हलीमा एडेन
पिछली कई पीढ़ियों से अराजकता और बदहाली झेल रहे सोमालियाई लोगों को अगले कितने दशकों में चैन की जिंदगी नसीब होगी, कोई नहीं जानता। आज भी यह देश नाकाम मुल्कों की पहली कतार में खड़ा है। ऐसे में, वहां से जान बचाकर भागे या सुकून का जीवन जीने की आस लिए निकले लोगों में से जब भी कोई सोमालियाई किसी अन्य देश में नाम कमाता है, तो अपने हताश देशवासियों के लिए वह किसी ‘लैंपपोस्ट’ से कम नहीं होता। हलीमा एडेन को सोमालियाई इसी निगाह से देखते हैं, हालांकि वह दुनिया की अनगिनत लड़कियों की प्रेरणास्रोत हैं।
देश में गहराते गृहयुद्ध से डरा-सहमा हलीमा का परिवार भागकर केन्या आ गया था। वहां काकुमा के शरणार्थी शिविर में उन्हें पनाह मिल गई थी। इसी शिविर में 19 सितंबर, 1997 को हलीमा पैदा हुईं। माता-पिता नारकीय जिंदगी से भागकर वहां आ तो गए थे, लेकिन शरणार्थी शिविर से मुक्ति पाना आसान न था। उन्हें कई स्तरों पर जूझना पड़ रहा था। कहां तो रूढ़ियों-रवायतों से घिरा सोमालिया का बंद समाज और कहां केन्या का खुलापन! दोनों के बीच संतुलन बिठाना भी आसान न था।
इस बीच एक और नन्हा मेहमान परिवार में आ चुका था। शरणार्थी शिविरों के बाहर की जिंदगी का आकर्षण तो अपनी जगह था ही, बच्चों के मुस्तकबिल की चिंता अब अधिक सताने लगी थी। कुछ वर्ष केन्या में गुजारने के बाद आखिरकार हलीमा का परिवार अमेरिकी सूबे मिनेसोटा के सेंट क्लाउड में आ बसा। उस वक्त हलीमा छह साल की थीं। वह सोमाली व स्वाहिली जुबान ही जानती थीं, मगर दाखिला अंगे्रजी माध्यम के स्कूल में लेना पड़ा।
शुरू-शुरू में तो भाषा संबंधी दिक्कतें आईं, मगर स्कूल के प्रोत्साहन भरे माहौल ने हलीमा के भीतर ऐसा आत्मविश्वास भरा कि उन्होंने इस मोर्चे पर सबको पीछे छोड़ दिया और एक वक्त वह भी आया, जब अपोलो हाईस्कूल के सहपाठियों ने उन्हें ‘होमकमिंग क्वीन’ यानी सबसे पसंदीदा छात्रा चुना। इससे पहले कभी किसी मुस्लिम-सोमाली लड़की को इस सम्मान के योग्य नहीं माना गया था। हाईस्कूल और कॉलेज स्तर पर ‘होमकमिंग क्वीन’ का चयन अमेरिका की एक अहम सांस्कृतिक परंपरा है और इसने सेंट क्लाउड शहर की नौजवान आबादी तक हलीमा का नाम पहुंचा दिया।
साल 2016 की बात है। ‘मिस मिनेसोटा यूएसए’ का आयोजन हुआ था। हलीमा ने इसमें भाग लेने का फैसला किया। प्रतियोगिता के 65 सालों के इतिहास में यह पहला मौका था कि एक युवती हिजाब पहनकर उतर रही थी। इस एक बात ने उन्हें अगले दिन के अमेरिकी अखबारों में सुर्खियां दिला दी। आखिरी 15 तक पहुंचने वाली हलीमा वह प्रतियोगिता तो नहीं जीत सकीं, लेकिन तब तक वह कई बड़ी हस्तियों की निगाह में आ चुकी थीं। अगले ही साल उन्होंने फैशन की दुनिया की मशहूर अमेरिकी एजेंसी ‘आईएमजी मॉडल्स’ के साथ तीन साल का करार किया।
फरवरी 2017 में न्यूयॉर्क फैशन वीक से मॉडलिंग की दुनिया में कदम रखने वाली हलीमा ने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक ऐसे दौर में, जब दुनिया में नस्लीय पहचान और लिबास को लेकर वितंडा खड़ा किया जा रहा था, हलीमा पूरी मजबूती के साथ हिजाब के साथ खड़ी रहीं। जिस आईएमजी एजेंसी से जुड़ने के लिए दुनिया भर की मॉडल तरसती हैं, हलीमा ने उसके साथ अनुबंध में यह शर्त रखी कि वह कभी हिजाब के साथ कोई समझौता नहीं करेंगी। मशहूर अमेरिकी खेल पत्रिका स्पोट्र्स इलस्ट्रेटेड ने उनकी तस्वीर के साथ दुनिया को यह पैगाम दिया कि अलग-अलग पृष्ठभूमि, रूप-रंग, परवरिश वाली महिलाएं एक साथ खड़ी हो सकती हैं और उनके साथ जश्न मनाया जा सकता है।
दुनिया के सभी मशहूर फैशन कार्यक्रमों में शिरकत कर चुकीं हलीमा को यूनिसेफ ने साल 2018 में अपना दूत बनाया। इस भूमिका के साथ वह केन्या के उस शरणार्थी शिविर में भी गईं, जहां उन्होंने होश संभाला था। तीन वर्षों तक उन्होंने शरणार्थी बच्चों के अधिकारों के पक्ष में आवाज उठाई। आज वह काकुमा के बच्चों की रोल मॉडल हैं। हलीमा ने अपने करियर के लिए अपनी धारणाओं से कभी समझौता नहीं किया। बल्कि एक मोड़ वह भी आया, जब उन्होंने शो बिज की दुनिया छोड़ने का एलान कर दिया था, लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि वह दुनिया की पहली सोमाली मिस यूनिवर्स बनना चाहती हैं।
एक लोकप्रिय सुपरमॉडल के तौर पर हलीमा एडेन की कामयाबी दुनिया के आगे एक मिसाल है कि यदि आत्मविश्वास और काबिलियत हो, तो रंग-रूप, नस्ल और लिबास कभी आपकी राह में बाधक नहीं बन सकते। आप अपनी शर्तों पर सफलता का स्वाद चख सकते हैं। बीबीसी ने बीते साल हलीमा को दुनिया की 100 सबसे प्रभावशाली महिलाओं में शुमार किया है।
प्रस्तुति: चंद्रकांत सिंह (सभार हिंदुस्तान)