प्राइवेट जॉब वालों पर गहराया संकट, अब जब चाहे तब कर्मचारियों को नौकरी से निकाल सकेंगे फर्म के मालिक

गिरीश मालवीय

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प्राइवेट जॉब कर रहे मौजूदा सरकार के लिए बहुत बड़ी खुशखबरी है अब उन्हें उनका मालिक जब चाहे तब नौकरी से निकाल सकता है। इससे कोई फ़र्क नही पड़ेगा कि वह कितने सालो से वहां नोकरी कर रहे थे. मालिको को यह अधिकार उनके प्राणों से अधिक प्रिय मोदी जी ने ही दिया है अब कंपनियां परमानेंट नौकरियों को फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट में तब्दील कर सकती हैं।

पिछले सप्ताह इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड, 2020 को नोटिफाई  कर दिया गया, इस नए कानून के चलते कंपनियों के मजे हो गए हैं. अब कंपनियां फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट जॉब के लिए सीधे तौर पर कर्मचारियों की नियुक्तियां कर सकती हैं। इस नए कानून के पहले जो कानून था उसके तहत यह प्रावधान था कि कोई भी औद्योगिक संस्थान परमानेंट कर्मचारियों के पदों को फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट में तब्दील नहीं कर सकता। लेकिन अब इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड, 2020 में ऐसा कोई नियम नहीं है यानी कंपनियों को अब खुली छूट है.

मोदी सरकार द्वारा किये गए तमाम श्रम सुधार दरअसल नियोक्‍ताओं के लिए कर्मचारियों की छंटनी को आसान बनाने के लिए ही है. इसी कानून के तहत नियुक्ति एवं छंटनी संबंधी नियम लागू करने के लिए न्यूनतम कर्मचारियों की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 कर दिया गया है, जिसके चलते ये प्रबल संभावना जताई जा रही है नियोक्ता इसका फायदा उठाकर बिना सरकारी मंजूरी के ज्यादा कर्मचारियों को तत्काल निकाल सकेंगे और फिर उसी अनुपात में कांट्रेक्ट लेबर के तौर पर भर्ती कर लेंगे.

माना जा रहा है कि इस प्रावधान से 74 फीसदी से अधिक औद्योगिक कर्मचारी और 70 फीसदी औद्योगिक प्रतिष्ठान ‘हायर एंड फायर’ व्यवस्था में ढकेल दिए जाएंगे, जहां उन्हें अपने मालिक के रहमो करम पर जीना पड़ेगा.’ नए कानून के अनुसार कोई भी कंपनी, फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मचारियों को सजा देने, निकालने, प्रमोशन में पक्षपात जैसे नियम पूरी तरह से कंपनी के मालिकों के हाथों में आ जाएगें जिससे कर्मचारियों का शोषण और अन्याय बढ़ेगा.

वैसे नेशनल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस पीरियॉ़डिक लेबर फोर्स सर्वे 2018-19 के मुताबिक भारत में सिर्फ 4.2 पर्सेंट कर्मचारी ऐसे हैं, जो सम्मानजनक नौकरियों में हैं। अब वो भी नही बचेंगे क्या फर्क पड़ता है?  मोदी जी ने दिल तो जीत ही रखा है ‘अंधभक्तो’ की नोकरी रहे न रहे , उनके बच्चे चाहे खाने पहनने को तरसे क्या फ़र्क पड़ता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)