कश्मीर के श्रीनगर निवासी गुलाम रसूल को पिछले दिनों राष्ट्रपति द्वारा पद्म पुरुस्कार से नवाज़ा गया है। उन्होंने छह सौ साल से भी पुराने जामावार शॉल बुनने के हुनर को कश्मीर में पुनर्जीवित किया है। पद्मश्री पुरस्कार पाने वाले गुलाम रसूल को हस्तशिल्प का हुनर पिता से विरासत में मिला था, लेकिन जामावार शॉल की कारीगरी उनका अपना योगदान है। गुलाम रसूल बताते हैं कि मुगलों का पसंदीदा रहा जामावार शॉल तैयार करने में खासा वक्त लगता है।
Meet Shri Ghulam Rasool Khan who is a Jamawar Patchwork Artist from Srinagar. He is working towards conserving the oldest form of Kashmiri shawl technique. Winner of National Award for Textile, he will be conferred with Padma Shri 2021 in the field of ‘Art’. #PadmaAwards2021 pic.twitter.com/78ESZF31r9
— Padma Awards (@PadmaAwards) February 4, 2021
उन्होंने पहली बार 1990 में शॉल बनाने की ठानी, जिसे पूरा करने में 12 साल लग गए। यह शॉल 2002 में बनकर तैयार हुआ था। पद्मश्री सम्मान मिलने पर रसूल ने कहा कि इससे और बेहतर के लिए हौसला अफजाई होगी। गुलाम रसूल ने बताते हैं कि पिता की मौत और एक सड़क हादसे के बाद उन्होंने न सिर्फ अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया, बल्कि लुप्त हो चुके जामावार शॉल शिल्प को पुनर्जीवित भी किया। छह से सात सौ वर्ष पहले कश्मीरी कारीगर ईरान से यह कला लेकर आए थे।
कश्मीर में मुग़ल इन्हीं शॉल का उपयोग करते थे, लेकिन समय के साथ यह लुप्त होती गई। 63 वर्ष के गुलाम रसूल के अनुसार जामावार शॉल की कला को पुनर्जीवित करना एक उन्हें एक चमत्कार लगता है। 1990 में सड़क हादसे में वह बुरी तरह से घायल हो गए। डॉक्टर ने चलने से मना कर दिया।
इस दौरान अचानक जेहन में जामावार शॉल बुनने की बात आई। काम शुरू किया तो हौसला भी बढ़ता गया। रसूल ने कहा कि तकनीक से बनने वाले शॉल में दो से तीन साल तक का समय भी लगता है। इसका पूरा डिजाइन पहले तैयार करना पड़ता है, फिर उसे सूई धागे से बनाया जाता है। 1990 में पहली बार इस जामावार शॉल को बनाने का काम शुरू किया था जो 2002 में पूरा हो पाया। उन्होंने कहा कि हस्तशिल्प की समझ पिता से विरासत में मिली थी, लेकिन पिता ने भी कभी जमावर शॉल नहीं बनाया था।
कन्नी और सोजनी डिजाइन में बनते हैं ये खास शॉल
रसूल ने कहा कि जामावार शिल्प में कन्नी और सोजनी दो डिजाइन होते हैं। सोजनी कलाकार की भावनाएं रेखांरित करती है। इससे कलाकार के पास एक दृश्य की जरूरत होती है, जिसे वह बयां करता है। सूई से इसे तैयार किया जाता है, जिसमें एक दृश्य के साथ कड़ी मेहनत लगती है। इसमें पशमीना का उपयोग किया जाता है। खास बात है कि तीन से चार पशमीना शॉल जितनी सामग्री एक ही शॉल में लगती है।
नए कारीगरों को सिखा रहे कला
गुलाम रसूल खान ने कहा कि सरकार को हस्तशिल्प को बढ़ावा देना होगा। जामावार शॉल की कला दुर्लभ है, जिसे वह अब नए कारीगरों को सिखा रहे हैं। रसूल ने कहा – सात सौ वर्ष पहले जामावार शॉल 34 टुकड़ों में बनाया गया था। 2003 में मैंने इसे 64 टुकड़ों में बनाया। सरकार ने इसके लिए बाकायदा राज्य अवॉर्ड भी दिया था। 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखजी से शिल्प गुरू अवार्ड मिला था।
सभार- अमर उजाला