नवेद शिकोह
किसानों को नाराज़ करना खुद की थाली में छेद करना जैसा है। ये हमारा पेट भरते हैं इनको खुश रखना हम सब की जिम्मेदारी है। खास कर सरकारों का फर्ज है कि वो अन्नदाओं के लबों पर कोई गिला-शिकवा आने का मौका ही ना दें। सरकार ये कहकर अपना बचाव नहीं कर सकती है कि किसानों को विपक्ष भड़का रहा है। ऐसी बातें तो सरकार के सामने ही प्रश्नचिन्ह लगा देंगी। सवाल उठेंगे कि सरकार किसानों को सच बताने में असफल हुई होगी तब ही तो विपक्ष को झूठ के सहारे भड़काने का मौका मिला होगा। दूसरा सवाल ये कि जब देश के करोड़ों किसान चुनाव में भाजपा पर विश्वास जताते हैं, उसे वोट देते हैं तो फिर कांग्रेस के भड़काने पर क्यों आयेंगे !
किसानों के प्रति सरकार का रवैया अन्य प्रदर्शनकारियों से अलग होना चाहिए है। सरकर आंदोलनकारियों को शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन करने दे तो आंदोलन शायद हिंसक ना हो। किसी भी आंदोलन के हिंसक होने का खतरा तब ज्यादा बढ़ जाता है जब आन्दोनकारियों को प्रदर्शन के लिए रोका जाता है। रास्ते रोके जाते हैं, रास्ते खोद दिए जाते हैं, आंसू गैस और पानी की बौचारें छोड़ी जाती हैं, लाठियां चलायी जाती हैं। इस तरह से टकराव हो जाना स्वाभाविक है। और तो और किसी वर्ग की सरकार से नाराजगी की आग में विपक्ष का हवा-पानी देना भी स्वाभाविक और घातक होता है। ये हमेशा से होता रहा है और होता रहेगा। हमेशा ही सत्ता पक्ष विपक्ष पर आरोप लगाता है कि फलां तब्के को भड़का कर विपक्ष ने हिंसक आंदोलन का रोड मैप तैयार किया है। इन पारंपरिक बयान बाजी के अलावा भी मांगकर्ताओं की बगावत से निपटने के लिए हर दौर की सरकार हमेशा लगभग एक जैसे क़दम उठाये जाते हैं।
इतिहास पलट कर देखिए सत्ता की ताकत पहले मांगकर्ताओं की मांगो पर विचार तक नहीं करती और उससे टकराकर उसकी ताकत को टटोलती है। इस बीच आंदोलन हिंसक हो जाता है। इस बीच जनता को परेशान होना पड़ता है। सरकारें ऐसे में परेशान जनता को आंदोलनकारियों के खिलाफ करने के लिए एकतरफा हिंसा की तस्वीरों की दलीलें देती है। अपने सूचनातंत्र के जरिए आंदोलनकारियों की एकतरफा उग्रता और हिंसा की तस्वीरें प्रचारित करती है।
शायद ही कोई आंदोलन ऐसा हो जिस पर हिंसक होने के आरोप नहीं लगे हों। यहां तक कि देश की आज़ादी की लड़ाई में महत्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन पर भी अंग्रेजों की हुकुमत ने हिंसा फैलाने वाला आंदोलन बताया था। ब्रिटिश सरकार ने महत्मा गांधी और कांग्रेस पर आरोप लगाये थे कि इनके नेतृत्व ने लोगों को भड़काने, उकसाने और हिंसक बनाने का काम किया।
यानी उस बापू पर भी हिंसा फैलाने की तोहमतें लगी थीं जो अहिंसा के पुजारी थे। जिसने दुनिया को अहिंसा परमो धर्मः का संदेश दिया। और अहिंसा की शक्ति से ही ताकतवर ब्रिटिश हुक्मरानों से भारत को आज़ाद करवाया। कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल बढ़ा देने की बात कही थी।
इन दिनों खेती-किसानी से जुड़े नये कृषि कानून के खिलाफ किसानों का आंदोलन आकार ले रहा है। एक से दो और दो से चार राज्यों में फैलकर ये आंदोलन मुसीबत बन सकता है। दो बातें सबसे ज्यादा डरा रही हैं। पहली ये कि कोरोना काल। दूसरी अहम बात कि किसानों का कोई मजबूत नेतृत्व नहीं है। बिना लीडरशिप वाला कोई भी आंदोलन सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बनता है। इस दौर में महेंद्र सिंह टिकैत जैसा राष्ट्रीय किसान नेता देश में कोई नहीं है। सरकार और आंदोलनकारियों के बीच सेतु बनकर कोई बड़ा किसान नेता ही समस्या का हल निकाल सकता है। फिलहाल इस बीच केंद्र सरकार अब कुछ नर्म पड़ी है और किसानों से बातचीत का सराहनीय प्रस्ताव रखा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव स्तंभकार हैं, उनसे 8090180257 पर संपर्क किया जा सकता है)