आज 27 दिसम्बर को हकीम अजमल खान की 93 वी पुण्य तिथि है. ये कौन हैं? सारे दिन सावरकर या गोडसे की जिंदगी पर बहस करने वाले दोनों पक्षों को यह पता ही नहीं कि वे राष्ट्रीय विचारधारा के समर्थक और यूनानी चिकित्सा पद्धति के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। हकीम अजमल ख़ाँ अपने समय के सबसे कुशाग्र और बहुमुखी व्यक्तित्व के रूप में प्रसिद्ध हुए। भारत की आज़ादी, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के क्षेत्रों में उनका योगदान अतुलनीय है। वे एक सशक्त राजनीतिज्ञ और उच्चतम क्षमता के शिक्षाविद थे।
‘‘वे उस दौर के सर्वमान्य नेता थे। सन 1900 के आसपास दिल्ली में होने वाला कोई भी जलसा उनके बगैर हो ही नहीं सकता था। वे जमात ए इस्लामी के सम्मेलन की सदारत करते थे। कांग्रेस के शीर्ष नेता थे, 1927 तक गांधीजी के प्रमुख सलाहकार रहे। वे भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के हिमायती थी, व डाक्टर के तौर पर उनकी शोहरत पूरे एशिया में थी। आज से 93 साल पहले वे मरीज देखने के लिए दिल्ली से बाहर जाने की फीस पूरे एक हजार रूपए लेते थे। दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया उनकी देन है। यहां तक कहा गया कि यदि हकीम साहब जिंदा होते तो देश का विभाजन ही नहीं होता।’’
हकीम अजमल ने यूनानी चिकित्सा की देशी प्रणाली के विकास और विस्तार में काफ़ी दिलचस्पी ली। हकीम अजमल ख़ाँ ने शोध और अभ्यास का विस्तार करने के लिए तीन महत्त्वपूर्ण संस्थाओं का निर्माण करवाया, दिल्ली में सेंट्रल कॉलेज, हिन्दुस्तानी दवाखाना तथा आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज; और इस प्रकार भारत में चिकित्सा की यूनानी प्रणाली को विलुप्त होने से बचाने में मदद की। यूनानी चिकित्सा के क्षेत्र में उनके अथक प्रयास ने ब्रिटिश शासन में समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी भारतीय यूनानी चिकित्सा प्रणाली में नई ऊर्जा और जीवन का संचार किया। अजमल ख़ाँ की हकीम के रूप में देशव्यापी ख्याति थी।
1918 में हकीम अजमल ख़ाँ कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। हकीम साहब के राजनीति में प्रवेश करते ही उनका घर (उनका पुश्तैनी घर आज भी बल्लीमारान में शरीफ मंज़िल के नाम से प्रसिद्ध है) राजनीतिज्ञों का केंद्र बन गया। उन दिनों शरीफ मंज़िल में नेताओं के आने जाने से बहुत चहल पहल बनी रहती थी। हकीम साहब एक बड़े तख्त पर बैठ कर नेताओं से विचार विमर्श करते रहते थे। गुप्त बात के लिए आँगन में लगे हुए छोटे कमरे में बैठते थे। उस छोटे से कमरे में ना जाने कितनी समस्याओं का समाधान किया गया था, जिसमें आजकल सन्नाटा छाया रहता है।
हकीम साहब की योजना के अनुसार 30 मार्च, 1919 ई. को दिल्ली में सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी। इस हड़ताल को सफल बनाने के लिए उन्होंने बहुत दौड़-धूप की थी। उनके इस कार्य की बड़े-बड़े नेताओं ने दिल खोलकर प्रशंसा की थी। 1919 ई. के अन्तर में उनके प्रयत्नों से ही शहीदों का शानदार स्मारक बना, जिसकी देश के बड़े-बड़े नेताओं ने प्रशंसा की। 1921 में आपने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन की और ख़िलाफ़त कांग्रेस की अध्यक्षता की। ‘ऑल इण्डिया गो रक्षा कांफ़्रेंस’, जिसके अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे, स्वागत समिति की अध्यक्षता का दायित्व भी हकीम साहब ने ही उठाया था। उस सम्मेलन में मुसलमानों से अपील की गई थी कि, वे इस मामले में हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करें। हकीम साहब ने 1918 ई. से लेकर 1927 तक स्वतंत्रता आन्दोलन की राजनीति में खुल कर भाग लिया था। 1927 ई. में यह महापुरुष परलोक सिधार गया था।
यह हमारी पाठ्य पुस्तकों का ही दुर्भाग्य ही है कि ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के लोगों को पुस्तकों में उचित स्थान नहीं मिला । वीर सावरकर की विवादास्पद भूमिका पर तो सड़क-चौराहों पर बहसें हुई लेकिन हकीम साहब जैसे लो गों की भारतीय समाज को देने से परिचय करवाने में हमारी शिक्षा प्रणाली, बुद्धिजीवी और सरकार व समाज सभी की भूमिका निराशा जनक रही है। पं. जवाहरलाल नेहरू ने आत्मजीवन चरित में शुरू के कुछ पन्नों पर हकीम साहब के बारे में लिखा है । ऐसी विभूतियों को जाति व क्षेत्र के बाहर रख कर उनका मूल्यांकन इस पीढ़ी को प्रस्तुत करना देष को नई दिषा देगा । इसके लिए लेखकों, सरकार और समाज को अपने संकुचित नजरिए से उबरना होगा।
हकीम साहब को केवल मुसलमान ही क्यों याद रखें? उन पर केवल उर्दू में ही क्यों लिखा जाए? नेशनल बुक ट्रस्ट ने उनकी जीवनी पहले उर्दू में और फिर उसका हिंदी अनुवाद छापा है, यह किताब केवल हाकिम अजमल खान की जीवनी मात्र नहीं हैं , यह इस समय का इतिहास है कि किस तरह हिन्दू-मुस्लिम एक साथ आज़ादी के लिए लड रहे थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)