पलाश सुरजन
हरिद्वार की धर्म संसद में दिए गए भड़काऊ भाषणों के खिलाफ पत्रकार कुर्बान अली और वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश की याचिका, कांग्रेस के नेता और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के माफ़र्त सर्वोच्च न्यायालय में बीते दिनों स्वीकार कर ली गई। इस धर्म संसद को लेकर कई जनहित याचिकाएं दायर हुई हैं, जिन पर सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई कर रहा है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली बेंच ने श्री सिब्बल की दलीलों पर गौर किया कि देश में सत्यमेव जयते की जगह अब शस्त्रमेव जयते का नारा दिया जा रहा है और ज़हर बुझे भाषण देने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होने के बावजूद अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है। गौरतलब है कि अंजना प्रकाश स्वयं पटना उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रही हैं और अब सर्वोच्च न्यायालय में वकालत कर रही हैं। वे सर्वोच्च न्यायालय के उन 76 वकीलों में भी शामिल हैं जिन्होंने पिछले दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर धर्म संसद की आड़ में दिए गए भड़काऊ भाषणों पर संज्ञान लेने का अनुरोध किया था।
इस साल की शुरुआत में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी धर्म के नाम पर की जा रही राजनीति को लेकर नाराजगी जताई थी। उन्होंने बहुत साफ़ शब्दों में देशवासियों को संदेश दिया कि किसी और के धर्म की आलोचना करना और समाज में मतभेद पैदा करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। इस देश में हर एक व्यक्ति को अपने विश्वास के आधार पर किसी भी धर्म को मानने की इजाजत है। केरल के कोट्टायम ज़िले में कैथोलिक समुदाय के आध्यात्मिक नेता और समाज सुधारक संत कुरियाकोस इलियास चावरा की 150वीं पुण्यतिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम में श्री नायडू ने कहा, ‘अपने धर्म को मानें, लेकिन नफ़रती भाषणों में न पड़ें। इस तरह के काम हमारी संस्कृति, विरासत, परंपरा और संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता हर भारतीय के खून में है और पूरी दुनिया में भारत का सम्मान उसकी संस्कृति और विरासत की वजह से ही है। इसलिए नफ़रत फैलाने वालों को दूर रखें।
दूसरी तरफ बेंगलुरु और अहमदाबाद के भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) के लगभग दो सौ छात्रों और प्राध्यापकों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर देश में अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमलों और नफ़रत भरे भाषणों पर चिंता जताई है और यह भी कहा है कि इस मसले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी निराशाजनक है, उसने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है, साथ ही देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा भी पैदा किया है। वे आगे लिखते हैं कि हम एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते हैं जो विश्व में समावेशिता और विविधता का एक उदाहरण बने। हमारा मानना है कि कोई समाज सृजनात्मकता, नवाचार और विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है या अपने ही भीतर बंटवारे की लकीर खींच सकता है। इसलिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री, विभाजनकारी शक्तियों को दूर रखकर देश को आगे ले जाएं। पत्र का उद्देश्य बताते हुए कहा गया है कि अगर नफ़रत को बढ़ावा देने वालों की आवाज़ें तेज हैं तो तर्क देने वालों की आवाज़ें भी तेज होनी चाहिए।
साम्प्रदायिकता के विरोध में आवाजों पहले भी उठती रही हैं लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि सर्वोच्च न्यायालय के वकील और देश के प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थानों के छात्र इस मुद्दे पर आगे आए हैं और संवैधानिक पद पर बैठे एक राजनीतिज्ञ को भी अपनी नाराजगी जाहिर करनी पड़ी हो। धर्म संसदों में अधर्म की बातें न की गई होतीं और मुसलमानों की तरह मसीही समुदाय को निशाना न बनाया गया होता तो साम्प्रदायिकता पर इनकी चिंताएं इतनी मुखर नहीं होतीं। हालांकि इन घटनाओं से पहले अश्विनी उपाध्याय – जो वकील और भाजपा के नेता हैं, ने भी भड़काऊ भाषणों और साम्प्रदायिकता को बढ़ाने वाली अफवाहों को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। उनका कहना है कि नागरिकों पर इन बातों का गंभीर असर होता है। इनके जरिए समाज को जातीय उन्माद और नरसंहार की तरफ धकेला जा रहा है। श्री उपाध्याय ने अदालत से आग्रह किया है कि वह केंद्र सरकार को इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए दिशा-निर्देश बनाने को कहे।
अश्विनी उपाध्याय की याचिका आश्चर्य पैदा करती है, क्योंकि उनकी पार्टी की विचारधारा जगजाहिर है। श्री नायडू का वक्तव्य महत्वपूर्ण है, लेकिन आश्चर्य उस पर भी होता है, क्योंकि वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। श्री उपाध्याय तो आजादी की सौंवी वर्षगांठ तक हिन्दुस्तान के पाकिस्तान बन जाने की आशंका व्यक्त करते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाए जाने की मांग कर चुके हैं। अब अचानक उनका हृदय परिवर्तन हुआ है या उनकी याचिका के पीछे कोई और कारण है, यह आने वाला समय में ही पता चलेगा। इस बीच वसीम रिज़वी उर्फ जितेन्द्र नारायण त्यागी और यति नरसिम्हानन्द को उत्तराखण्ड पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है। लेकिन इस बात का इंतज़ार तो रहेगा ही कि इस संवेदनशील मुद्दे पर पर देश की सबसे बड़ी अदालत क्या फ़ैसला देती है और क्या उससे पहले प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी तोड़ते हैं।
ज़रूरत अब यह भी है कि वे तमाम लोग, जो देश की एकता-अखंडता और स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के सम्मान के लिए फ़िक्रमंद हैं, मुल्क में अमन-चैन और तरक्की चाहते हैं, नफ़रत का फैलाव और सांप्रदायिक उन्माद रोकने के लिए अदालत और सरकार का मुंह ही न देखते रहें। सोशल मीडिया के जरिए अपना विरोध जताने या सड़क पर छुटपुट आंदोलन करने के बजाय वे एक मंच पर आएं और कोई साझा रणनीति तैयार करें। पानी हमारे सिरों से गुजरने ही वाला है।
(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)