जॉर्ज फ़र्नांडिसः सादगी की मिसाल, राजनीति के शिखर पर पहुंचकर भी खुद धोया करते थे अपने कपड़े

रेहान फज़ल

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

राष्ट्रीय स्तर पर जॉर्ज फ़र्नांडिस की सबसे पहले पहचान हुई थी 1967 में, जब उन्होंने बंबई दक्षिण लोकसभा सीट से कांग्रेस के कद्दावर नेता एस.के. पाटिल को हराया था। तभी से उनका नाम ‘जॉर्ज द जायंट किलर’ पड़ा। उस ज़माने में जॉर्ज बंबई म्युनिसिपिल काउंसिल में काउंसलर हुआ करते थे। जाने माने पत्रकार और जॉर्ज फ़र्नांडिस के निकट सहयोगी रहे के. विक्रम राव याद करते हैं, “मैंने एस.के. पाटिल के पत्रकार सम्मेलन में एक शरारत की। मैंने कहा, आप तो बंबई के बेताज बादशाह हैं। सुना है कोई म्युनिसिपिल काउंसलर जॉर्ज फ़र्नांडिस आप के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहा है।” “पाटिल ने उलटे मुझ ही पर सवाल दाग दिया, ये कौन है जॉर्ज फ़र्नांडिस? फिर मैंने उन्हें तंग करने के लिए अगला सवाल दागा। आप को कोई हरा तो सकता नहीं है, लेकिन अगर आप हार गए तो? तब एस.के. पाटिल ने बहुत ग़ुरूर के साथ जवाब दिया था, अगर भगवान भी आ जाएं तो मुझे हरा नहीं सकते।”

के. विक्रम राव बताते हैं, “अगले दिन बंबई के सारे अख़बारों की हेड लाइन थी, ‘ईवेन गॉड कैन नॉट डिफ़ीट मी, सेज़ पाटिल।” उसी एक टिप्पणी पर जॉर्ज फ़र्नांडिस ने पोस्टर छपवाए, “पाटिल कहते हैं, भगवान भी नहीं हरा सकते उनको। लेकिन आप हरा सकते हैं इस शख़्स को।” ये शुरुआत थी पाटिल के पतन की और जॉर्ज के उदय की। पाटिल जॉर्ज फ़र्नांडिस से 42 हज़ार वोटों से चुनाव हार गए। जॉर्ज फ़र्नांडिस को निकट से जानने वाले एक और पत्रकार विजय सांघवी कहते हैं, “उन्हें बंबई का शेर कहा जाता था। जब वो गर्जना करते थे तो पूरी बंबई हिल जाया करती थी। वो हड़तालें ज़रूर करवाते थे लेकिन अगर हड़ताल तीन दिन से अधिक चल जाती थी तो वो ख़ुद खाना लेकर मज़दूरों की बस्ती में पहुंच जाते थे।”

जॉर्ज फ़र्नांडिस को दूसरी बार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ी तब मिली जब उन्होंने अपने बूते पर पूरे भारत में रेल हड़ताल करवाई। आज़ादी के बाद तीन वेतन आयोग आ चुके थे, लेकिन रेल कर्मचारियों के वेतन में कोई दर्ज करने लायक़ इज़ाफ़ा नहीं हुआ था। जॉर्ज नवंबर 1973 को ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फ़ेडरेशन के अध्यक्ष बने और यह तय किया गया कि वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर हड़ताल की जाए। ये जॉर्ज का ही कमाल था कि टैक्सी ड्राइवर, इलेक्ट्रिसिटी यूनियन और ट्रांसपोर्ट की यूनियनें भी इसमें शामिल हो गईं। मद्रास की कोच फ़ैक्ट्री के दस हज़ार मज़दूर भी हड़ताल के समर्थन में सड़क पर आ गए। गया में रेल कर्मचारियों ने अपने परिवारों के साथ पटरियों पर कब्ज़ा कर लिया। एक बार के लिए पूरा देश रुक गया। सरकार की तरफ़ से हड़ताल के प्रति सख़्त रुख़ अपनाया गया। कई जगह रेलवे ट्रैक खुलवाने के लिए सेना को तैनात किया गया।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक़, हड़ताल तोड़ने के लिए 30,000 से ज़्यादा मज़दूर नेताओं को जेल में डाल दिया गया। इंदिरा गाँधी की सरकार ने बहुत क्रूरता से इस हड़ताल को कुचल दिया। विक्रम राव बताते हैं, “श्रमजीवी आंदोलन के इतिहास में किसी हड़ताल को इतनी बेरहमी से नहीं कुचला गया। यहाँ तक कि अंग्रेज़ों ने भी इतनी क्रूरता नहीं दिखाई। जॉर्ज को जेल में डाल दिया गया।” विजय सांघवी बताते है, “रेल हड़ताल के दौरान ही इंदिरा गाँधी ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था। उससे पूरी दुनिया चौंक गई थी, लेकिन भारत के लोगों पर उसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था। उन दिनों की टॉप ख़बर रेल हड़ताल थी।” 25 जून 1975 को जब आपातकाल की घोषणा हुई तो जॉर्ज फ़र्नांडिस रात के 11 बजे तक प्रतिपक्ष के कार्यालय में थे। वहीं वो सो गए। अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे उन्होंने भुवनेश्वर की फ़्लाइट ली। वहाँ जाकर ही उन्हें पता चला कि देश में इमरजेंसी लग गई है।

विजय सांघवी बताते हैं, “वहाँ से वो कार से दिल्ली आए और सीधे मेरे घर पहुंचे। उन्होंने कहा कि मैं कुछ दिन तुम्हारे साथ रहूंगा। उसके बाद जॉर्ज दिल्ली से बड़ौदा गए।” के. विक्रम राव बताते हैं, “आपातकाल घोषित होने के डेढ़ महीने बाद अचानक बड़ौदा में एक सरदारजी मेरे घर पहुंचे। जॉर्ज ने बहुत अच्छा भेष बदल रखा था, लेकिन मैं उन्हें पहचान गया, क्योंकि जब वो मुस्कराते थे तो उनके गाल के पास ठुड्डी में एक गड्ढा बन जाता था।” “मैंने उनसे कहा था जॉर्ज तुम बहुत अच्छे लग रहे हो। तब जॉर्ज ने एक बहुत मार्मिक वाक्य कहा था कि ‘मैं अपने ही देश में शरणार्थी बन गया हूँ।’ जब जॉर्ज को कोलकाता के एक चर्च में गिरफ़्तार किया गया तो उसी रात उन्हें गुपचुप रूसी फ़ौजी जहाज़ इल्यूशिन से दिल्ली ले जाया गया।”

के. विक्रम राव बताते हैं, “इंदिरा गांधी तब मॉस्को के दौरे पर थीं। उनसे फोन पर निर्देश लेने में कुछ समय लग गया। इस बीच चर्च के पादरी विजयन ने कोलकाता में ब्रिटिश और जर्मन उप-राजदूतावास को बता दिया कि जॉर्ज को पकड़ लिया गया है और ये तय है कि उन्हें एनकाउंटर में मार दिया जाएगा। ये ख़बर तुरंत लंदन और बॉन पहुंच गई।” “ब्रिटिश प्रधानमंत्री जेम्स कैलाघन, जर्मन चांसलर विली ब्राण्ड और ऑस्ट्रिया के चांसलर ब्रूनो क्राएस्की ने जो सोशलिस्ट इंटरनेशनल के नेता थे, एक साथ इंदिरा गांधी को मॉस्को में फ़ोन पर गंभीर परिणामों से आगाह किया कि यदि जॉर्ज को मार दिया गया तो इससे उनके भारत के साथ संबंध ख़राब हो जाएंगे।”

“ग़नीमत थी कि इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं से डरती थीं। यही वजह थी कि जॉर्ज का एनकाउंटर नहीं किया गया और उन्हें तिहाड़ जेल ले जाया गया।” साल 1977 में जब चुनाव की घोषणा हुई तो जॉर्ज ने जेल में रहते हुए ही मुज़फ़्फ़रपुर से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। के. विक्रम राव बताते हैं, “हम सब तिहाड़ जेल के 17 नंबर वॉर्ड में बंद थे। हमने तिहाड़ जेल आने वाले एक डॉक्टर को पटाया कि रात को वो जब आएं तो ये ख़बर पता करके आएं कि उस समय मुज़फ़्फ़रपुर में कौन लीड कर रहा है? उन्होंने बताया कि जॉर्ज एक लाख वोटों से लीड कर रहे हैं।”

“मैं जेल में चोरी छिपे एक छोटा सा ट्रांजिस्टर ले गया था। सुबह 4 बजे हमने ‘वॉयस ऑफ़ अमरीका’ से सुना कि इंदिरा गाँधी के चुनाव एजेंट ने रायबरेली सीट पर दोबारा वोटों की गिनती की मांग की है।” “यह सुनते ही मैं तो उछल पड़ा, क्योंकि हारने वाले ही दोबारा वोटों की गिनती की मांग करते हैं। मैंने तुरंत चारपाई पर लेटे हुए जॉर्ज को जगाकर ख़बर सुनाई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गई हैं। पूरे जेल में जैसे दिवाली जैसा माहौल छा गया और हम लोग एक दूसरे से गले मिलने लगे।” साल 1977 के जनता मंत्रिमंडल में जॉर्ज को पहले संचार मंत्री और फिर उद्योग मंत्री बनाया गया। जब जनता पार्टी में टूट शुरू हुई तो उन्होंने संसद में मोरारजी देसाई का ज़बरदस्त बचाव किया।

लेकिन 24 घंटे के अंदर वही जॉर्ज चरण सिंह के खेमे में पहुंच गए। इस राजनीतिक सोमरसॉल्ट से जॉर्ज की खासी किरकिरी हुई और उस पर तुर्रा ये हुआ कि चरण सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल तक में नहीं लिया। नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री रहे हुमायूं कबीर की बेटी लैला कबीर से जॉर्ज की मुलाक़ात 1971 में कोलकाता से दिल्ली आते हुए इंडियन एयरलाइंस की एक फ़्लाइट में हुई थी। दिल्ली पहुंचने पर जॉर्ज ने लैला को उनके घर छोड़ने की पेशकश की थी, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया था। लेकिन तीन महीने बाद जॉर्ज ने उनके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। दिलचस्प बात ये है कि उनकी शादी में राजनीतिक रूप से उनकी धुर-विरोधी इंदिरा गाँधी भी शामिल हुई थीं। लेकिन 1984 आते-आते जॉर्ज और लैला के संबंधों में दरार पड़नी शुरू हो गई थी।

साल 1977 में जॉर्ज फ़र्नांडिस की मुलाक़ात पहली बार जया जेटली से हुई। उस समय वो जनता पार्टी सरकार में उद्योग मंत्री थे और जया के पति अशोक जेटली उनके स्पेशल असिस्टेंट हुआ करते थे। जया ने जॉर्ज के साथ काम करना शुरू कर दिया और 1984 आते-आते जॉर्ज जया ने अपने निजी दांपत्य जीवन की बातें भी बांटने लगे, जो कि उस समय बहुत उतार-चढ़ाव से गुज़र रहा था। जया बताती हैं, “उस समय उनकी पत्नी अक्सर बीमार रहती थीं और लंबे समय के लिए अमरीका और ब्रिटेन चली जाती थीं। जॉर्ज जब बाहर जाते थे तो अपने बेटे शॉन को मेरे यहाँ छोड़ जाते थे।” मैंने जया जेटली से पूछा कि जॉर्ज आपके सिर्फ़ दोस्त थे या इससे भी कुछ बढ़ कर? जया का जवाब था, “कई किस्म के दोस्त हुआ करते हैं और दोस्ती के भी कई स्तर होते हैं। महिलाओं को एक किस्म के बौद्धिक सम्मान की बहुत ज़रूरत होती है। हमारे पुरुष प्रधान समाज के अधिकतर लोग सोचते हैं कि महिलाएं कमज़ोर दिमाग़ और कमज़ोर शरीर की होती हैं। जॉर्ज वाहिद शख़्स थे जिन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि महिलाओं की भी राजनीतिक सोच हो सकती है।”

“दूसरे उनकी सोच बहुत मानवतावादी थी। एक बार वो जेल में थे। पंखे के ऊपर बनाए गए चिड़िया के घोंसले से उसके दो-तीन बच्चे नीचे गिर गए। वो उड़ नहीं सकते थे। उन्होंने अपनी ऊनी टोपी से उनके लिए एक घोंसला बनाया और उन्हें पाला।” “वो कहीं भी जाते थे, अपनी जेब में दो टॉफ़ी रखते थे। इंडियन एयरलाइंस की फ़्लाइट में वो टॉफ़ियाँ मुफ़्त मिलती थीं। वो बच्चों को देखते ही वो टॉफ़ी उन्हें खाने के लिए देते थे। ये ही सब चीज़े थीं जिन्होंने हम दोनों को जोड़ा। इसमें रोमांस का पुट बिल्कुल नहीं था।” जॉर्ज फ़र्नांडिस एक विद्रोही राजनेता थे जिनका परंपराओं को मानने में यकीन नहीं था। हैरी पॉटर की किताबों से लेकर महात्मा गाँधी और विंस्टन चर्चिल की जीवनी तक- उन्हें किताबें पढ़ने का बहुत शौक था।

उनकी एक ज़बरदस्त लाइब्रेरी हुआ करती थी, जिसकी कोई भी किताब ऐसी नहीं थी, जिसे उन्होंने पढ़ा न हो। जया जेटली बताती हैं, “अपनी ज़िंदगी में उन्होंने न तो कभी कंघा खरीदा और न ही इस्तेमाल किया। अपने कपड़े वो ख़ुद धोते थे। उन पर इस्त्री ज़रूर कराते थे लेकिन उन्हें सफ़ेद बर्राक कलफ़ लगे कपड़े पहनना बिल्कुल पसंद नहीं था।” “लालू यादव ने एक बार अपने भाषण में कहा था कि जॉर्ज बिल्कुल बोगस व्यक्ति हैं। वो धोबी के यहाँ अपने कपड़े धुलवाते हैं। वहाँ से धुल कर आने के बाद वो उसे मिट्टी में सान कर निचोड़ कर फिर पहन लेते हैं।” जया जेटली ने बताया, “जब ये कुछ टीवी वालों ने सुना जो वो जॉर्ज साहब के पास आए और बोले कि क्या हम कपड़े धोते हुए आपको फ़िल्मा सकते हैं? जॉर्ज को ये सुन कर बहुत मज़ा आया और वो राजीव शुक्ला के रूबरू प्रोग्राम के लिए लुंगी पहन कर अपने गंदे कपड़े धोने के लिए तैयार हो गए।” “जॉर्ज को खाने का बहुत शौक था। ख़ासतौर से कोंकण की मछली और क्रैब करी उन्हें बहुत पसंद थी। 1979 में एक बार हम ट्रेड यूनियन बैठक में भाग लेने मुंबई गए। वो हम सब लोगों को अशोक लंच होम नाम की एक जगह पर ले गए। वहाँ उन्होंने हमें मछली करी खिलाई।”

“मुझे बहुत अच्छा लगा जब उन्होंने ड्राइवर को भी अपने साथ एक ही मेज़ पर बैठा कर खाना खिलाया। आज कल तो बच्चों को संभालने वाली औरतों तक को मालिक के साथ रेस्तराँ में बैठने नहीं दिया जाता। जॉर्ज की सोच इसके बिल्कुल विपरीत थी। इन सब चीज़ों ने मुझे उनसे जोड़ा।” जॉर्ज फ़र्नांडिस भारत के अकेले मंत्री थे जिनके निवास स्थान पर कोई गेट या सुरक्षा गार्ड नहीं था और कोई भी उनके घर पर बेरोकटोक जा सकता था। इसके पीछे भी एक क़िस्सा है। जया जेटली याद करती हैं, “जॉर्ज साहब के घर के सामने गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण रहा करते थे। उनके साथ बहुत बड़ा सिक्योरिटी बंदोबस्त चलता था। जॉर्ज साहब उन दिनों विपक्ष में बैठते थे। जब भी चव्हाण को संसद जाने के लिए अपने घर से निकलना होता, उनके सुरक्षाकर्मी जॉर्ज साहब का गेट बंद करवा देते ताकि उस घर में रहने वाला कोई शख़्स अंदर बाहर नहीं जा सकता था।” “एक दिन जॉर्ज को इससे बहुत ग़ुस्सा आ गया। उन्होंने कहा कि चव्हाण साहब की तरह मेरा भी संसद जाना बहुत ज़रूरी है। अगर उनकी सुविधा के लिए मुझे मेरे ही घर में बंद किया जाता है तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। उन्होंने मेरे सामने ही रिंच से अपना गेट उखड़वा दिया। उन्होंने कभी अपने घर पर गार्ड नहीं रखा।”

“रक्षा मंत्री बनने के बाद भी वाजपेयी तक ने उनसे सुरक्षाकर्मी रखने के लिए अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने उनकी बात नहीं मानी। आख़िर में उन्होंने गार्ड रखना तब स्वीकार किया जब संसद के ऊपर हमला हो गया। तब मैंने ही उनसे कहा था कि जॉर्ज फ़र्नांडिस को मारा जाना इतनी बड़ी बात नहीं होगी, लेकिन अगर देश के रक्षा मंत्री को मारा जाता है, तो ये देश के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा। तब उन्होंने अनमने पन से अपने घर पर एक दो गार्ड्स रखने शुरू कर दिए।

(लेखक बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)