिल्ली छोड़ने का आदेश दे दिया। हालांकि, इस दौरान खुद गयासुद्दीन दिल्ली में मौजूद नहीं थे। तब निज़ामुद्दीन ने जवाब में गयासुद्दीन तुगलक से कहा कि हनूज दिल्ली दूरअस्त यानी अभी दिल्ली दूर है। ये इत्तेफाक ही है कि बंगाल से लौटते समय गयासुद्दीन की मौत हो गई और ये अपनी मंजिल दिल्ली तक नहीं पहुंच सका।
खुसरो से विशेष लगाव की वजह
निजामुद्दीन औलिया की बात हो और उनके परम शिष्य अमीर खुसरो का जिक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। अमीर खुसरो के नाना और उनके पिता, दोनों ही निजामुद्दीन के पक्के मुरीद थे। बचपन से मिले संस्कारी और पारिवारिक माहौल ने अमीर खुसरो को निजामुद्दीन औलिया के काफी नजदीक ला खड़ा किया। इस तरह अमीर खुसरो 8 साल की अवस्था से ही निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गए और उनके सूफीवाद में ऐसा रम गए कि हज़रत निजामुद्दीन की मौत के बाद मानो उनकी आत्मा भी साथ चली गई हो, इसके कुछ ही दिन बाद इनकी भी मौत हो गई।
खुसरो अपने गुरु निजामुद्दीन से बहुत प्रेम मानते थे, यहां तक कि उन्होंने निजामुद्दीन औलिया को अपनी रचनाओं से भी दूर नहीं किया और जो कुछ भी उनकी कलम से लिखा गया, वह सब निजामुद्दीन से प्रेरित और उन्हीं पर खत्म था। कहा जा सकता है कि अमीर खुसरो के लिखे एक-एक शब्द में निजामुद्दीन औलिया की आत्मा बसती है। अमीर खुसरो और निजामुद्दीन औलिया का संबंध गुरु-शिष्य से भी बढ़कर मित्र और परम मित्र का था।
ऐसे में बाबा निजामुद्दीन कहते थे कि खुसरो मेरे विचारों का रखवाला है। कयामत वाले दिन मुझसे सवाल पूछा जाएगा कि तू धरती से क्या लाया, तो मैं खुसरो को आगे कर दूंगा।
गरीबों में बांट दिया खजाना
हजरत निजामुद्दीन औलिया उदार व्यवहार के व्यक्ति थे और कभी भी किसी से भेदभाव नहीं करते थे। उनके व्यक्तित्व की एक और मिसाल देखने को तब मिली जब उन्होंने गरीबों में मिला सारा धन बांट दिया। कहा जाता है कि खुसरो खां ने सत्ता के लालच में संतों और उलेमाओं को अपने पक्ष में करने के लिए राजकोष से हज़रत निजामुद्दीन को भी 5 लाख टंका दिया था, हालांकि उन्होंने ये रकम गरीबों में बांट दी। किन्तु, जब खुसरो ने अपनी रकम वापस मांगी, तो उन्होंने उसे लौटाने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी।
दिल में बसा खुदा’
लगभग 60 साल तक दिल्ली में रहने के कारण निजामुद्दीन औलिया ने दिल्ली के सात सुल्तानों का शासन देखा। और उनके संप्रदायवाद व उग्रवाद के बीच शांति, अहिंसा और प्रेम को प्रचारित किया। आज भी जब ये महान संत हमारे बीच मौजूद नहीं है, तब दिल्ली के लगभग बीच में स्थित हजरत निजामुद्दीन की दरगाह गंगा-जमुनी तहजीब और सहिष्णुता को बखूबी प्रचारित कर रही है। उनके चाहने वालों की कतार महफिल की ओर आज भी उसी ढर्रे से जारी है, जिस पर कभी अमीर खुसरो चला करते थे।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने दिल्ली में 7 सुल्तानों का शासन देखा, और उनकी तमाम शान ओ शौकत देखने के बावजूद कभी दिल्ली सल्तनत के दरबार मे कदम नहीं रखा। एक बार जब सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने उनसे मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर की तो संत निज़ामुद्दीन ने कहा कि “अगर वो इस दरवाज़े से अंदर आएगा तो मैं दूसरे दरवाज़े से बाहर चला जाऊंगा”।
वसंत पंचमी के मौके पर यहां पीले वस्त्र और फूलों का खुमार होता है। हिंदुस्तान की संस्कृति में ये आयोजन एक खास तरह के सद्भाव और सहिष्णुता का प्रतीक है। इस सूफी वसंत की शुरूआत खुद अमीर ख़ुसरो ने 12वीं सदी में की थी। हजरत निज़ामुद्दीन का मानना था कि खुदा इंसानों के दिल में रहता है, तो फिर इसे कैसे दुखाया जा सकता है। ताउम्र जो पैगाम और शिक्षाएं उन्होंने अपने शिष्यों को दीं, उसकी बदौलत आज भी सद्भाव की धारणा पूरे जहां को रोशन कर रही है।
(लेखक युवा पत्रकार हैं)