भगत सिंह को फांसी न हुई होती तो भारतीय वामपंथ का अलग चेहरा उभरकर सामने आया होता!

उर्मिलेश

डॉक्टर बी. आर. अम्बेडकर का निधन सन् 1956 में हुआ। उससे 25 साल पहले, भगत सिंह को 1931 में औपनिवेशिक हुकूमत ने फांसी दी थी। तब से अब तक गंगा और गोदावरी में न जाने कितना पानी बह गया! अपने देश में कितनी सरकारें बनीं, कितने सारे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति हुए! कितने विश्वविद्यालय और पुस्तकालय खुले! कितने सारे प्रकाशक और लेखक हुए! पर आज भी मैं जब भारतीय समाज, धर्म, शिक्षा, शासन-प्रशासन, कृषि, विकास या लोकतंत्र पर  डॉक्टर अम्बेडकर को पढ़ता हूं तो हर बार उनके लेखन से कुछ नया ज्ञान मिलता है।

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आज सुबह 5 बजे से ही मैं हिंदू कहे जाने वाले धर्म या हिंदुत्व पर डाक्टर अम्बेडकर को पढ़ रहा था। अलग-अलग जगहों या पुस्तकों में बाबा साहेब ने हिंदू धर्म पर कहां, क्या कहा, इसे एक जगह एकत्र कर रहा था। उन्होंने बहुत तर्कसंगत और तथ्यपरक ढंग से अपने पाठकों या श्रोताओं को समझाया है कि क्यों और कैसे हिंदू कहा जाने वाला धर्म वस्तुतः वर्ग-नैतिकता का कानून है! यह आदेश-निषेध की संहिता है, जिसे लोग धर्म कह देते हैं!

बाबा साहेब ने अपने इस मंतव्य की अलग-अलग जगहों और संदर्भों मे जैसी व्याख्या की है, वह सचमुच बेमिसाल है। जरूरी नहीं कि अम्बेडकर साहब की हरेक बात या सोच से आपकी सौ फीसदी सहमति हो। पर भारतीय समाज के हर प्रासंगिक मसले पर उनका लेखन बिल्कुल नयी और तथ्यपरक समझदारी देता है। विचार के बिल्कुल नये पहलुओं को सामने लाता है। भारतीय संदर्भ में धर्म की जैसी समझदारी उनके पास है, वैसी मुझे अन्यत्र कहीं नहीं दिखती।

विडम्बना ये कि अपने मुल्क के ज्यादातर बहुजन नेताओं, यहा तक कि प्रगतिशील राजनेताओं ने भी धर्म, राजनीति, अर्थनीति, विधान और बदलाव जैसे विषयों पर अम्बेडकर को ठीक से पढ़ा नहीं। पढ़ा तो फिर समझा नहीं! अगर पढ़ा और समझा होता तो देश में बहुजन, खासकर उत्पीड़ित समाज और उसकी राजनीति की ऐसी दुर्गति क्यों होती! भारत में मार्क्स को पढ़ने, समझने और उनके रास्ते पर चलने का दावा करने वालों ने अगर अम्बेडकर-वैचारिकी से जोड़कर भारत में मार्क्सवाद का ककहरा सीखा और लोगों को सिखाया होता तो आज हमारे देश और समाज का रूप-रंग ही कुछ और होता!

बीते कुछ सालों से मैं डा अम्बेडकर और भगत सिंह को लगातार पढ़ने-समझने की कोशिश करता रहा हूं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि भगत सिंह को फांसी न होती और उन्हें पूरी जिंदगी मिली होती तो भारतीय वामपंथ का बिल्कुल अलग चेहरा उभरकर सामने आया होता! देर-सबेर अम्बेडकर और भगत सिंह एक मंच या मोर्चेबंदी का हिस्सा होते!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)