पलश सुरजन
उत्तरप्रदेश चुनाव में अभी दो चरणों और मणिपुर में एक और चरण का मतदान बाकी है, और नतीजे 10 मार्च को आएंगे। लेकिन नतीजों के बाद जनता का क्या हाल होने वाला है, उसकी झलक अभी से दिखाई दे रही है।
केंद्र पर सत्तारुढ़ भाजपा को यह समझ आ गया है कि इस बार चुनावों में वो कितने पानी में है। इसलिए अब और सुरक्षित चालें चलने का कोई अर्थ नहीं है। पिछले कुछ दिनों से अंदेशा लग रहा था कि महंगाई के बड़े झटके जनता को लगेंगे और इसकी शुरुआत 1 मार्च से हो गई। अमूल दूध की कीमतें दो रुपए तक बढ़ गई हैं, जल्द ही बाकी कंपनियां भी दाम बढ़ा ही देंगी।
कमर्शियल रसोई गैस यानी 19 किलो और पांच किलो वाले सिलेंडर के दाम बढ़ गए हैं। 19 किलो वाले सिलेंडर के दाम में 105 रुपए प्रति सिलेंडर दाम बढ़े हैं, अब दिल्ली में इसकी कीमत दो हज़ार से ऊपर पहुंच गई है और चेन्नई में 21 सौ से ऊपर।
इसी तरह पांच किलो वाले सिलेंडर के दाम में 27 रुपए प्रति सिलेंडर बढ़ोतरी हुई है। इस बढ़ोतरी के बाद बाहर खाना खाना अब और महंगा हो जाएगा। जो लोग शौकिया रेस्तरां में जाते हैं, उन्हें महीने में एकाध बार की यह महंगाई भले ही न खले, लेकिन रोजगार के लिए जो लोग अपने घर से दूर रहते हैं और जिन्हें दोनों वक्त बाहर ही भोजन करना पड़ता है, उनके लिए गैस के दाम में यह बढ़ोतरी काफ़ी तकलीफ़देह होगी।
घरेलू रसोई गैस यानी 14 किलो वाले सिलेंडर के दाम भी जल्द ही बढ़ सकते हैं। दूध और गैस के साथ ही पेट्रोल-डीजल के दाम भी 10 मार्च के बाद बढ़ ही जाएंगे, ये अंदेशा अभी से होने लगा है।
रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें एक सौ बीस डॉलर प्रति बैरल के करीब जा पहुंची हैं। पहले जब भी अंतरराष्ट्रीय कीमतों में जरा सी बढ़ोतरी होती थी, तो देश में तेल कंपनियां फौरन दाम बढ़ा देती थीं और सरकार यह कहते हुए अपना बचाव कर लेती थी कि कीमतें तय करने में उसका कोई नियंत्रण नहीं है।
लेकिन अभी कीमतों में ठहराव आया हुआ है और इसका अघोषित रूप से कारण चुनाव ही है। सरकार भी जानती है कि तेल की कीमतों का सीधा असर आम आदमी के जीवन पर पड़ता है। इसलिए भाजपा अभी किसी तरह का जोखिम नहीं उठा रही।
पिछले विधानसभा चुनावों में भी केंद्र सरकार ने यही पैंतरा आजमाया था। दो मई को प.बंगाल समेत पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आए थे और उसके दो-तीन दिन बाद ही पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढऩी शुरु हो गई थीं और हर हफ्ते बढ़ती कीमतों के साथ पेट्रोल-डीजल के सौ रुपए पहुंच जाने का कमाल देश में हुआ था। इससे पहले भी देश ने अर्थव्यवस्था के कई बुरे दौर देखे, अंतरराष्ट्रीय हालात का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ते देखा, लेकिन आम आदमी तक इन हालात का असर कम से कम पहुंचे, यानी जनता पर बोझ कम से कम हो, इसका ध्यान सरकारें रखती थीं। मगर अभी सरकार जनता की तकलीफ से बिल्कुल ही बेपरवाह नज़र आ रही है।
पिछले कुछ दिनों में फिर से खुदरा महंगाई बढ़ रही है, इस बात के गवाह सरकार के आंकड़े ही हैं। मगर प्रधानमंत्री उप्र की चुनावी सभाओं में जनता को समझा रहे हैं कि ये भारत का सामर्थ्य ही है कि हम यूक्रेन में फंसे भारतीयों को वापस लाने का अभियान चला रहे हैं।
सारा देश देख रहा है कि हमारे विद्यार्थी किन तकलीफों से यूक्रेन से निकलने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री देश के सामर्थ्य का हवाला देते हुए उन तकलीफों को गलत बताने की कोशिश कर रहे हैं। अभी त्यौहार के मौके पर महंगाई से देश में जो हाहाकार मचेगी, उस तकलीफ से भी ध्यान हटाने के लिए कोई लचर तर्क गढ़ लिया जाएगा।
मगर जनता को अपनी तकलीफें याद रखते हुए ध्यान देना होगा कि जब आपकी जेब पर महंगाई सेंध लगा रही थी, उस वक्त देश के ही दो उद्योगपतियों में एशिया का सबसे अमीर व्यक्ति बनने की होड़ लगी हुई थी।
इस प्रतियोगिता में गौतम अडानी ने फिलहाल बाजी मार ली है। फ़ोर्ब्स के मुताबिक साल 2017 में गौतम अडानी की कुल संपत्ति 5.8 अरब डॉलर थी और वह दुनिया के अमीरों की लिस्ट में 250वें नंबर पर थे, लेकिन अब यानी 2022 में 89.6 अरब डॉलर के साथ वे दुनिया के पहले 10 अमीरों में शामिल हो चुके हैं। पांच सालों में उनकी संपत्ति इकाई से दहाई अरब डॉलर तक पहुंच गई। जबकि इन्हीं पांच सालों में देश के आम आदमी की बदहाली और तकलीफें भी बढ़ गई हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्य की रैंकिंग में भारत ने सौ में से कुल 66 अंक ही हासिल किए हैं और 192 देशों की सूची में भारत पिछले साल के मुकाबले तीन पायदान नीचे फिसल कर 120वें स्थान पर आ गया है। जबकि भूटान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल जैसे पड़ोसी हमसे कहीं आगे हैं।
गौरतलब है कि सतत विकास का एजेंडा 2030 को संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने धरती पर शांति और समृद्धि कायम करने के लिए 2015 में अपनाया था। वैश्विक भागीदारी के जरिये इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए सतत विकास के 17 लक्ष्य तय किए गए हैं, जिसे भारत पूरा नहीं कर पा रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल भारत भूख को समाप्त करने, खाद्य सुरक्षा हासिल करने, लैंगिक समानता, लचीला बुनियादी ढांचा, समावेशी और टिकाऊ औद्योगीकरण का लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहा है। सरकार के मुताबिक देश की रैंकिंग में गिरावट की वजह मुख्य रूप से भूख, अच्छे स्वास्थ्य, खुशहाली, लैंगिक समानता की चुनौतियां हैं।
सवाल यही है कि इन चुनौतियों का सामना करने की सरकार की क्या तैयारी है। क्या बेकाबू महंगाई से भूख और स्वास्थ्य की समस्या हल हो सकेगी। क्या लोगों पर कीमतों का बोझ डालकर उन्हें खुशहाल रहने कहा जा सकेगा। हालात लगातार सरकार को आईना दिखा रहे हैं, मगर सरकार सच से मुंह मोड़कर भारत का सामर्थ्य बताने में लगी है।
(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)