शाहिद नक़वी
आज बड़े जोर-शोर से महिला सशक्तीकरण का प्रचार कर तमाम लोग अपनी पीठ थपथपा रहे हैं।लेकिन उस महान महिला को भूल गए जिन्होंने 175 साल पहले महिला शिक्षा के लिए।सावित्रीबाई फुले के साथ अपना सब कुछ समर्पित कर दिया था।असल में तो फातिमा शेख और सावित्रीबाई फुले ने ही महिला सशक्तिकरण के लिए दरवाज़े पौने दो सौ साल पहले खोले थे।असल में फ़ातिमा शेख़ का जीवन एक प्रारंभिक अग्रदूत था।उनका जीवन 19वीं शताब्दी के जीवन की पितृसत्ता और रूढ़िवादी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत आवाज़ थी।
ताज्जुब है कि 1848 में एक फातिमा शेख उठ खड़ी होती हैं और शिक्षा का अलख जगाने के लिए निकल पड़ती हैं।एक नहीं पांच स्कूल खोल देती लेकिन आज जब ठेले पर इंटरनेट और कंप्यूटर चल रहा है तब भी मुस्लिम आबादी का केवल 3-4 प्रतिशत हिस्सा ही ग्रेजुएट या उससे उपर तक शिक्षित हैं तो महिलाओं के आंकड़े का सहज अंदाजा लग सकता है।जबकि पहले की तुलना में स्कूल भी अधिक और मदरसे भी अधिक है।इस समाज में निरक्षरता 42 प्रतिशत है।
बहुत सम्भव हो कि इन आंकड़ों में अब कुछ बदलाव हो गया हो। लेकिन तस्वीर आज भी उतनी उजली नहीं जितनी होनी चाहिए थी।समाज में धर्म गुरु कहलाने वाले लोग कभी भी समाज से स्कूल जाने या समाज को स्कूल खोलने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं। नेताओं से भी वह मदरसा के लिए चंदे की ज्यादा अपेक्षा करते हैं, ताकि उनकी दुकान चलती रहे।
आज से क़रीब 175 साल पहले फ़ातिमा शेख़ एक भारतीय महिला शिक्षिका थीं, जिन्होंने अपनी दोस्त सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं की तालीम की नीव डाली थी। फातिमा शेख ने अपने घर में ही पहला स्कूल खोला था।आज उनके बारे में लोग नहीं जानते हैं। क्यों कि वह रुढ़िवादियों के खिलाफ थी।जब हम फातिमा शेख को नहीं जानते तो फिर उनके कामों को केसे जानेंगे।अगर फातिमा शेख को समाज ने याद रखा होता तो सदियों में केवल एक अब्दुल कलाम ना निकलते।