मोहम्मद राशिद यूसुफ़
जब अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीयों पर जुल्म की इंतेहा कर दी थी तभी भगतसिंह, चंद्र शेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ुल्ला खां और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे हजारों क्रांतिकारीयो ने अपने जीवन का बलिदान देकर हमें उस गुलामी और जुल्म से आज़ादी दिलाई, इन क्रांतिकारियों के बलिदान की गाथा इतिहास के पन्नो में सुनहरे शब्दो मे दर्ज है और हमेशा रहेगी।
अंग्रेजो की ग़ुलामी से मुक्ति मिली तो हमे हमारे द्वारा ही चुने गए नेताओ ने ग़ुलाम बना लिया, साम्प्रदायिकता की आग और भ्रषटाचार ने देश को खोखला करने में कोई कसर नही छोड़ी, आज तक नही छोड़ रहे। परंतु यह एक अच्छी बात है कि बेईमान लोगो के खिलाफ़ उस वक़्त भी आवाज़ बुलंद थी और आज भी है।
आज “सफ़दर हाशमी” का शहादत दिवस है 1 जनवरी को नाटक की प्रस्तुति के दौरान उन पर हमला किया गया और रात में (2 जनवरी को) उनकी मौत हो गयी, 34 साल के युवा रंगकर्मी को नाटक करते हुए महज़ इसलिए मार दिया था क्योंकि उसने अपनी आवाज़ बुलंद की थी उन लोगो के खिलाफ जो देश को खोखला करने में कोई कसर नही छोड़ रहे थे, सफ़दर को मारने वाले कोई भी रहे हो इतिहास में हमेशा सफ़दर को ही याद किया जाएगा, वही सफ़दर हाशमी जिसने “हल्ला बोल” नाटक सड़को पर करके हल्ला बोला व्यस्था के विरुद्ध और उस हल्ले की गूंज इतनी जबरदस्त थी जिसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते है कि उन लोगों के पास सफ़दर को मारने के अलावा कोई और रास्ता ना बचा था।
सफ़दर हाशमी ने इप्टा जैसे नाट्य संघठन से अलग होकर जन नाट्य मंच (जनम) बनाया। सीटू जैसे मजदूर संगठनो के साथ जनम का अभिन्न जुड़ाव रहा। इसके अलावा जनवादी छात्रों, महिलाओं, युवाओं, किसानो इत्यादी के आंदोलनो में भी इसने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। 1975 में आपातकाल के लागू होने तक सफ़दर जनम के साथ नुक्कड़ नाटक करते रहे और उसके बाद आपातकाल के दौरान वे गढ़वाल, कश्मीर और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर के पद पर रहे।
सफ़दर ने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए इंग्लिश किया हुआ था। आपातकाल के बाद सफदर वापिस राजनैतिक तौर पर सक्रिय हो गए और 1977 तक जनम भारत में नुक्कड़ नाटक के एक महत्वपूर्ण संगठन के रूप में उभरकर आया। एक नए नाटक ‘मशीन’ को दो लाख मजदूरों की विशाल सभा के सामने आयोजित किया गया। इसके बाद और भी बहुत से नाटक सामने आए, जिनमे निम्र वर्गीय किसानों की बेचैनी का दर्शाता हुआ नाटक ‘गांव से शहर तक’, सांप्रदायिक फासीवाद को दर्शाते हत्यारे और अपहरण भाईचारे का, बेरोजगारी पर बना नाटक ‘तीन करोड़’, घरेलू हिंसा पर बना नाटक ‘औरत’ और मंहगाई पर बना नाटक डीटीसी की धांधली इत्यादि प्रमुख रहे।
रंगमंच की एक महत्वपूर्ण इकाई “नुक्कड़ नाटक” को ज़िंदा रखने में सफ़दर ने कोई कसर नही छोड़ी थी जबकि आज के रंगमंच में नुक्कड़ नाटक कहि खो सा गया है, आज के युवा रंगकर्मियों को सफ़दर हाशमी के जीवन से प्रेणा लेने की आवश्यकता है। सफ़दर हाशमी के जीवन को जितने भी शब्दो मे लिखा जाए वह कम होगा, महज़ 34 साल के इस “युवा क्रांतिकरी रंगकर्मी” पर 1 जनवरी 1989 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद में सड़क पर नुक्कड़ नाटक “हल्ला बोल” करते हुए हमला किया गया जिस हमले में गम्भीर रूप से घायल सफदर हाशमी ने उसी रात (2 जनवरी) में दम तोड़ दिया।
इस लेख के माध्यम से मेरा सरकार से अनुरोध है कि सफ़दर हाशमी के जीवन को पाठ्यक्रम में शामिल कर छात्रों तक पहुंचाया जाए ताकि आने वाली नस्ल जान सके कि भगतसिंह के भारत मे ही सफ़दर हाशमी जैसे क्रांतिकारी भी जन्मे है और उन्होंने नुक्कड़ नाटक के माध्यम से घरेलू सामाजिक समस्यायों से जंग लड़ी और उसी जंग में अपने प्राणों की आहुति दे दी। ताकि वक़्त आने पर कोई भी हल्ला बोलने से ना घबराएं। सफ़दर हाशमी के शहादत दिवस पर उन्हें खिराज़-ए-अक़ीदत पेश करता हूँ। हल्ला बोल………
(लेखक थिएटर आर्टिस्ट हैं)