एक बार फिर देश में बाबरी मस्जिद का इतिहास दोहराया जा रहा है। वही सब कुछ हो रहा है जो बाबरी मस्जिद के लिये किया गया था। पहले बयान-बाज़ी, फिर भगवान् को पक्ष बनाकर मुक़द्दमा दर्ज, फिर अदालत के ज़रिए जाँच के आदेश, मीडिया पर डिबेट, आस्था और विश्वास की बहस, यहाँ तक का सफ़र हो चुका है। इसके बाद ज़ाहिर है किसी दिन वहाँ अतिवादी जमा होंगे, मस्जिद पर चढ़ेंगे और तोड़ देंगे। कुछ राजनेता घड़ियाली आँसू बहाएँगे। अदालतों में सुनवाई होगी। मुस्लिम लीडरशिप से वादा लिया जाएगा कि अदालत का फ़ैसला स्वीकार करेंगे। इसके बाद आस्था को बुनियाद बनाकर हिन्दू पक्ष के हक़ में फ़ैसला कर दिया जाएगा।
इस तरह एक और मस्जिद का ज़मीन से नामो-निशान मिटा दिया जाएगा। ये कार्यवाही ठीक उसी तरह होगी जिस तरह बाबरी मस्जिद के मुक़द्द्मे में हुई थी। मुसलमान सब्र करेंगे और हिन्दू अपनी जीत के बाद मथुरा की शाही ईदगाह की तरफ़ बढ़ेंगे। यह सिलसिला उस वक़्त तक जारी रहेगा जब तक कोई इन्साफ़-पसन्द सरकार सत्ता में न आ जाए। मौजूदा सरकार से किसी भी अच्छाई और भलाई की उम्मीद करना बेकार है। इसका अपना एजेंडा है, इसका अपना एक नज़रिया है जिसकी बुनियाद ही भेदभाव, ऊँच-नीच और ज़ुल्म पर रखी हुई है।
मस्जिद को तोड़कर मन्दिर बनाने के सिलसिले को जारी रखना देश की सियासत के लिये ज़रूरी है। अगर यह नहीं किया गया तो जनता का रुख़ असल मुद्दों की तरफ़ हो जाएगा। मस्जिद-मन्दिर की सियासत को हवा देने की दूसरी वजह मुसलमानों को ज़ेहनी परेशानी में रखना है ताकि वो अपने विकास के बारे में न सोच सकें। मुस्लिम लीडरशिप को भी उलझा कर रखना है कि वो कोई अच्छी और सही प्लानिंग न कर सकें, अपोज़िशन को भी इम्तिहान में डालना है कि वो अगर मस्जिद का समर्थन करे तो हिन्दुओं की नाराज़गी मोल ले। अगर मस्जिद के ख़िलाफ़ बयान दे तो मुसलमानों के वोट से महरूम हो जाए।
हम पिछले चालीस साल से यही कुछ देख रहे हैं। बाबरी मस्जिद के मामले में रथ-यात्राओं से लेकर उसके गिराए जाने तक और गिराए जाने से लेकर अदालत के फ़ैसले तक पूरी मज़हबी और सियासी लीडरशिप इसी में उलझकर रह गई थी। मौजूदा फासीवादी सरकार के दौर में दर्जनों बार संविधान का मज़ाक़ उड़ाया गया। मगर इस बार ये मज़ाक़ ख़ुद अदालत की ओर से उड़ाया जा रहा है। जो बहुत ही ज़्यादा अफ़सोसनाक है।
क्या कहता है क़ानून
1991 में उस वक़्त की कॉंग्रेस सरकार ने पार्लियामेंट में एक क़ानून ‘The Places Of Worship (Special Provision) Act, 1991’ बनाया था, जिसके मुताबिक़ बाबरी मस्जिद को छोड़कर बाक़ी तमाम धार्मिक स्थलों की वही हैसियत रहेगी जो आज़ादी के वक़्त 1947 में थी। यह क़ानून मौजूद है।
इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद का फ़ैसला सुनाते वक़्त संविधान की बुनियाद का ख़ास हिस्सा बताया था। उस वक़्त के ग्रह-मंत्री ने इस एक्ट की व्याख्या करते हुए कहा था कि हम पिछली ग़लतियों की सज़ा मौजूदा दौर में किसी को नहीं दे सकते। इसलिये यह एक्ट लाया गया है। ग्रह-मंत्री के ये शब्द भी सुप्रीम-कोर्ट ने अपने फ़ैसले में दर्ज किये हैं।
जब तक ये क़ानून मौजूद है किसी भी धार्मिक स्थल की मौजूदा सूरत बदलने पर कोई बहस नहीं की जा सकती। न कोई अपील की जा सकती है। क़ानून के मुताबिक़ अपील करने पर तीन साल की सज़ा का हुक्म है। इसी एक्ट की बुनियाद पर उत्तर-प्रदेश हाई कोर्ट पहले ही अपील ख़ारिज कर चुकी है। इसके बाद पक्ष बदल कर ज़िला अदालत में मुक़दमा दर्ज किया गया। अदालत ने क़बूल कर लिया और सर्वे का आदेश दे दिया। यह सारा अमल संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ है। हाई-कोर्ट से ख़ारिज हो जाने के बाद ज़िला अदालत का सुनवाई करना हाई-कोर्ट की तौहीन है।
इस मामले में हिन्दू पक्ष की बद-नियती और अदालत का अ-संवैधानिक अमल यहीं तक नहीं रुका। बल्कि 16 मई को जब सुबह 8 बजे सर्वे शुरू हुआ, चूँकि सर्वे के दौरान किसी को मोबाइल ले जाने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन विष्णु जैन (जो सर्वे टीम का हिस्सा थे) ने झूट बोलकर कि मेरे पिता की तबीअत ख़राब है, मोबाइल दे दीजिये, मैं उनसे बात करके देता हूँ। उन्होंने फ़ोन से अपने वालिद से बात करके सर्वे की गोपनीयता भंग करते हुए उन्हें कोर्ट भेज दिया।
बनारस की अदालत की परंपरा है कि कोई भी एप्लिकेशन अगर 12 बजे से पहले दाख़िल हुई है तो उस पर फ़ैसला दो बजे के बाद ही सुनाया जाता है। कलेक्टरेट की छुट्टी होने की वजह से बार एसोसिएशन यह आदेश जारी कर चुकी थी कि कोई भी फ़ैसला किसी पक्ष की ग़ैर-मौजूदगी में न दिया जाए। मगर अदालत ने दूसरे पक्ष की ग़ैर-मौजूदगी में ही विष्णु जैन के पिता हरिशंकर जैन की अपील पर 12 बजे ही फ़ैसला सुना दिया। जबकि उसी अदालत के निर्देश पर दोनों पक्ष सर्वे कमिश्नर के साथ मस्जिद का मुआयना करा रहे थे।
बाबरी दोहराने की साज़िश
इस तरह का खेल बाबरी मस्जिद के मामले में भी हुआ था। दिसंबर 1949 में इशा के बाद चोरी से मूर्तियाँ रखी गईं, सुबह को शोर मचा दिया कि राम-लला प्रकट हो गए। फिर ज़िला अदालत ने मस्जिद पर ताला लगा दिया। यहाँ पर भी अदालत ने अपने बनाए हुए कमिशन की रिपोर्ट से पहले, बार-एसोसिएशन के फ़ैसले के ख़िलाफ़, मुस्लिम पक्ष की ग़ैर-मौजूदगी में वुज़ू ख़ाने को सील करने और 20 लोग तक ही नमाज़ पढ़ सकते हैं, का आदेश दे दिया।
भारत एक प्राचीन देश है। यहाँ हुक्मराँ बदलते रहे हैं। पुराने शहरों के नीचे ज़मीन में बहुत कुछ हो सकता है। कोई ज़माना था जब भारत की धरती पर बौद्धों और जैनियों का राज हुआ करता था। फिर आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म का प्रचार किया और उन्हें हिन्दू बनाया गया। इसी के साथ बौद्ध और जैन मन्दिरों को तोड़ कर हिंदू मन्दिर बनाए गए। आप प्राचीन मन्दिरों की जड़ों में जाकर देखिये। आपको बौद्ध और जैन मन्दिरों के आसार नज़र आएँगे। इसी तरह प्राचीन आबादियों की खुदाई करेंगे तो आपको प्राचीनकाल की बहुत-सी चीज़ें मिल सकती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि आप जड़ों को खोदकर भारत को खोखला कर दें।
इस मामले में मीडिया का रवैया भी पक्षपाती है। गोदी मीडिया के सभी चैनलों पर बहसें की जा रही हैं, मस्जिद के सर्वे की जाँच लीक की जा रही है। मीडिया पूरे देश के माहौल को ख़राब करने में 100% किरदार निभा रहा है। अदालत के फ़ैसले से पहले ही अपना फ़ैसला सुना रहा है। संविधान के बजाय आस्था की बात कर रहा है। यह सब कुछ आरएसएस की प्लानिंग के मुताबिक़ हो रहा है। अँग्रेज़ों के सामने सर झुकानेवाले, भारत के मुग़ल शासकों को हमलावर कह रहे हैं। इन्हें औरंगज़ेब (रह०) के मज़ार पर फ़ातिहा पढ़ने पर भी ऐतिराज़ है।
सवाल यह है कि इसका क्या हल है? सबसे ज़्यादा मज़बूत किसी भी देश का क़ानून होता है। जिसको मज़बूत वहाँ की अदालतें बनाती हैं। लेकिन जब अदालतें ही पक्षपाती हो जाएँ तो क्या किया जा सकता है। जब इन्साफ़ करनेवाला ही बेवफ़ा हो जाए तो फिर किससे वफ़ा की उम्मीद की जाए। मेरी राय है कि इन हालात में मायूस होकर बैठ जाने और तमाशा देखने के बजाय अपने हिस्से का काम किया जाए।
इस सिलसिले में एक काम तो यह है कि मुस्लिम जमाअतें और मुस्लिम तंज़ीमें अलग-अलग कुछ करने के बजाय एक साझा कमेटी बनाएँ ताकि वो यकसूई के साथ काम कर सके, और दूसरे पक्ष को भी मौक़ा पड़ने पर बात करने में आसानी हो। लेकिन ख़ुदा के वास्ते ऐसा न हो कि बाबरी मस्जिद राब्ता कमेटी की तरह ज्ञानवापी कमेटी भी फूट का शिकार हो। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम मजलिसे-मशावरत दोनों कुल हिन्द सतह के इदारे हैं जिनमें लगभग सभी मसलकों के प्रतिनिधि हैं। इन इदारों के ज़रिए यह कमेटी बना दी जाए। इसके बाद किसी एक शख़्स या किसी तंज़ीम को किसी भी तरह का बयान देने और कार्रवाई करने का हक़ न हो। ज़ाहिर है ये पाबन्दी लगाना एक मुश्किल काम है। ये ज़िम्मेदारी तो हममें से हर एक की है कि जब किसी मामले पर हमारे इदारे कोई फ़ैसला ले लें तो व्यक्तिगत तौर पर हम इस मामले में अपनी ज़बान ख़ामोश रखें।
दूसरा काम इसके पीछे की साज़िश को नाकाम करने का है। हुकूमत चाहती है कि आवाम की तवज्जोह गंभीर और बुनयादी मुद्दों, मसलन बेरोज़गारी और महंगाई से हट जाए। हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इन मुद्दों को हर सतह से उठाएँ। हमारे मंच से हमारे नेता, अख़बारों में हमारे लेखक, हमारी मस्जिदों से हमारे इमाम और ख़तीब हज़रात इन मुद्दों की तरफ़ तवज्जोह दिलाएँ। हुकूमत की प्लानिंग है कि जज़्बाती सियासत के ज़रिये देश के लोगों के बीच नफ़रत को बढ़ावा दिया जाए, लोगों और अलग-अलग वर्गों में एक-दूसरे पर भरोसा परवान न चढ़े और आपसी सहयोग का माहौल ख़त्म हो।
इसको रोकने के लिए ग़ैर-मुस्लिम भाइयों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने हैं। उनसे मुहब्बत करना है। उनके काम आना है। उनके अन्दर यह विशवास पैदा करना है कि इस्लाम और मुसलमान उनके लिए कोई मसला नहीं हैं। डिबेट में चीख़ने-चिल्लाने और लड़ने-झगड़ने के बजाए अपनी बात को दलाइल के साथ पेश करना है। हमारा असल मसला केवल एक मस्जिद की हिफ़ाज़त नहीं है बल्कि तमाम इस्लामी पहचानों की हिफ़ाज़ात के साथ-साथ देश की अखंडता और देशवासियों की सफलता और कामयाबी भी हमारे एजेंडे का हिस्सा होना चाहिए। मौजूदा संविधान के तहत अदालती कार्रवाई के साथ-साथ आवामी राब्ते की भी ज़रूरत है।